- डॉ. दीपक पाचपोर
मोदी ने दो अदूरदर्शितापूर्ण व सनक भरे निर्णय लेकर भारत की आर्थिक बुनियाद ही हिलाकर रख दी। नोटबन्दी और उसके कुछ समय बाद लागू जीएसटी से देश का भट्टा बैठ गया। वैसे तो पहले भी मोदी ने भावनात्मक मुद्दों को हवा दे रखी थी, जब देखा कि उनकी सारी योजनाएं एक के बाद एक नाकाम हो रही हैं, तो उन्होंने अपने दूसरे कालखंड में जन सरोकार के मुद्दे से खुद को पूरा खींच लिया।
अपने करीब 9 साल के प्रधानमंत्रित्व काल के सबसे मुश्किल दौर से गुजर रहे नरेन्द्र मोदी को यदि इस वक्त भारतीय जनता पार्टी बचा रही है तो ठीक है;
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ उनके साथ खड़ा है, तो यह भी समझ में आता है;
पूरी सरकार उनके बचाव में आ गई है तो यह स्वाभाविक ही है;
कार्यपालिका उन्हें साथ दे रही है तो यह भी कोई बेजा नहीं;
न्यायपालिका से इसके अलावा और कोई उम्मीद नहीं की जा सकती है कि वह भी उन्हें बचायेगी;
संवैधानिक संस्थाएं भी एक तरह से लाचार हैं जो सरकार या उससे जुड़े किसी व्यक्ति, पदाधिकारी, मंत्री आदि के खिलाफ कोई कार्रवाई करे;
तो फिर अब रह कौन गया है? विपक्ष और जनता। वास्तव में विपक्ष के नाम पर अब केवल कांग्रेस ही रह गई है और सिर्फ राहुल गांधी ही मोदी की नीतियों पर सीधे आक्रमण कर उन्हें बेनकाब कर रहे हैं- तमाम तरह की उपेक्षा, उपहास, अपमान एवं आलोचना सहकर भी। शेष विपक्षी दल या तो भाजपा, संघ व मोदी से घबरा गये हैं अथवा लाभ की आशा में नतमस्तक हो चुके हैं। उनसे कोई उम्मीद नहीं की जा सकती। यह अलग बात है कि उन दलों में अनेक नेता ऐसे हैं जो प्रधानमंत्री बनने का सपना देखते हैं। सो, अब रह गई जनता-जनार्दन।
समझ से परे तो यह है कि आखिरकार उन्हें (मोदी को) जनता क्यों बचा रही है; या कम से कम वैसा विरोध क्यों नहीं कर रही है जैसा देश में कई बार पिछली सरकारों के साथ होता देखा गया है। वह चाहे आपातकाल के बाद तत्कालीन पीएम इंदिरा गांधी के खिलाफ हो या फिर डॉ. मनमोहन सिंह के विरुद्ध कथित भ्रष्टाचार को लेकर खड़ा किया गया लोकपाल आंदोलन। उन पर या उनकी संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) सरकार के खिलाफ जो आरोप लगाये गये थे तथा उन्हें लेकर जो परिस्थितियां बनीं, उसी के चलते वर्तमान मोदी सरकार केन्द्र की सत्ता पर काबिज हैं। भाजपा की ताकत इतनी बढ़ गई कि वह कई राज्यों में सतत सफलताएं पाती गई और केन्द्र में उसके दूसरे कार्यकाल में वह पहले से अधिक मजबूत होकर बैठी है- अपनी तमाम नाकामियों व मोदी की निरंकुश कार्यप्रणाली के बावजूद।
पहले कार्यकाल की राजनैतिक सफलता से प्रेरणा और उत्साह पाकर मोदी के नेतृत्व में भाजपा व संघ ने वही फार्मूला अपनाया- लोगों को विभाजित करने का। एक ओर साम्प्रदायिकता का खेल खेला तो दूसरी ओर हिन्दू समाज में ही फूट डाली है। हिन्दू व गैर हिन्दू के बीच टकराव और अगड़े-पिछड़ों के बीच का मतभेद इस समय अपने चरम पर है। एक के बाद एक सारी आर्थिक योजनाएं नाकाम हो गईं और विकास के नाम पर लाये गये कार्यक्रम प्रशासकीय अकुशलता के कारण औंधे मुंह गिरते चले गये। तो भी मोदी के समर्थक उनके साथ खड़े दिखे। एक ओर तो सरकार ने विकास सम्बन्धी मानक आंकड़ों व तथ्यों को छिपाया या तोड़ा-मरोड़ा, तो दूसरी तरफ भाजपा-संघ की सोशल मीडिया पर तैनात ट्रोल आर्मी ने उनके झूठे गुणगान किये। फिर, यह भी बतलाया गया कि ये सारे कार्यक्रम देशवासियों को कुछ अरसे बाद लाभ देंगे।
मोदी का पहला कार्यकाल अनेक उम्मीदों से भरकर आया था। आम जनता को अपनी सच्चाई से अवगत किए बिना मोदी ने अपनी गरीबी, बचपन की कथित दुश्वारियों, परिवार के भरण-पोषण के लिये अपनी मां की जद्दोजहद के किस्सों से देशवासियों को खूब प्रभावित किया। खैर, उन्होंने अपना ओबीसी कार्ड भी बड़ी चतुराई से खेला जिसके कारण लोगों की उन्हें इस नाम पर वाहवाही व समर्थन मिला कि वे पैसों की राजनीति के बीच खाली जेब लिये निचले समाज से आए थे। साफ-सुथरी राजनीति के पक्षधरों ने भी उनका स्वागत किया- यह मानकर कि वे जो कह रहे हैं, सच कह रहे हैं। बाद में मोदी की असलियतें खुलती गईं।
जब सच खुलने लगा तो अब इनसे लोग मनोरंजन कर रहे हैं। जो भी हो, अपने प्रारम्भिक दौर में उनके द्वारा लाये गये कार्यक्रमों से भी लोगों को लगा कि वे वाकई जमीनी स्तर पर परिवर्तन लाएंगे। जन-धन, उज्ज्वला, स्मार्ट सिटी, नमामि गंगे, स्टार्ट अप, मेक इन इंडिया जैसे कार्यक्रमों को लेकर मोदी ने देशवासियों के मनों में बड़ी आशाएं जगाईं। वैसे तो पहले के 5 साल पूरे होते न होते इन योजनाओं के फुस्स साबित होने का पता मोदी व भाजपा के करोड़ों लोगों को चल गया था। चूंकि उनके मन में यह बात बैठा दी गई है कि 60 वर्षों तक जवाहर लाल नेहरू तथा कांग्रेस ने इतनी गलतियां की हैं कि उन्हें ठीक करने के लिये मोदी-भाजपा को और वक्त मिलना चाहिये। इसी उत्साह में उन्हें दूसरी बार भी सफलता मिली।
मोदी ने दो अदूरदर्शितापूर्ण व सनक भरे निर्णय लेकर भारत की आर्थिक बुनियाद ही हिलाकर रख दी। नोटबन्दी और उसके कुछ समय बाद लागू जीएसटी से देश का भ_ा बैठ गया। वैसे तो पहले भी मोदी ने भावनात्मक मुद्दों को हवा दे रखी थी, जब देखा कि उनकी सारी योजनाएं एक के बाद एक नाकाम हो रही हैं, तो उन्होंने अपने दूसरे कालखंड में जन सरोकार के मुद्दे से खुद को पूरा खींच लिया और राम मंदिर, कश्मीर से अनुच्छेद 370 की समाप्ति, पुलवामा, हिन्दू-मुस्लिम, श्मशान-कब्रिस्तान, भारत-पाकिस्तान जैसे भावनात्मक मसलों की ओर राष्ट्रीय और प्रादेशिक विमर्शों को लेकर चले गये। यहां तक कि कोरोना की ढाई वर्षीय आपदा के दौरान भी मोदी ने सुनियोजित ढंग से लोगों का ध्यान बुनियादी मुद्दों की ओर जाने नहीं दिया और उन्हें हिंदू-मुस्लिम व मंदिर-मस्जिद में उलझाए रखा।
स्थिति यह है कि भाजपा की दूसरी कार्यावधि के साढ़े तीन साल गुजर गये और देश इन फिज़ूल के मामलों में ही फंसा पड़ा है। गरीबी व बेरोजगारी हटाने, 2022 के अंत तक हर बेघर के सिर पर छत देने जैसे सारे वादे अधूरे हैं। लोगों की बढ़ती नाराजगी के मद्देनजऱ पहले लोक लुभावन बजटीय प्रावधानों और आजादी के 75 साल पूरे होने को 'अमृत काल' घोषित कर मोदी ने लोगों को भरमाने की भरसक कोशिशें की हैं परन्तु उनकी पोल-पट्टी पहले बीबीसी की दो-अंकीय डाक्यूमेंट्री और बाद में हिंडनबर्ग की रिपोर्ट ने उनके क्रमश: कट्टर साम्प्रदायिक होने तथा गौतम अदानी को दुनिया का दूसरा सबसे अमीर कारोबारी बनाने में उनकी भूमिका को उजागर कर दिया है तो उनका बौखलाना स्वाभाविक है। राहुल गांधी की कन्याकुमारी से कश्मीर तक की बेहद सफल यात्रा के दौरान मोदी कार्यकाल की परतें खुलती चली गईं, लेकिन संसद में राहुल व कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने जो हल्ला बोला है उनसे देश और दुनिया में यह कलई पूरी तरह से खुल गई है।
सवाल यह है कि कम संख्या में ही सही पर कुछ लोग अब भी न केवल मोदी वरन विवाद के केन्द्र बने हुए अदानी को बचाने की कोशिशें क्यों कर रहे हैं? दरअसल यह वह वर्ग है जो साम्प्रदायिकता और जातिवाद में घोर यकीन रखता है। अब उसके पास कोई चारा नहीं रह गया है कि वह मोदी के कारण अदानी को समर्थन दे व उनका बचाव करे। दूसरे, उच्च वर्ग और उच्च मध्य वर्ग अभी भी अदानी के साथ इसलिये हैं क्योंकि वे खाये-पिये अघाये वर्ग हैं जो देश की तरक्की का पैमाना अब भी शेयर बाजार के आंकड़ों और कुछ लोगों की बढ़ती दौलत को ही मानते हैं।
उन्हें वित्त मंत्री के हाथ में बजट का ब्रीफकेस लुभाता है, न कि मासिक 5 किलो राशन वाले थैले व्यथित करते हैं। यह वर्ग ही समझता है कि र्ं'बीबीसी की फिल्म भारत को बदनाम करने की साजिश है' और वही अदानी के मुंह से यह भी कहलवाता है कि 'हिंडनबर्ग की रिपोर्ट भारत पर हमला है।' तीसरे वे लोग हैं जो ऐसे सपने देख रहे हैं, जो कभी पूरे होने से रहे। इनमें प्रमुख है कि यह देश सिर्फ बहुसंख्यकों का बने न कि कोई समावेशी समाज। हां, वे यह भी मानते हैं कि मोदी के नज़दीकी आर्थिक दृष्टि से जितने मजबूत होंगे, उनके सपने उतनी ही तेजी से पूरे होंगे। इसके लिये वे राष्ट्रीय बैंकों, एलआईसी, सरकारी उपक्रमों को भी अदानी-अंबानी को कौड़ी मोल दे देने में उज्र नहीं करते, जिनमें उन्हीं का पैसा लगा हुआ है।
(लेखक 'देशबन्धु' के राजनीतिक सम्पादक हैं)