देवीदास तुलजापुरकर
बैंक सीधे उधार देने के बजाय सह-उधार या अप्रत्यक्ष उधार का सहारा लेने के लिए प्रेरित होते हैं। उत्पादों और सेवाओं में नवाचार के नाम पर, एसबीआई ने ऋण का असाइनमेंट पोर्टफोलियो की बिक्री-खरीद आदि जैसे विभिन्न उपकरण पेश किए हैं ताकि बैंक ओवरहेड लागतों को बचाने के लिए प्रत्यक्ष उधार से बच सकें। यह सब लागत को कम करने में मदद करता है लेकिन अंतत: ग्राहक ही भुगतान करता है। सेवा शुल्क में भी बेतहाशा वृद्धि हुई है, साथ ही उन सेवाओं पर भी शुल्क लगाया गया है जो पारंपरिक रूप से मुफ़्त थीं।
रोजगार सृजन और मध्यम व छोटे उद्योगों (एमएसएमई) को रोजगारों का प्रमुख प्रदाता बनाने के उद्देश्य से केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के बजट भाषण में कहा गया कि 'पीएसयू बैंक बाहरी मूल्यांकन पर निर्भर रहने के बजाय एमएसएमई को ऋण देने के लिए अपनी क्षमता का निर्माण करेंगे।' यह स्पष्ट है कि बैंकों पर एमएसएमई को ऋ ण देने में वृद्धि करने का दबाव होगा; उन्हें नए ऋण मूल्यांकन मॉडल बनाने के लिए कहा गया है, जैसा कि वित्त मंत्री ने अपने बजट भाषण में उल्लेख किया है। इसके अलावा सरकार चाहती है कि बैंक बढ़ी हुई सीमा के साथ मुद्रा ऋ ण दें। हालांकि इस योजना ने खुद कई सवाल खड़े किए हैं और इसके परिणामों को संदिग्ध माना जाता है।
यह हमें उस लंबी कहानी की ओर ले जाता है कि सरकार को बैंकिंग प्रणाली, विशेष रूप से सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की किस प्रकार आवश्यकता है और वह उनका किस प्रकार उपयोग करती है, तथा उसने इन बैंकों के साथ क्या किया है।
बैंकों को मुनाफा कमाना चाहिए लेकिन मुनाफा ही बैंकिंग का एकमात्र उद्देश्य नहीं हो सकता। हमें सामाजिक लाभ को मापना भी सीखना होगा।
अभी भारत में सार्वजनिक क्षेत्र की बैंकिंग 'फील गुड' के दौर से गुजर रही है। 2024 में पीएसयू बैंकों ने 2019 में 0.82 लाख करोड़ रुपये के घाटे के मुकाबले 1.47 लाख करोड़ रुपये का शुद्ध लाभ दर्ज किया। प्रतिशत के लिहाज से सकल एनपीए 2019 में 12.03 प्रतिशत से घटकर 2024 तक 3.49 फीसदी हो गया है, जबकि शुद्ध एनपीए 4.95 प्रतिशत से घटकर 0.75 फीसद हो गया है। पिछले वर्ष की तुलना में 2020 में कारोबार में वृद्धि 5.46 प्रतिशत थी, जबकि 2024 में यह 2023 के मुकाबले 12.06 प्रश है। एकमात्र चिंता बाजार हिस्सेदारी है जो 2019 में 71.1 प्रतिशत थी और 2024 में घटकर 64.40 फीसदी हो गई है।
इसका मतलब है कि निजी क्षेत्र के बैंकों की बाजार हिस्सेदारी 28.90 फीसदी से बढ़कर 35.60 प्रतिशत हो गई है और इसके भीतर नई पीढ़ी के निजी क्षेत्र के बैंकों की बाजार हिस्सेदारी 2019 में 23.78 प्रतिशत से बढ़कर 2024 में 31.02 फीसद हो गई है। इस अवधि के दौरान सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की बाजार हिस्सेदारी 6.70 प्रतिशत कम हो गई है जो बैंक ऑफ बड़ौदा की बाजार हिस्सेदारी से अधिक है- 6.49 प्रतिशत। इस प्रकार स्पष्ट है कि किसी भी सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक का निजीकरण किए बिना बैंक ऑफ बड़ौदा के आकार के बराबर बैंकिंग व्यवसाय का निजीकरण हो गया है।
हम जो देख रहे हैं वह नियामक यानी भारतीय रिजर्व बैंक और मालिक यानी भारत सरकार द्वारा एक साथ नीतिगत नुस्खों की अभिव्यक्ति है। इस अवधि के दौरान सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में विलय के कारण एक बड़ा व्यवधान आया। 2019 में देना बैंक और विजया बैंक का बैंक ऑफ बड़ौदा में विलय कर दिया गया जबकि 2020 में एक बड़ा विलय हुआ जिसमें छह बैंक समाप्त विलीन हो गए। इस विलय के परिणामस्वरूप सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की शाखाओं की संख्या 2019 के 89,870 से घटकर 2024 में 87,009 हो गई।
यानी 2,861 शाखाएं कम हुईं जबकि निजी क्षेत्र के बैंकों के मामले में यह संख्या 2019 में 27,380 से बढ़कर 38,216 हो गईं। यानी 10,838 शाखाएं बढ़ीं। इस प्रकार सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की शाखाओं की हिस्सेदारी 2019 में 76.65 प्रतिशत से घटकर 2024 में 69.48 फीसदी हो गई है, जबकि निजी क्षेत्र के बैंकों की हिस्सेदारी 23.35 फीसद से बढ़कर 30.52 प्रतिशत हो गई है और इसके भीतर नई पीढ़ी के निजी क्षेत्र के बैंकों की हिस्सेदारी 16.95 फीसदी से बढ़कर 23.87 प्रतिशत हो गई है। यह एक कारण है कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों ने निजी क्षेत्र के बैंकों के मुकाबले बाजार हिस्सेदारी खो दी है।
2020 में भारतीय स्टेट बैंक को नई पीढ़ी के निजी क्षेत्र के यस बैंक को संकटग्रस्त बैंक में 11,760 करोड़ रुपए यानी 49 प्रतिशत हिस्सेदारी डालकर उसे बचाने के लिए कहा गया था। 2017-18 में, इसने 6,547 रुपए करोड़ का घाटा और 2018-19 में 862.23 करोड़ रुपए का मामूली लाभ दर्ज किया था। 2020 में यस बैंक में 11,760 करोड़ रुपए का निवेश करने के बावजूद, स्टेट बैंक ऑफ इंडिया 14,487 करोड़ रुपए का प्रभावशाली लाभ दर्ज करने में सक्षम था। सरकार ने, जो निजीकरण की वकालत कर रही थी और बाजार अर्थशास्त्र की भाषा बोल रही थी, स्वयं स्टेट बैंक को बीमार यस बैंक को बचाने के लिए मजबूर किया लेकिन स्टेट बैंक को 51 प्रतिशत हिस्सेदारी हासिल करने के लिए थोड़ा और निवेश करने की अनुमति नहीं दी। सरकार के विचार में यह कदम अनुत्पादक तथा आत्मघाती साबित होता क्योंकि सरकार तथाकथित सुधारों को आगे बढ़ाने के लिए प्रतिबद्ध है।
बैंक सीधे उधार देने के बजाय सह-उधार या अप्रत्यक्ष उधार का सहारा लेने के लिए प्रेरित होते हैं। उत्पादों और सेवाओं में नवाचार के नाम पर, एसबीआई ने ऋ ण का असाइनमेंट पोर्टफोलियो की बिक्री-खरीद आदि जैसे विभिन्न उपकरण पेश किए हैं ताकि बैंक ओवरहेड लागतों को बचाने के लिए प्रत्यक्ष उधार से बच सकें। यह सब लागत को कम करने में मदद करता है लेकिन अंतत: ग्राहक ही भुगतान करता है। सेवा शुल्क में भी बेतहाशा वृद्धि हुई है, साथ ही उन सेवाओं पर भी शुल्क लगाया गया है जो पारंपरिक रूप से मुफ़्त थीं।
यह भी ध्यान देने योग्य है कि इस अवधि में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में से केवल बैंक ऑफ महाराष्ट्र ने 2019 में 1.15 प्रश से 2024 में 1.32 फीसदी तक अपनी बाजार हिस्सेदारी देखी। यह बैंक घाटे से मुनाफे में आने वाले सभी सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में से पहला था और प्रदर्शन के लगभग सभी मापदंडों में शीर्ष स्थान पर है। इस प्रकार इस बैंक ने साबित कर दिया है कि आकार मायने नहीं रखता। यह सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में विलय करके बड़े बैंक बनाने की आत्मघाती नीति का प्रमाण है, मानों आकार ही समस्याओं का समाधान कर सकता है।
सरकार पीएसयू बैंकों की तुलना निजी क्षेत्र के बैंकों से करती है; लेकिन वह उम्मीद करती है कि पीएसयू बैंक अपनी सभी योजनाओं और नीतियों के कार्यान्वयन में सबसे आगे रहें और उन्हें दूरदराज के इलाकों तक पहुंचाएं। यह पीएसयू बैंकों को आर्थिक दृष्टि से घाटे में चलने के लिए मजबूर करता है लेकिन लाभ यह है कि पीएसयू बैंक सामाजिक दृष्टि से लाभ कमा रहे हैं। लेखा लाभ बनाम सामाजिक लाभ एक पुराना विरोधाभास है।
तत्कालीन आरबीआई गवर्नर रघुराम राजन के कहने पर एसेट क्वालिटी इंस्पेक्शन के परिणामस्वरूप सार्वजनिक बैंकों के व्यवसाय मॉडल में बड़ा बदलाव आया है। घाटे में चल रही इकाई से लाभ कमाने वाली इकाई में बदलने के लिए जमा या अग्रिम पर ब्याज दर में बदलाव करने की बहुत कम गुंजाइश थी। उन बैंकों के पास एकमात्र विकल्प प्रशासनिक लागत को कम करना था। इसके साथ सरकारी बैंकों ने बड़े पैमाने पर आउटसोर्सिंग और संविदा रोजगार का सहारा लिया। इन सबने कर्मचारियों की लागत को कम करने में मदद की है, लेकिन इसने सिस्टम को उजागर कर दिया है जिसके परिणामस्वरूप परिचालन धोखाधड़ी का बड़ा जोखिम है।
यह सब लागत को कम करने में मदद करता है, लेकिन अंतत: ग्राहक ही भुगतान करता है। सेवा शुल्क में भी बेतहाशा वृद्धि हुई है, साथ ही उन सेवाओं पर भी शुल्क लगाया गया है जो पारंपरिक रूप से मुफ़्त थीं। इस प्रकार अब कम निवल मूल्य वाले ग्राहक जिन्हें जन धन के कार्यान्वयन के साथ बैंकिंग के दायरे में लाया गया था, उन्हें सेवाओं के लिए लागत का भुगतान करना पड़ रहा है और परिणामस्वरूप अब वे इसे छोड़ रहे हैं। अब समय आ गया है कि सरकार भारत में बैंकिंग की भूमिका और जिम्मेदारी पर अपना रुख स्पष्ट करे, जो अभी भी गरीबी, बेरोजगारी और आर्थिक असमानता से जूझ रही एक विकासशील अर्थव्यवस्था है। बैंकों को लाभ दर्ज करना चाहिए लेकिन लाभ बैंकिंग का एकमात्र उद्देश्य नहीं हो सकता। हमें सामाजिक लाभ को मापना भी सीखना होगा।
(लेखक अखिल भारतीय बैंक कर्मचारी संघ के संयुक्त सचिव और बैंक ऑफ महाराष्ट्र के पूर्व निदेशक हैं। सिंडिकेट : द बिलियन प्रेस)