- अरुण कुमार डनायक
मूल प्रश्न यह है कि क्या हमें वर्तमान 543 सांसदों से अधिक सदस्यों वाली संसद की आवश्यकता है? क्या प्रत्येक राज्य में और अधिक विधायकों की जरूरत है? सांसदों की संख्या को परिसीमन के माध्यम से बढ़ाने के फायदे और नुकसान दोनों हो सकते हैं। ऐसे तर्क दिए जा रहे हैं कि परिसीमन लागू हो जाने के पश्चात जन प्रतिनिधित्व बेहतर होगा।
भारत में स्वतंत्रता के बाद कई पुराने-नए विवाद उभरे, कुछ को सरकारों ने बंद बस्ते में डाल दिया। अब एक नया जटिल मुद्दा है लोकसभा सीटों का परिसीमन, जिसे 1976 के 42वें और 2002 के 84वें संविधान संशोधन के जरिए 2026 तक टाला गया। यह विवाद अब फिर से सुर्खियों में है। वर्तमान में लोकसभा की 543 सीटें, 1971 की जनगणना के आधार पर तय हैं। संविधान के अनुसार, हर जनगणना के बाद सीटों का परिसीमन होना चाहिए। 1951 से 1971 तक ऐसा हुआ। आपातकाल के दौरान पारित हुए 42वां संशोधन ने 1971 की जनगणना के आधार पर आवंटित सीटों की संख्या को आगामी 25 वर्षों के लिए स्थिर कर दिया। 2002 के संशोधन ने यह मानते हुए कि देश के विभिन्न हिस्सों में परिवार नियोजन कार्यक्रमों की प्रगति के कारण किसी भी नई जनगणना पर आधारित परिसीमन करने निर्णय लिया जाना उचित नहीं होगा और यह अवधि और 25 वर्षों अर्थात 2026 तक के लिए बढ़ा दी।
इस परिप्रेक्ष्य में यह कहा जा सकता है कि 1971 से अब तक कोई नई जनगणना आधारित परिसीमन नहीं हुआ है। 2011 के बाद से कोई जनगणना नहीं हुई है, और अगर अब जनसंख्या के अनुपात में सीटों का पुनर्विन्यास किया गया, तो दक्षिणी राज्यों की सीटों में कटौती हो सकती है। दक्षिण भारत के राज्य इसी कारण से परिसीमन का विरोध कर रहे हैं। आकड़ों के अनुसार, उत्तर भारत के राज्यों की तुलना में विन्ध्य पर्वत के उस पार स्थित राज्यों की जनसंख्या में वृद्धि की दर कम रही है। संविधान, लोकसभा सदस्यों की संख्या निर्धारण में समान अनुपातिता की व्यवस्था देता है लेकिन लद्दाख, गोवा और पूर्वोत्तर जैसे छोटे राज्यों में जनसंख्या की तुलना में अधिक सांसद हैं, जबकि दिल्ली-मुंबई जैसे महानगरों में प्रतिनिधित्व कम है।
मूल प्रश्न यह है कि क्या हमें वर्तमान 543 सांसदों से अधिक सदस्यों वाली संसद की आवश्यकता है? क्या प्रत्येक राज्य में और अधिक विधायकों की जरूरत है? सांसदों की संख्या को परिसीमन के माध्यम से बढ़ाने के फायदे और नुकसान दोनों हो सकते हैं। ऐसे तर्क दिए जा रहे हैं कि परिसीमन लागू हो जाने के पश्चात जन प्रतिनिधित्व बेहतर होगा। एक सांसद अभी 20-25 लाख लोगों का प्रतिनिधित्व करता है। सीटें बढ़ने से यह अनुपात कम होगा, जिससे जनता की समस्याएं बेहतर उठेंगी। जनसंख्या के आधार पर सीटें बढ़ने से तेजी से बढ़ रही आबादी वाले राज्यों की आवाज मजबूत होगी। इससे असंतुलन कम होगा। अधिक सांसद मुद्दों पर गहन एवं विविधतापूर्ण चर्चा कर लोकतंत्र को और समृद्ध करेंगे।
यदि यह फ़ायदे हैं तो इसके नुकसान भी कम नहीं हैं। अधिक सांसदों का मतलब वेतन, भत्ते और सुविधाओं पर ज्यादा खर्च। अधिक सदस्यों के साथ संसद में बहस और निर्णय लेना जटिल हो सकता है, जिससे कार्यक्षमता प्रभावित होगी। जनसंख्या आधारित डिलिमिटेशन से उत्तर भारत के राज्यों को अधिक सीटें मिलेंगी,जबकि दक्षिणी राज्य अपने प्रभाव को कम होता देख सकते हैं। सीटें बढ़ने से राजनीतिक दलों को अधिक उम्मीदवार उतारने पड़ेंगे, जिससे चुनावी खर्च और प्रबंधन जटिल हो सकता है। साथ ही, छोटे दलों का प्रभाव कम हो सकता है।
परिसीमन लागू करने से पहले हमें भारत की जनसंख्या वृद्धि के भविष्य के परिदृश्य को भी ध्यान में रखना होगा। संयुक्त राष्ट्र के अनुमान के अनुसार, भारत की जनसंख्या 2040-50 तक 167 करोड़ के शिखर पर पहुंचेगी, फिर घटने लगेगी, क्योंकि सकल प्रजनन दर 2.1 से नीचे आ चुकी है। ऐसे में जनसंख्या आधारित परिसीमन की प्रासंगिकता कम हो रही है। इसलिए, यह आवश्यक है कि जनगणना की प्रक्रिया पूरी की जाये, लेकिन जनसंख्या के अनुपात के आधार पर सीटों के परिसीमन की प्रक्रिया को स्थगित रखा जाये।
पिछले अनुभव बताते हैं कि भारतीय संसदीय लोकतंत्र में विधायिका अनेक कमियों से जूझ रही है। संसद और विधानसभाओं के सत्रों की अवधि लगातार घट रही हैं, और इनमें हंगामा, नारेबाजी या बहिष्कार जैसे व्यवधानों के कारण प्रभावी चर्चा और विधायी कार्य कम हो पाता है। प्रतिनिधियों को जटिल नीतिगत मुद्दों की पर्याप्त समझ नहीं होती, इससे महत्वपूर्ण मुद्दों पर गुणवत्तापूर्ण गहन बहस नहीं हो पाती। कई निर्वाचित प्रतिनिधियों पर आपराधिक मामले लंबित रहते हैं, जो विधायिका की विश्वसनीयता और नैतिकता पर सवाल उठाते हैं।
दलीय अनुशासन से बंधे सांसद और विधायक स्वतंत्र रूप से मतदान करने में असमर्थ होते हैं। संसदीय समितियों का उपयोग विधेयकों की गहन जांच के लिए प्रभावी ढंग से नहीं हो पाता और उनके सुझावों को सरकार द्वारा नजरअंदाज कर दिया जाता है। विधायिका में महिलाओं और कुछ अल्पसंख्यक समुदायों का प्रतिनिधित्व उनकी जनसंख्या के अनुपात में कम है, जिससे उनकी आवाज कमजोर रहती है। कई बार विधेयकों को बिना पर्याप्त चर्चा या जनता की राय लिए जल्दबाजी में पारित कर दिया जाता है, जिससे अपर्याप्त या दोषपूर्ण कानून बनते हैं। विधायिका के भीतर मंत्री परिषद की जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए प्रभावी तंत्र की कमी है।
लोकसभा सीटों का परिसीमन भारत के लोकतांत्रिक ढांचे के लिए एक जटिल और संवेदनशील मुद्दा है, जिसमें जनप्रतिनिधित्व को बेहतर बनाने की संभावना के साथ-साथ क्षेत्रीय असंतुलन और संसाधनों पर अतिरिक्त बोझ जैसे जोखिम भी जुड़े हैं। अधिक सांसदों से स्थानीय मुद्दों पर ध्यान बढ़ सकता है, लेकिन संसद की कार्यक्षमता, क्षेत्रीय तनाव और वित्तीय लागत जैसे नुकसान इसे विवादास्पद बनाते हैं। वर्तमान संसदीय व्यवस्था में व्याप्त कमियों- जैसे सत्रों की कमी, हंगामा, अपर्याप्त बहस और जवाबदेही के अभाव को देखते हुए केवल सीटों की संख्या बढ़ाना समाधान नहीं है। भारत की विविधता और सीमित संसाधनों को ध्यान में रखते हुए, परिसीमन से पहले व्यापक सहमति, पारदर्शी जनगणना, और संसदीय सुधारों पर जोर देना ज़रूरी है। इसके बजाय, संसाधनों का उपयोग शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार सृजन, और पर्यावरण संरक्षण जैसे क्षेत्रों में करना अधिक लाभकारी होगा। आज भारत को केवल एक विशाल संसद की नहीं, अपितु सशक्त और समावेशी लोकतंत्र की आवश्यकता है। हमें गांधीजी के लोकतांत्रिक आदर्शों को हृदयंगम करना होगा, ताकि समाज के अंतिम पायदान पर खड़े व्यक्ति की पीड़ा को मिटाया जा सके। सुसंस्कृत प्रतिनिधित्व और दूरदर्शी नीतिगत हस्तक्षेप के माध्यम से राष्ट्र की सर्वांगीण उन्नति को सुनिश्चित किया जा सकता है।
(लेखक गांधी विचारों के अध्येता एवं समाजसेवी हैं )