- पंकज कुमार
आधुनिक जटिल राजनीतिक व्यवस्था व्यापक दस्तावेज़ीकरण और जनसंख्या के वर्गीकरण के बिना कार्य नहीं कर सकती है। आज़ादी के बाद से ही जाति की गिनती को मनमाने तरीके से नजऱअंदाज़ किया गया है। लेकिन सवाल यह उठता है कि क्यों जनगणना का हमारा फैसला सिद्धांतों पर आधारित नहीं है? यदि जातिगत गणना सामाजिक अशांति को जन्म दे सकती है।
भारत सरकार के इंकार करने के बाद बिहार सरकार द्वारा जातिगत जनगणना कराने का निर्णय वास्तव में बिहार एवं देश की राजनीति के लिहाज़ से एक बड़ा कदम है। यह कदम न सिर्फ राजनीति को एक नई दिशा दे सकता है बल्कि जाति की हमारी समझ को भी पुनर्भाषित कर सकता है।
मुख्यधारा के मीडिया और राय बनाने वाला वर्ग जाति आधारित जनगणना की तर्कसंगतता पर न सिर्फ सवाल उठा रहे हैं बल्कि उसको अमान्य करने की कोशिश भी कर रहे हैं। बहरहाल,जातिगत गणना के विरोधियों के पास कोई नया तर्क नहींं है। वे उसी मनोविकार को दोहरा रहे हैं कि यह जातिवाद को जन्म देगा, समाज को विभाजित करेगा, और मौजूदा जाति-आधारित कोटा को बढ़ाएगा। यह किसी से छिपा नहीं है कि इन तर्कों का उपयोग जाति के आसपास केंद्रित हर प्रगतिशील उपाय के खिलाफ किया जाता रहा है।
यह सोचना ही बेतुका है कि जातियों की गिनती किए बिना जाति को मिटाया जा सकता है और सामाजिक सद्भाव को हासिल किया जा सकता है। वास्तव में, हमें इस तथ्य को समझना चाहिए कि जाति अपनी प्रकृति से ही असामाजिक है (जैसा अम्बेडकर ने कहा है), और इसकी आधारभूत संरचना को मिटाए बिना सामाजिक समरसता प्राप्त नहीं की जा सकती है। हम कब तक इस सुहावनी सोच के साथ जीना चाहते हैं कि अगर हम जातियों को नहीं गिनेंगे या सार्वजनिक रूप से इस पर चर्चा नहीं करेंगे तो यह गायब हो जाएगी।
यह सर्वविदित है कि आधुनिक जटिल राजनीतिक व्यवस्था व्यापक दस्तावेज़ीकरण और जनसंख्या के वर्गीकरण के बिना कार्य नहीं कर सकती है। आज़ादी के बाद से ही जाति की गिनती को मनमाने तरीके से नजऱअंदाज़ किया गया है। लेकिन सवाल यह उठता है कि क्यों जनगणना का हमारा फैसला सिद्धांतों पर आधारित नहीं है? यदि जातिगत गणना सामाजिक अशांति को जन्म दे सकती है- जैसा इसके विरोधियों द्वारा व्यापक रूप से तर्क दिया जाता है- तो धर्म भी यही काम करता है। फिर, हम धर्म की गिनती क्यों कर रहे हैं? भारतीय समाज का कोई भी पर्यवेक्षक यह बता सकता है कि भारत में जाति और धर्म दो ऐसी केंद्रीय धुरियां हैं जो कि देश में सामाजिक असमानता को निर्धारित करती है।
सवाल यह है कि हम जातिगत जनगणना के खिलाफ विरोध को कैसे समझे एवं यह हमारे समाज और देश की प्रकृति के बारे में क्या दर्शाता है? मेरे हिसाब से यह निम्नलिखित पांच चीजों को दर्शाता है।
सबसे पहले, यह जीवन के सभी क्षेत्रों में सवर्णों के भारी प्रभुत्व को छिपाने का प्रयास है, जैसा कि प्रोफेसर सतीश देशपांडे ने जोरदार तर्क देकर साबित किया है। इसका तात्पर्य यह है कि जाति-आधारित गणना का विरोध इसलिए किया जाता है क्योंकि इससे उच्च जातियों के विशेषाधिकारों का पर्दाफाश होने का खतरा है।
दूसरा, इस विरोध स ेयह भी पता लगता है कि कुलीन वर्ग खुद को जांच एवं अध्ययन का विषय नहीं बनाना चाहता। यही कारण है जिसकी वजह से भारत में ऊंची जातियों पर अध्ययन निचली जातियों और दलितों की तुलना में बहुत कम हुआ है। उदाहरण के लिए, क्यों भारत की ऊंची जातियां बीजेपी को वोट कर रही है, इस विषय पर नाममात्र का अध्ययन हुआ है।
तीसरा, यह लीला फर्नांडिस की उस अवलोकन को वैधता प्रदान करता है कि इस देश में उच्च-जाति के प्रभुत्व वाला मध्यमवर्ग, पश्चिम देशों के मध्यम वर्ग के विपरीत, सामाजिक रूप से अनुदार और रूढ़िवादी हैं, क्योंकि वे नहीं चाहते कि निचले समूहों के लोग मध्यमवर्ग का हिस्सा बन पाए। यदि ऐसा नहीं है, तो आरक्षण का विरोध करने वाले निजीकरण का विरोध क्यों नहीं करते?
चौथा, जनगणना में जातियों की गणना का विरोध यह प्रदर्शित करता है कि हम सामूहिक रूप से जाति-आधारित उत्पीड़़न की गंभीरता को स्वीकार करने में विफल रहे हैं और इस देश के अधिकांश लोगों द्वारा झेले जा रहे अपमान और क्रूरता के प्रति उदासीन हैं। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि भारत में तर्क अभी भी जाति के आसपास ही घूमता है। इसका उत्कृष्ट उदाहरण भारत में आरक्षण की नीति के प्रति दुर्भावना है।
पांचवां, जाति के आधार पर गहराई से विभाजित समाज में, हममें से अधिकांश हमारे दैनिक जीवन में जाति विशिष्ट-संस्कारों को भी अपनाते हैं; चाहे वह हमारी जाति की सीमाओं के भीतर शादी करना हो; अंतिम संस्कार की दावतों के लिए अपनी जाति के सदस्यों को आमंत्रित करना हो; ब्राह्मण पुजारियों द्वारा अनुष्ठान करना हो। यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है कि हम शायद ही अपने विशेषाधिकारों को स्वीकार करते हैं, पूर्वाग्रहों पर सवाल उठाते हैं, और उत्पीड़ित समुदायों की दुर्दशा के बारे में सोचते हैं। नतीजतन, विश्वसनीय साक्ष्यों के बावजूद कि आज के आधुनिक भारत में भी जाति सबसे महत्वपूर्ण सामाजिक श्रेणी है जो किसी व्यक्ति के भविष्य को निर्धारित करता है, जाति आधारित जनगणना का पुरजोर विरोध किया जाता रहा है।
आज जातिगत जनगणना के विपक्ष में चल रहे दो तरह कुतर्को को पूरी तरह से ध्वस्त करने की जरूरत है। सबसे पहले, यह सोचना गलत है कि निचली जातियां इसका इस्तेमाल केवल जाति आधारित कोटा बढ़ाने के लिए करेंगी। और दूसरी बात यह है कि जनगणना का मकसद सिर्फ अन्य पिछड़ी जातियों (ओबीसी) की गणना नहीं है बल्कि सवर्णों की भी है। संक्षेप में, जाति गणना को केवल आरक्षण बढ़ाने के प्रयास भर तक ही सीमित नहीं किया जाना चाहिए। हालांकि इसमें कोई दो राय नहीं है कि गणना आरक्षण को सही तरीके से लागू करने एवं उसकी जरूरत को परिलक्षित करने में महत्वपूर्ण साबित हो सकती है। मेरे विचार से कम से कम ऐसे तीन कारण हैं जो जातिगत गणना को वांछनीय बनाती है-
पहला, जाति आधारित जनगणना की मांग को राष्ट्र निर्माण के एक आवश्यक कदम के रूप में देखा जाना चाहिए। यह हमें उन सामाजिक दुखों का आकलन करने का एक ऐतिहासिक अवसर प्रदान करता है जिनका सामना बड़ी संख्या में सामाजिक समूह करते हैं।
दूसरा, जाति सशक्तिकरण इसके अंतिम विनाश की ओर एक कदम है। हमें सोचना चाहिए: क्या जाति की उपस्थिति और प्रभाव को स्वीकार किए बिना एवं उसे कायम रखने वाली आधारभूत संरचनाओं को खत्म किए बिना, जाति को खत्म किया जा सकता है?
तीसरा, यह आशंका बढ़ रही है कि विभिन्न समूहों के बीच असमानता को दूर करने की प्रक्रिया ने पिछड़ी समुदायों के अंदर ही ऐसे वर्ग तैयार कर दिए हैं जो बाकी पिछड़े समूहों से काफी आगे निकल चुके हैं. बिहार में पिछड़ी जातियों के आरक्षण का पिछड़ा वर्ग एवं अत्यंत पिछड़ा वर्ग में वर्गीकरण इसी के मद्देन•ार किया गया है। लेकिन बिना जातिगत गणना के हम कैसे पता लगायेंगे कि पिछड़े वर्ग के किन जातियों ने कितना फायदा उठाया है? इसलिए, जाति गणना हमें यह पहचानने में सक्षम करेगी कि अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) और उच्च जातियों में कौन-कौन सी अलग-अलग श्रेणियां हैं।
निष्कर्ष रूप में कह सकते हैं कि जातिगत जनगणना को केवल मजबूत और लक्षित नीतियों को बनाने और आरक्षण को पुनर्जीवित करने के लिए एक साधन के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। यह सामाजिक सद्भाव, राष्ट्रीय एकता और अंतर-समूह समानता सुनिश्चित करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। जातियों की गिनती करने में कोई बुराई नहीं है, और अगर भारत सरकार में न्याय और निष्पक्षता की जरा सी भावना बची है तो इसको अपने फैसले पर पुनर्विचार करना चाहिए।(लेखक विजिटिंग फैकल्टी, नेशनल लॉ स्कूल ऑफ़ इंडिया यूनिवर्सिटी, बेंगलुरु एंड पीएचडी स्कॉलर, राजनीतिक अध्ययन केंद्र, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली)