— सर्वमित्रा सुरजनजीवन में सुख के साथ दुख का सामना हर किसी को करना ही पड़ता है। फर्क तो इस बात से पड़ता है कि आप किस तरह के फैसले लेकर अपने जीवन को दिशा देते हैं। यही बात देश पर भी लागू होती है। अब देश में जीडीपी घटे, बेरोजगारी बढ़े, अपराध बढ़े, लोगों की खुशहाली का स्तर घटे और सम्मान से जीने के उनके अधिकार का हनन हो, तो इस का वास्ता इससे नहीं है कि वे किस नाम के शहर में रहते हैं।
होली में अभी एक हफ्ता है, लेकिन होली के रंग हुरियारों पर पूरी तरह चढ़ गए हैं। अमृतकाल की होली है, 20 रंगों के समूह का रंगीन नशा है, सत्ता की खुमारी तो पहले से ही चढ़ी हुई है। इस खुमारी ने कई पुरानी चीजों को बदल दिया। हिंदुस्तान को न्यू इंडिया बना दिया। न्यू इंडिया में शहरों, स्टेशनों, विमानतलों समेत कई चीजों के नाम बदल गए। लेकिन इतने से मन नहीं भरा। वो सत्ता ही क्या, जिसमें मन भर जाए। जैसे मनचाहा पकवान मिल जाए, तो लिप्सा में इंसान पेट भरने के बावजूद मन भरने तक खाता ही रहता है, वैसा ही हाल अब राजनीति में दिखाई दे रहा है। इलाहाबाद प्रयागराज हो गया, मुगल गार्डन अमृत उद्यान बन गया। इसके बाद वकील अश्विनी उपाध्याय ने प्राचीन, सांस्कृतिक और धार्मिक स्थानों के 'मूल' नामों को फिर से रखने के लिए 'पुनर्नामकरण आयोगÓ के गठन की मांग करने वाली जनहित याचिका सुप्रीम कोर्ट में दायर की थी। अब कानूनी भाषा में इसे जनहित याचिका ही कहा जा रहा है। लेकिन जगहों के नाम बदलने से जनता का कौन सा हित अब तक हुआ है, ये किसी विधि से साबित नहीं हो सका है। इलाहाबाद के पहले जो हाल थे, वही प्रयागराज के हैं। मुगल गार्डन में उगने वाले फूल अमृत उद्यान में भी वैसी ही शोभा दे रहे हैं, उतनी ही खुशबू फैला रहे हैं। उन्हें इस बात से फर्क नहीं पड़ रहा कि वे किसके राज में, किसकी बगिया में खिल रहे हैं। जिसकी जो प्रवृत्ति है, वो उसी के अनुरूप काम करेगा। जो बात शेक्सपियर ने पांच सौ साल पहले समझा दी थी, वो अब तक हम समझ ही नहीं पाए हैं। या समझ कर भी इसलिए नहीं मान रहे कि कहीं औपनिवेशिक गुलामी का ठप्पा न लग जाए। आखिर यही तो राष्ट्रवाद की नयी परिभाषा है, जिसमें जो जितनी संकीर्णता दिखा पाएगा, वो उतना बड़ा राष्ट्रवादी कहलाएगा।
खैर बात हो रही थी जनहित याचिका की। अगर कोई बड़ा वकील अपनी काबिलियत और प्रभाव का इस्तेमाल कर महंगाई कम करने की, सरकारी अस्पतालों और स्कूलों की हालत सुधारने, सार्वजनिक यातायात सस्ता और सुलभ बनाने, नालियों, सड़कों, गलियों को दुरुस्त करने, साफ पानी और बिजली हर किसी तक पहुंचाने की याचिका दायर करे, तो ये जनहित का काम होगा। लेकिन इन सब की जगह सारा जोर नामकरण पर है। याचिकाकर्ता का कहना था कि विदेशी आक्रांताओं ने देश पर हमला कर कई जगहों के नाम बदल दिए और उन्हें अपना नाम दे दिया। याचिका में कहा गया कि आज़ादी के इतने साल बाद भी सरकार उन जगहों के प्राचीन नाम फिर से रखने को लेकर गंभीर नहीं है। धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व की हज़ारों जगहों के नाम मिटा दिए गए। शक्तिपीठ के लिए प्रसिद्ध किरिटेश्वरी का नाम बदल कर मुर्शिदाबाद, प्राचीन कर्णावती का नाम अहमदाबाद, हरिपुर को हाजीपुर, रामगढ़ को अलीगढ़ कर दिया गया। अश्विनी उपाध्याय ने इन सभी जगहों के प्राचीन नाम की बहाली को हिंदुओं के धार्मिक, सांस्कृतिक अधिकारों के अलावा सम्मान से जीने के मौलिक अधिकार के तहत भी ज़रूरी बताया था।
याचिकाकर्ता का यह तर्क गले से उतारना जरा कठिन पड़ा कि आजादी के बाद सरकारें प्राचीन नामों को रखने के लिए गंभीर नहीं थी। सरकारें किस बात के लिए गंभीर थी, इसके लिए जरा इतिहास के पन्नों को पलटना होगा। अंग्रेजों ने देश को जिस हालात में आजाद किया, तब देश के सामने कई चुनौतियां थीं। कई रियासतों को मिलाकर संघीय सरकार की स्थापना करनी थी, संविधान बनाना था। देश को अपने पैरों पर खड़ा करना था। जातीय और सांप्रदायिक हिंसा के जख्मों पर मलहम लगाना था। भविष्य के इंतजाम के लिए शिक्षा, उद्योग, व्यापार, बैंकों की व्यवस्था को दुरुस्त करना था। स्वास्थ्य, विज्ञान, कृषि, अनुसंधान इन तमाम क्षेत्रों की बुनियादें मजबूत करनी थी। 1947 से लेकर 2014 तक इसी दिशा में काम होते रहे। नाम बदलने को लेकर सरकारें भले गंभीर नहीं थी, लेकिन आम आदमी का जीवन स्तर ऊंचा उठाने को लेकर कई गंभीर काम किए गए। फिर 2014 के बाद से अब तक नाम बदलने को लेकर कई गंभीर प्रयास हुए, लेकिन फिर भी हिंदुत्व के आत्मगौरव का अमृतपान नहीं हो पा रहा है। अमृतकाल में भी ग्रहों की स्थिति अनुकूल नहीं दिखाई पड़ रही है, कहीं मित्र की संपत्ति पर विदेशी आक्रांता का साया पड़ रहा है, कहीं विकास को नजर लगने से जीडीपी घट रही है। सिलेंडर महंगा कर, इलाज और किताबें महंगी कर मित्र को होने वाले नुकसान की थोड़ी बहुत भरपाई हो जाएगी। लेकिन जितना बड़ा गड्ढा बन गया है, उसे पाटने के लिए फिर से नया आपदा राहत कोष बनाना पड़ेगा। लेकिन कोष में दान की राशि आएगी कहां से, क्योंकि अर्थव्यवस्था की हालत आमदनी अठन्नी, खर्चा रुपय्या वाली है। इसलिए नामकरण संस्कार का सहारा लेने की कोशिश की गई।
वैसे भी हिंदू धर्म के सोलह संस्कारों में नामकरण संस्कार इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि नाम की बदौलत ही इंसान की पहचान दुनिया में बनती है, काम तो लोग बाद में पहचानते हैं। कई बार मां-बाप अपने बच्चों को बुरी नजर से बचाने के लिए अजीबोगरीब नाम भी रख देते हैं। लेकिन ये तो अंधविश्वास की बात है कि नाम खराब रखने से भूत-प्रेत का साया बच्चे पर नहीं पड़ेगा और उसका जीवन खुशहाल रहेगा। जीवन में सुख के साथ दुख का सामना हर किसी को करना ही पड़ता है। फर्क तो इस बात से पड़ता है कि आप किस तरह के फैसले लेकर अपने जीवन को दिशा देते हैं। यही बात देश पर भी लागू होती है। अब देश में जीडीपी घटे, बेरोजगारी बढ़े, अपराध बढ़े, लोगों की खुशहाली का स्तर घटे और सम्मान से जीने के उनके अधिकार का हनन हो, तो इस का वास्ता इससे नहीं है कि वे किस नाम के शहर में रहते हैं। इसका वास्ता इस बात से है कि सरकारी और प्रशासनिक व्यवस्था किस तरह की है। आजादी की 75वीं जयंती कहें या अमृतकाल कहें, लोग आजादी का स्वाद तभी चख पाएंगे, जब हर तरह की बुराई को देश से दूर करने को कोशिश होगी।
खुशी की बात है कि इस नामकरण वाली जनहित याचिका को शीर्ष अदालत ने यह कहते हुए खारिज कर दिया कि भारत अतीत का गुलाम नहीं रह सकता। आक्रांताओं के इतिहास को लगातार खोदकर वर्तमान और भविष्य के सामने नहीं रख सकते, जिससे देश में लगातार तनाव बना रहे। अदालत ने कहा कि हमारा देश धर्मनिरपेक्ष है और हिंदू धर्म जीवन का एक तरीका है, जिसने सभी को आत्मसात कर लिया है और इसमें कोई कट्टरता नहीं है। जस्टिस केएम जोसेफ और जस्टिस बीवी नागरत्ना ने वकील अश्विनी उपाध्याय की याचिका के मकसद पर सवाल उठाते हुए कहा कि यह उन मुद्दों को जीवंत कर देगा, जो देश में तनाव का माहौल पैदा कर सकते हैं।नफरत ने देश को पहले ही काफी बदरंग कर दिया है। देश को प्यार के रंगों से ही खूबसूरत बनाया जा सकता है। अच्छा है कि होली के पहले धर्मनिरपेक्षता और उदारता का संदेश समाज तक फिर से पहुंचा दिया गया।