— सर्वमित्रा सुरजनअखबार में खबरों के साथ की गई इस छेड़खानी और विज्ञापन के साथ किए गए इस घालमेल को बहुत से लोग सफल और अनूठा प्रयोग बता रहे हैं। इस अंग्रेजी अखबार में छपे विज्ञापन की टैग लाइन हिंदी में है, लेकिन उसकी लिपि रोमन है। यानी खबर ही नहीं, भाषा के साथ भी छेड़खानी जारी है। और हिंदी के साथ ऐसा दुर्व्यवहार इतना आम हो गया है, अब हिंदी पट्टी के लोगों ने भी इसका बुरा मानना छोड़ दिया है। उनके लिए यही गर्व की बात है कि देश के गृहमंत्री हिंदी को राष्ट्रव्यापी तौर पर लागू करने की वकालत करते हैं।
140 करोड़ की आबादी वाले हमारे देश में प्रधानमंत्री के यूट्यूब चैनल को 2 करोड़ सब्सक्राइबर्स मिल जाना एक उपलब्धि की तरह पेश किया जा रहा है। इस खबर को प्रसारित करने वाले बता रहे हैं कि आज तक दुनिया के किसी नेता के चैनल को इतने सब्सक्राइबर्स नहीं मिले। कोई ये सवाल नहीं कर रहा कि देश ने लोकतांत्रिक प्रणाली से प्रधानमंत्री को किसलिए चुना था, देश और जनता के हितों के काम करने के लिए या यूट्यूब चलाने के लिए। 2 करोड़ लोग अगर प्रधानमंत्री के चैनल से जुड़े भी हैं, तो इसमें लोगों का क्या भला हो रहा है। क्या 2 करोड़ सब्सक्राइबर्स होने के बाद प्रधानमंत्री के चेहरे के साथ प्रसारित होने वाले बडे-बड़े विज्ञापनों पर हजारों करोड़ खर्च होना बंद हो जाएंगे। क्या इसके बाद प्रधानमंत्री के कटआउट के साथ बनाए जाने वाले सेल्फी प्वाइंट और नहीं बनेंगे। पता चला है कि एक सेल्फी प्वाइंट बनाने में लगभग 6 लाख का खर्च आया है, देश भर में ऐसे सैकड़ों सेल्फी प्वाइंट बनाए गए हैं, यानी करोड़ों रूपए केवल सेल्फी खींचने में खर्च कर दिए गए और उसके बाद सरकार रोना रोती है कि खजाना खाली है। देश पर करोड़ों रूपयों का कर्ज चढ़ा हुआ है, मगर जनता को तरक्की और खुशहाली का आभास कराने के लिए बताया जा रहा है कि आपके प्रधानमंत्री के चैनल को कितने करोड़ लोगों ने सब्सक्राइब कर लिया है। गुजरे जमाने के नेताओं में भी आत्ममुग्धता, अहंकार, अदूरदर्शिता हुआ करती थी, गलतियां पहले के नेताओं ने भी बहुत कीं। कई बार सत्ता पर बैठे लोगों के फैसलों से लोगों को तकलीफ हुई। लेकिन तब जनता जागरुक हुआ करती थी, संवैधानिक संस्थाओं में जिम्मेदारी का बोध कायम था और संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों की रीढ़ की हड्डी साफ नजर आती थी। अब इन सब को तलाशने के लिए जद्दोजहद करनी पड़ती है।
ये जद्दोजहद वैसी ही है, जैसे महत्वपूर्ण खबरों के साथ उल्टी प्रकाशित कर दी गई तस्वीरों को देखना। अगर कहूं कि ये अमृतकाल में मीडिया का आपातकाल है, तो बहुत थकी और उबाऊ बात लगेगी। क्योंकि 10 सालों से हम यही देख रहे हैं कि मीडिया किस तरह सत्ता का गुलाम बन गया है। इस बात को कितने भी रोचक या अलग तरीके से कह लें, लेकिन सार यही रहेगा कि आज के मीडिया को देखकर घोर निराशा होती है। जनता तक सही सूचना, जानकारी और विचार पहुंचाने के अपने दायित्व को मीडिया ने सत्ता के पास गिरवी रख दिया है। पहले केवल पूंजी का दुष्प्रभाव मीडिया पर दिखता था, अब सत्ता का साथ भी उसमें है। यानी करेला वो भी नीम चढ़ा। जरूरी खबरों के साथ उल्टी तस्वीरों का प्रकाशन इस जहरीली कड़वाहट का एक नमूना है। दरअसल 4 दिन पहले देश के अग्रणी अंग्रेजी दैनिक ने अपनी खबरों के साथ सारी तस्वीरों को उल्टा लगाया। अगले पृष्ठ पर एक टूथपेस्ट का विज्ञापन था, जिसमें टैग लाइन दी गई, नींद में हो गया न उल्टा-पुल्टा। नींद भगाओ, ताजगी जगाओ।
अखबार में खबरों के साथ की गई इस छेड़खानी और विज्ञापन के साथ किए गए इस घालमेल को बहुत से लोग सफल और अनूठा प्रयोग बता रहे हैं। इस अंग्रेजी अखबार में छपे विज्ञापन की टैग लाइन हिंदी में है, लेकिन उसकी लिपि रोमन है। यानी खबर ही नहीं, भाषा के साथ भी छेड़खानी जारी है। और हिंदी के साथ ऐसा दुर्व्यवहार इतना आम हो गया है, अब हिंदी पट्टी के लोगों ने भी इसका बुरा मानना छोड़ दिया है। उनके लिए यही गर्व की बात है कि देश के गृहमंत्री हिंदी को राष्ट्रव्यापी तौर पर लागू करने की वकालत करते हैं। उन्हें ये भी अच्छा लगता है कि गरीबों के बच्चे सरकारी स्कूलों में हिंदी माध्यम से पढ़ाई करते हैं, लेकिन उनके आराध्य नेताओं के बच्चे विदेशों में जाकर पढ़ते हैं, और वहीं बसते हैं। इसलिए हिंदी पट्टी के राज्यों में भाजपा की फिर से जीत हुई है। जिन लोगों को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि अखबार में संपादक के पद की जगह मार्केटिंग प्रमुख को नियुक्त किया जाए और अखबार को समाचारों के लिए नहीं बल्कि विज्ञापनों के लिए जरूरी माना जाए, उनसे कोई उम्मीद भी नहीं रखना चाहिए कि उन्हें एक टूथपेस्ट के विज्ञापन के लिए खबरों से की गई अभद्रता पर कोई तकलीफ होगी। ऐसे ही लोगों को इस बात पर भी रोमांच हुआ होगा कि हमारे प्रधानमंत्री दुनिया के सबसे बड़े यूट्यूबर नेता बन गए हैं।
जब 22 जनवरी को माननीय प्रधानमंत्री के हाथों से रामलला को घर दिलाया जाएगा, तब उनके चैनल को सब्सक्राइब करने वालों की संख्या में और इजाफा हो सकता है। वैसे यह जिज्ञासा बनी हुई है कि राम भक्तों में भी क्या अब वर्गीकरण हो चुका है। राम को मानने और पूजने वाले केवल भाजपा में नहीं हैं, कई और दलों में भी हैं। और ऐसे भी बहुत से लोग हैं, जिनका किसी दल से कोई वास्ता नहीं, लेकिन वो राम को अपना आराध्य मानते हैं। और ऐसे लोगों को ये देखकर अच्छा नहीं लगा कि राम मंदिर का उद्घाटन ही प्रधानमंत्री के हाथों नहीं हो रहा, बल्कि भगवान राम को भी भाजपा के लाभार्थी की तरह पेश किया जा रहा है। सोशल मीडिया पर ऐसी पोस्ट देखने मिली, जिसमें श्री मोदी राम लला की उंगली पकड़कर उन्हें मंदिर की ओर ले जा रहे हैं।
एक अन्य पोस्ट में भगवान राम श्री मोदी से कह रहे हैं कि बेटा नरेन्द्र तुमने 2022 तक सभी को घर देने का वादा किया था, लेकिन मैं नहीं जानता था कि तुम मुझे भी घर दिलवाओगे। इन पोस्ट्स को श्री मोदी या भाजपा के अन्य रामभक्तों ने देखा या नहीं, हम नहीं जानते। लेकिन ये तय है कि ऐसी रचनाएं किसी घोर अंधभक्त ने की है। जिसकी भक्ति राम से अधिक मोदी पर है। ये कोई जरूरी नहीं है कि सारे लोग भगवान के ही भक्त हों, नेताओं के भक्त भी होते हैं। लेकिन क्या अपनी वफादारी और श्रद्धा दिखाने के लिए किसी नेता को भगवान से ऊंचा दर्जा दिया जाना बाकी श्रद्धालुओं को सही लग रहा है, ये जानने की उत्सुकता है। क्या कभी कोई मीडिया इस बात का सर्वे भी कराएगा कि आज की तारीख में किसके भक्त अधिक हैं, श्री राम के या श्री मोदी के।
क्या ये धर्म का भी आपातकाल है, क्योंकि धर्म में राजनीति का जरूरत से अधिक घालमेल हो चुका है। धर्मांधता की राजनीति का एक घातक असर इजरायल-फिलिस्तीन युद्ध में देखने मिल रहा है। जिसके कारण शायद पहली बार ईसा मसीह के जन्म स्थान बेथलेहम में क्रिसमस के दिन सन्नाटा पसरा रहा। हम जन्माष्टमी पर मथुरा में रौनक न रहने की कल्पना भी नहीं कर सकते। बेथलेहम के लोगों ने भी ऐसे दिन का तसव्वुर नहीं किया होगा, लेकिन सत्ता और स्वार्थ की राजनीति ने ये संभव कर दिखाया। हमारे पास अब भी वक्त है कि हम जाग जाएं। टूथपेस्ट के विज्ञापन में बात तो सही ही लिखी है कि नींद में सब कुछ उल्टा-पुल्टा हो गया। हमें भी अब धर्मांधता की नींद से जाग जाना चाहिए, क्योंकि सब कुछ उल्टा-पुल्टा हो ही रहा है।