- जगदीश रत्तनानी
हमें यह जानने के लिए उस सर्वेक्षण की आवश्यकता नहीं है कि भारत की अर्थव्यवस्था अच्छा नहीं कर रही है। विश्व असमानता लैब के अनुसार भारत में ब्रिटिश राज के दौरान पाई गई असमानता से अधिक असमानता के साथ-साथ अच्छी नौकरियां प्रदान करने में पूर्ण विफलता के साथ-साथ शीर्ष पर व्याप्त भ्रष्टाचार अब नियामक प्रणालियों में व्याप्त हो गया है। जैसा कि सेबी के प्रमुख को उलझाने वाले मामले में देखा गया है। यह हमें बताता है कि क्या गलत हो रहा है। पिछले दशक की नीतियां विफल रही हैं और थोड़े समय और टुकड़ों में किए गए नीतिगत उलटफेर इस गड़बड़ी को ठीक नहीं करेंगे।
केन्द्र की अल्पमत भाजपा सरकार ने पिछले पखवाड़े में अपने दो नीतिगत प्रस्तावों- लेटरल हायरिंग और पेंशन के फैसले बदले हैं, जिनका वह लंबे समय से जबरदस्त तरीके से बचाव कर रही थी। इन फैसलों के बदलने को नए संसदीय अंकगणित के मद्देनजर नए सिरे से एकजुट विपक्ष के दबाव के रूप में देखा गया है; या हरियाणा और जम्मू-कश्मीर में विधानसभा चुनावों को देखते हुए चुनावी मजबूरियों के बरक्स रणनीतिक वापसी के रूप में चित्रित किया गया है। इसके बाद महाराष्ट्र और झारखंड में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं।
ऊपरी तौर पर देखें तो यह सच मालूम होता है लेकिन गंभीरता से विचार करने पर यह भाजपा की उन मजबूरियों को दर्शाता है जिसने इन नीतियों को बिना सोचे-समझे या आधे-अधूरे मन से आगे बढ़ाया था। ये वे ही नीतियां हैं जो भाजपा के निरंतर और यहां तक कि तेज गति वाले सुधारों के विचार में फिट बैठती हैं, जिन्हें उद्योगपति मित्रों के एक छोटे समूह द्वारा समर्थन और व्यापक व्यापारिक समुदाय द्वारा समर्थित किया गया है। इसमें कोई संदेह नहीं कि ये हमले उन नीतियों पर हुए हैं जिन पर भाजपा और उसका नेतृत्व विश्वास करता है।
यह नवंबर, 2021 में अलोकप्रिय हुए कृषि कानूनों को अचानक वापस लेने जैसा था। उस समय भी आज की तरह सरकार और खुद मोदी नई व्यवस्थाओं को आगे बढ़ाने के लिए बेताब थे, लेकिन जिसे ऐतिहासिक सुधार कहा जा रहा था उस पर लगाया गया राजनीतिक दांव, पारदर्शिता की भारी कमी और इरादों को दर्शाता था जिन पर सवाल उठाए गए। भाजपा के दिग्गज नेता और जम्मू-कश्मीर के पूर्व राज्यपाल सत्यपाल मलिक ने आरोप लगाया था कि पसंदीदा उद्योगपतियों ने कानून बनने के पहले ही जमीनें खरीद ली थीं क्योंकि बाद में कीमतें बढ़ गयी थीं।
पहले ही आरोप लग रहा है कि सरकार की वर्तमान नीतियां सामाजिक न्याय को कमजोर करने में पूरी मदद कर रही हैं। लेटरल हायरिंग के मामले में आरक्षण के बिना वरिष्ठ सरकारी अधिकारियों को काम पर रखने के मामले में पिछले लोकसभा में भाजपा को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ी थी। खारिज की गई नई पेंशन योजना के मामले में अब यह भार लोगों को बाजार की अनिश्चितता में छोड़ रहा है। सरकारी कर्मचारियों को बाजार पर भरोसा नहीं है, ठीक उसी तरह जैसे किसान खुले बाजार की व्यवस्था नहीं चाहते थे और इसके बजाय सरकार से न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी मांगते थे।
यह एक बार फिर बाजारों और मोटे तौर पर निजी क्षेत्र के निष्पक्ष होने के बारे में आम नागरिक के विश्वास की कमी और आम तौर पर भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार में भरोसे की कमी को जाहिर करता है जो निजी क्षेत्र के समर्थन और अर्थव्यवस्था में अपनी बड़ी भूमिका पर जोर देने के रूप में देखा जाता है। विश्वास की इस कमी के दो हिस्से हैं- पहला, राष्ट्र की अंतर्निहित बाजार विरोधी प्रवृत्ति है; और दूसरा, सत्ता और निजी पूंजी के बीच अनुचित निकटता के कारण अतिरिक्त बाजार विरोधी पूर्वाग्रह है।यानि दो कार्यकाल से ज्यादा समय तक पूर्ण बहुमत और अकेले नेता के सत्ता में रहने, मोदी सरकार के पहले दो कार्यकालों के दौरान बाहर से कोई विपक्ष नहीं होने और पार्टी के अंदर सांसदों के पूरी तरह चुप्पी साधने के बाद भी भाजपा कम से कम आर्थिक मामलों के मामले में राष्ट्रीय मानसिकता को बदलने में सक्षम नहीं रही है। भले ही भाजपा अभी भी केंद्र और कई राज्यों में सत्ता में बनी है पर इसमें ही भाजपा और नरेन्द्र मोदी ब्रांड की राजनीति का बड़ा पतन दिखाई देता है। भाजपा जैसे-जैसे अपने प्रभाव को बढ़ाने और विस्तार करने पर ज़ोर देगी, पार्टी अधिक दक्षिणपंथी एजेंडे की ओर झुकेगी। यहां तक कि वह अपनी सीमाओं को जांचेगी तथा इस प्रक्रिया में ध्यान हटाने के लिए कई अन्य मोर्चों की जांच-परख भी करेगी जिसमें इसकी सांप्रदायिक राजनीति भी शामिल है।
कुछ हद तक ऐसा इसलिए है क्योंकि भाजपा आज स्वयंभू रणनीतिकारों और नैरेटिव शेपर्स की एक मशीनरी है जो मानते हैं कि शासन का मतलब कहानियां सुनाना, साथ ही उन्हें गढ़ना और फिर इन कहानियों को बेचने के लिए सभी संसाधनों को लगाना है। वास्तव में भाजपा लोगों को समझाने और फिर दक्षिणपंथी मोड़ों के साथ जाने के लिए राजी करने की विशाल राजनीतिक चुनौती का मुकाबला नहीं कर रही है बल्कि हार के बाद भी यह लोगों को चुपके से इसके अंदर ले जा रहा है। देश कह रहा है कि उसे बेवकूफ नहीं बनाया जा सकता। तथ्य यह है कि देश भाजपा के प्रस्ताव पर और पार्टी के एजेंडे से कई अन्य मुद्दों पर इस तरह के सुधारों पर आश्वस्त नहीं है।करीब सात साल पहले का उदाहरण लें, जब भारत के आर्थिक सर्वेक्षण ने आधिकारिक तौर पर कहा था कि 'सभी राज्यों, सभी समाजों में निजी क्षेत्र के प्रति कुछ दुविधा है... लेकिन भारत में दुविधा किसी और देश से अधिक लगती है। ऐसा प्रतीत होता है कि भारत में दूसरों के सापेक्ष स्पष्ट रूप से एंटी-मार्केट विश्वास है, यहां तक कि समान रूप से प्रति व्यक्ति स्तर वाले कम प्रारंभिक जीडीपी साथियों की तुलना में भी यह भरोसा कम है।'
इसमें सरकार ने वर्ल्ड वैल्यू सर्वे के आंकड़ों का हवाला दिया। उसी सर्वेक्षण में नवीनतम डेटा बिंदुओं पर फिर से गौर करने से हमें पता चलता है कि भारत में बेसलाइन बदली नहीं है। उदाहरणार्थ, पिछले साल ही इसी सर्वे पर प्रतिक्रियाएं पूछी गई थी कि 'क्या व्यवसाय का सरकारी स्वामित्व बढ़ाया जाना चाहिए?' भारत में 23.3 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने इस कथन से पूरी तरह से सहमति व्यक्त की, जो चीन या यहां तक कि बांग्लादेश के लिए रिपोर्ट की गई संख्या से अधिक है। भारत उस बैंड में है जहां पाकिस्तान बैठता है। वहां 28.7 फीसदी ने उस कथन से पूरी तरह सहमति व्यक्त की। जबकि इस पैमाने के दूसरे छोर की तुलना में भारत में 100 में से 60 से अधिक लोग उस कथन के साथ जाने के लिए प्रवृत्त थे जिन्होंने कहा कि व्यवसाय के निजी स्वामित्व को बढ़ाया जाना चाहिए- केवल 11.1 फीसदी ने पूरी तरह से इसका समर्थन किया।
हमें यह जानने के लिए उस सर्वेक्षण की आवश्यकता नहीं है कि भारत की अर्थव्यवस्था अच्छा नहीं कर रही है। विश्व असमानता लैब के अनुसार भारत में ब्रिटिश राज के दौरान पाई गई असमानता से अधिक असमानता के साथ-साथ अच्छी नौकरियां प्रदान करने में पूर्ण विफलता के साथ-साथ शीर्ष पर व्याप्त भ्रष्टाचार अब नियामक प्रणालियों में व्याप्त हो गया है, जैसा कि सेबी के प्रमुख को उलझाने वाले मामले में देखा गया है। यह हमें बताता है कि क्या गलत हो रहा है। पिछले दशक की नीतियां विफल रही हैं और थोड़े समय और टुकड़ों में किए गए नीतिगत उलटफेर इस गड़बड़ी को ठीक नहीं करेंगे। (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। सिंडिकेट: द बिलियन प्रेस)