जनवरी अगस्त और लोकतंत्र के सवाल

जब प्रधानमंत्री मोदी भारत को लोकतंत्र की जननी कहते हैं, विदेशों में जाकर भारत के लोकतंत्र का गुणगान करते हैं, तो फिर उनके अपने शासन में लोकतंत्र की जड़ों पर प्रहार क्यों किया जा रहा है।

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जनवरी अगस्त और लोकतंत्र के सवाल
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सर्वमित्रा सुरजन
Updated on : 2024-02-29 05:46:58

— सर्वमित्रा सुरजनपिछले 10 सालों में इस देश के अनेक स्वतंत्रचेता पत्रकार, लेखक, कलाकार, बुद्धिजीवी, सामाजिक कार्यकर्ता, इसी बात को अलग-अलग तरीकों से व्यक्त करते आए हैं। विपक्ष के भी कई नेता इस सवाल को पुरजोर तरीके से उठा रहे हैं कि जब प्रधानमंत्री मोदी भारत को लोकतंत्र की जननी कहते हैं, विदेशों में जाकर भारत के लोकतंत्र का गुणगान करते हैं, तो फिर उनके अपने शासन में लोकतंत्र की जड़ों पर प्रहार क्यों किया जा रहा है।

भारत में लोकतंत्र अब नहीं बचा है, केवल लोकतंत्र का दिखावा बचा है और असल में देश तानाशाही की ओर बढ़ चुका है, इस विचार को यू ट्यूबर ध्रुव राठी ने अपने ताजा वीडियो में कुछ उदाहरणों के साथ विस्तार से दिखाया है, जिसे कम से कम एक करोड़ लोग देख चुके हैं और सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर इस वीडियो को खूब शेयर और लाइक किया जा रहा है। नामी-गिरामी पत्रकार, नेता और सामाजिक कार्यकर्ता इस वीडियो को अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचाने की अपील कर रहे हैं। सोशल मीडिया के इस जमाने में किसी वीडियो का रातों-रात वायरल हो जाना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। खासकर समाज पर प्रभाव रखने वाले लोग जब किसी चीज को पसंद करते हैं, तो फिर उनके अनुयायी भी उसे पसंद करने लगते हैं।

सोशल मीडिया इन्फ्लूएंसर नाम की एक नयी बिरादरी भी अब खड़ी हो चुकी है, जिसका काम ही लोगों की सोच को प्रभावित करना होता है। जो कुछ दिखाया जा रहा है, वो कितना सही है, कितना गलत, तर्क की कसौटी पर खरा उतरता है या नहीं, इस पर विचार किए बिना लाइक, डिसलाइक और शेयर की बटनें केवल इसलिए दबाई जाती हैं, क्योंकि सोशल मीडिया इंफ्लूएंसर ने ऐसा करने कहा है। धु्रव राठी ने अपने वीडियो की शुरुआत में ही बता दिया है कि जो लोग मोदीजी को दिल दे बैठे हैं, उन्हें अपना भगवान बता चुके हैं, उन्हें ये वीडियो पसंद नहीं आएगा, लेकिन लोकतंत्र को समझने के लिए दिल-दिमाग को खोल कर विचार करने वाले लोगों के लिए ये वीडियो बेहद जरूरी है। अपनी बात को साबित करने के लिए धु्रव राठी ने जो उदाहरण दिए, वो मौजूदा हालात के हिसाब से एकदम सटीक हैं और पूरे वीडियो को देखकर यकीन हो जाता है कि देश में लोकतंत्र वाकई बड़े खतरे में है। जिन लोगों ने धु्रव राठी की बात से इत्तेफाक रखा, उन्होंने इस वीडियो की भर-भर कर तारीफ की और जिन्हें इस पर आपत्ति लगी, उन्होंने इसमें खामियां भी दिखाईं।

लोकतंत्र का यही बड़ा लक्षण है कि किसी भी चीज के, किसी भी पहलू पर बात करने से गुरेज न हो। निंदा और प्रशंसा दोनों के लिए बराबर का स्थान हो। लेकिन सोशल मीडिया में लोकतंत्र का यह लक्षण दबा दिया जाता है, क्योंकि यहां जो जितना बड़ा इन्फ्लूएंसर रहेगा, वो लोगों की स्वतंत्र चेतना को उतना अधिक प्रभावित कर, अपने मुताबिक सोच में ढालने के लिए प्रेरित करेगा। यह सोशल मीडिया का ही प्रभाव है कि अब तक भारत को कृषि प्रधान देश माना जाता था, लेकिन अब इसी देश में अगर सत्ता की ओर झुकाव रखने वालों ने किसानों को आतंकवादी और खालिस्तानी कह दिया तो लोगों के एक बड़े तबके ने यह मान लिया इस देश को किसानों से वाकई खतरा है और दिल्ली की ओर बढ़ रहे किसानों के साथ दुश्मनों जैसा व्यवहार गलत नहीं है। अपने अन्नदाताओं को अगर लोगों ने अपशब्दों से नवाजना शुरु कर दिया है, तो फिर यह मान ही लेना चाहिए कि इस देश के बहुसंख्यक लोगों ने वाकई अपनी बुद्धि को सोशल मीडिया के लिए गिरवी रख दिया है।

बहरहाल, धु्रव राठी पर लौटें, जिनका यू ट्यूब चैनल ख्यातिप्राप्त है और विभिन्न विषयों पर उनके बनाए वीडियो लाखों की संख्या में देखे और सराहे जाते हैं। सटीक ग्राफिक्स, शोधपरक जानकारी और आसान हिंदी व अंग्रेजी शब्दों के इस्तेमाल से तैयार की गई उनकी स्क्रिप्ट लोगों को सरलता से समझ आ जाती है, इसलिए उनके दर्शकों करोड़ों में हैं। धु्रव राठी के ताजा वीडियो में भी उन्होंने बेहद सरल भाषा में यह बता दिया है कि भारत में लोकतंत्र को लेकर लोगों की क्या खुशफहमियां हैं। जैसे आम जनता चुनाव होने और वोट डालने के अपने अधिकार को अगर लोकतंत्र मान रही है, तो उसे याद रखना चाहिए कि उ.कोरिया और रूस में भी चुनाव होते हैं, लेकिन वहां नतीजे सत्तारुढ़ नेता के कारण प्रभावित होते हैं और भारत में भी अब ऐसा ही हो रहा है। इसके बाद चुनाव आयोग के पक्षपात, मीडिया का सत्ता की ओर झुकाव, जांच एजेंसियों का राजनैतिक इस्तेमाल, आंदोलनों का दमन ऐसे अनेक उदाहरण देकर आधे घंटे के इस वीडियो में धु्रव राठी ने यह साबित करने की कोशिश की है कि भारत में अब लोकतंत्र नहीं बचा है। अगर हम बहुसंख्यकवाद को लोकतंत्र समझ रहे हैं, तो यह हमारी भूल है।

श्री राठी के इस वीडियो में कोई नयी जानकारी या नया खुलासा नहीं है, बल्कि पिछले 10 सालों में इस देश के अनेक स्वतंत्रचेता पत्रकार, लेखक, कलाकार, बुद्धिजीवी, सामाजिक कार्यकर्ता, इसी बात को अलग-अलग तरीकों से व्यक्त करते आए हैं। विपक्ष के भी कई नेता इस सवाल को पुरजोर तरीके से उठा रहे हैं कि जब प्रधानमंत्री मोदी भारत को लोकतंत्र की जननी कहते हैं, विदेशों में जाकर भारत के लोकतंत्र का गुणगान करते हैं, तो फिर उनके अपने शासन में लोकतंत्र की जड़ों पर प्रहार क्यों किया जा रहा है, क्यों सरकार के आचरण में लोकतंत्र के लिए उपेक्षा का भाव देखा जा रहा है। अभी कुछ वक्त पहले जवान फिल्म में शाहरुख खान ने फिल्म के आखिरी कुछ मिनटों में देश के मौजूदा हालात, चुनाव, लोकतंत्र और जनता की जागरुकता को लेकर ऐसे ही आंदोलित करने वाले संवाद कहे थे। तब उसकी खूब चर्चा हुई थी और जरा सा वक्त बीतते ही यह चर्चा शांत हो गई। इंस्टेंट नूडल्स के जैसे ही हमने अपनी याददाश्त के साथ पेश आना शुरु कर दिया है। स्वाद कैसा भी हो, उसका मजा तात्कालिक ही रहता है, जुबान या दिमाग पर ज्यादा देर तक नहीं चढ़ता। जो सामने रहता है वही याद रहता है और ओझल होने पर स्मृति से भी ओझल हो जाता है। इसलिए लोकतंत्र के मायने क्या हैं, क्यों आज लोकतंत्र खतरे में है, ये लोगों को खुद समझ नहीं आ रहा, उसे किसी को आकर याद दिलाना पड़ रहा है। अगर कहा जाए कि लोकतंत्र ही नहीं, हमारी चेतना भी खतरे में है, तो शायद गलत नहीं होगा। दुनिया के अनेक देशों में ये मिसाल सामने आ चुकी है कि जब-जब लोगों की चेतना जागती है, तब-तब अन्याय और अत्याचार की जड़ें हिल जाती हैं। फिर राजनीति के, सत्ता के, न्याय के और अधिकारों के नए सिद्धांत और मार्ग तैयार होते हैं। इसलिए मौजूदा दौर की पहली जरूरत लोगों का जागरुक और चेतनाशील होना है। धु्रव राठी का वीडियो अगर 140 करोड़ की आबादी में 1 करोड़ लोगों ने देख लिया है, तो इसका विश्लेषण इस आधार पर नहीं होना चाहिए कि 139 करोड़ लोगों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ रहा कि लोकतंत्र बचा है या नहीं। बल्कि इस बात पर गौर किया जाना चाहिए कि देश में कम से कम एक करोड़ लोग लोकतंत्र के सवाल पर मंथन कर रहे हैं। दुष्यंत कुमार ने लिखा है मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही, हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए।

आग का सुलगना लोकतंत्र के जिंदा होने का प्रमाण है। और ये आग आज से नहीं बरसों से सुलग रही है। इसलिए बाबा नागार्जुन ने दशकों पहले एक कविता लिखी थी-

किसकी है जनवरी, किसका अगस्त है?कौन यहां सुखी है, कौन यहां मस्त है?

सेठ है, शोषक है, नामी गला-काटू हैगालियां भी सुनता है, भारी थूक-चाटू है।

चोर है, डाकू है, झुठा-मक्कार है।कातिल है, छलिया है, लुच्चा-लबार है।

जैसे भी टिकट मिला, जहां भी टिकट मिला।शासन के घोड़े पर वह भी सवार है,उसी की जनवरी छब्बीस।

उसी का पन्द्रह अगस्त हैबाक़ी सब दुखी है, बाक़ी सब पस्त है..।

इस लंबी कविता पर तब भी सहमतियां और असहमतियां थीं। प्राणों की भारी कीमत देकर हासिल की गई आजादी और अथक परिश्रम से बने संविधान की इस अमूल्य पूंजी पर सवाल तब भी उठे थे कि आखिर इस पूंजी पर किसका हक होना चाहिए और किसने हक जमा लिया है। बाबा नागार्जुन ने लोकतंत्र पर छाए खतरे की ओर जो ध्यान दिलाया था, आज ध्रुव राठी ने दूसरे तरीके से वही काम किया है। राहुल गांधी देश भर में घूम कर लोगों को इसी खतरे से आगाह कर रहे हैं। जनवरी और अगस्त किसके हैं, किसके होने चाहिए और क्यों होने चाहिए, इन सवालों को जनता के बीच पुरजोर तरीके से जब तक उठाया जाता रहेगा, तब तक लोकतंत्र बचा रहेगा।

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