- सुभाष गाताडे
आज़ादी के आंदोलन में धार्मिक ग्रंथों में स्त्रियों एवं दलितों एवं अन्य वंचितों की स्थिति को लेकर विभिन्न सामाजिक क्रांतिकारक एवं सुधारकों ने लगातार अपनी आवाज़ बुलंद की है, यहां तक वर्ष 1927 में डॉ. अम्बेडकर की अगुआई में छेड़े गए महाड सत्याग्रह (1927) के दूसरे चरण में (25 दिसम्बर 1927) में महाड में डॉ. अम्बेडकर ने मनुस्मृति का दहन किया था और उनके इस कार्रवाई की तुलना फ्रेंच इन्कलाब (1789) से की थी।
वह 1990 के दशक का उत्तरार्द्ध जब इलाहाबाद उच्च न्यायालय में एक अदालत के चैम्बर के 'शुद्धिकरण' का मामला सुर्खियों में था। दरअसल उपरोक्त चेम्बर पहले अनुसूचित जाति से सम्बद्ध न्यायाधीश के लिए आबंटित हुआ था और उनके तबादले के बाद किन्हीं 'उच्च जाति' के व्यक्ति को उस चेम्बर का आबंटन हुआ। ख़बर यह बनी कि 'उच्च जाति' के उपरोक्त न्यायाधीश ने 'गंगाजल' से उसका शुद्धिकरण करवाया। अख़बार के रिपोर्टरों ने उन सम्बद्ध व्यक्तियों से भी बात की थी, जो इस कार्रवाई में शामिल थे।
ख़बरों को पढ़ कर अनुसूचित जाति से सम्बद्ध न्यायाधीश ने अदालत की शरण ली और उनके बाद वहां विराजमान हुए उच्च जाति के न्यायाधीश को दंडित करने की मांग की। मामला अंतत: अदालत द्वारा ही रफा दफा किया गया, बाद में पता चला कि अदालत ने जो जांच कमेटी बनाई थी उसने उन लोगों से बात तक नहीं की थी, जो 'शुद्धिकरण में शामिल थे।' अब बीते लगभग ढाई दशक में गंगा-यमुना से तमाम पानी बह चुका है, अलबत्ता ऐसी घटनाओं का कत्तई अकाल नहीं सामने आया है, जब न्यायाधीशों के जेण्डर, जातीय या सांप्रदायिक पूर्वाग्रह सामने आए हैं और फिर यह सवाल भी उठता रहा है कि ऐसी मान्यताओं के आधार पर अगर वह न्याय के सिंहासन पर बैठेंगे तो वह जो फैसला लेंगे वह किस हद तक संविधान सम्मत होगा।
बहरहाल, पिछले दिनों यह बहस नए सिरे से उपस्थित हुई जब दिल्ली उच्च न्यायालय की एक न्यायाधीश ने 'फिक्की' द्वारा आयोजित एक समारोह में विज्ञान, टेक्नोलॉजी आदि क्षेत्रों में महिलाओं के समक्ष उपस्थित चुनौतियों के बारे में बात करते हुए स्त्रियों के सम्मान, उनकी मौजूदा स्थिति और धार्मिक ग्रंथों की अहमियत पर न केवल बात की बल्कि उनकी एक नयी परिभाषा भी देने की कोशिश की। गौरतलब था कि अपनी इस तकरीर में उन्होंने मनुस्मृति के कसीदे पढ़े। जज महोदया के इन विचारों की काफी आलोचना हुई। लोगों को इस बात पर भी ताज्जुब हुआ कि मनुस्मृति का उनका महिमामंडन न केवल उसके तमाम विवादास्पद पहलुओं की भी अनदेखी कर रहा था बल्कि भारत के राजनीतिक एवं सामाजिक आज़ादी के आंदोलन के एक अहम पड़ाव के प्रति अपनी समूची अनभिज्ञता को प्रतिबिम्बित कर रहा था।
याद रहे आज़ादी के आंदोलन में धार्मिक ग्रंथों में स्त्रियों एवं दलितों एवं अन्य वंचितों की स्थिति को लेकर विभिन्न सामाजिक क्रांतिकारक एवं सुधारकों ने लगातार अपनी आवाज़ बुलंद की है, यहां तक वर्ष 1927 में डॉ. अम्बेडकर की अगुआई में छेड़े गए महाड सत्याग्रह (1927) के दूसरे चरण में (25 दिसम्बर 1927) में महाड में डॉ. अम्बेडकर ने मनुस्मृति का दहन किया था और उनके इस कार्रवाई की तुलना फ्रेंच इन्कलाब (1789) से की थी, जबकि पहले चरण में (19-20 मार्च) को महाड के चवदार तालाब पर अपने हजारों सहयोगियों के साथ पानी पीकर मनुष्य होने के अपने अधिकार को रेखांकित किया था।
गौरतलब था कि महाड सत्याग्रह की इस ऐतिहासिक कार्रवाई के बाद समय-समय पर अपने लेखन और व्याख्यानों में डॉ. अम्बेडकर ने मनु के विश्व नज़रिये की लगातार मुखालिफत की थी। महाड सत्याग्रह के लगभग 23 साल बाद जब भारत के संविधान का ऐलान हो रहा था तब डॉ. अम्बेडकर ने इस अवसर पर कहा था कि संविधान ने 'मनु के शासन को समाप्त किया है।' विडम्बना कही जाएगी कि इक्कीसवीं सदी की तीसरी दहाई में एक न्यायविद द्वारा मनुस्मृति का यह समर्थन- जिसे डॉ. अम्बेडकर ने 'प्रतिक्रांति' का दस्तावेज कहा था- निश्चित ही कोई अपवाद नहीं कहा जा सकता। विगत कुछ वर्षों में ऐसे मामले बार-बार आए हैं, जब परोक्ष अपरोक्ष रूप से कुछ न्यायविदों ने अपने ऐसे तमाम पूर्वाग्रहों को प्रकट किया है।
दिसम्बर माह में जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश ने अधिवक्ता परिषद के कार्यक्रम में कहा था कि भारत के संविधान के प्राक्कथन में 'धर्मनिरपेक्ष' और 'समाजवादी' शब्द के समावेश ने भारत की आध्यात्मिक छवि को सीमित किया है। इसके बाद जनवरी की शुरूआत में सुप्रीम कोर्ट के एक अग्रणी जज सुर्खियों में आए, जब उन्होंने इसी अधिवक्ता परिषद के सम्मेलन में शामिल होकर 'भारतीय कानूनी व्यवस्था के गैरऔपनिवेशीकरण' विषय पर बात रखते हुए यह दावा किया कि भारत की कानूनी प्रणाली एक तरह से औपनिवेशिक कानूनी प्रणाली की विरासत है, जो भारतीय जनताके लिए अनुकूल नहीं है तथा उसके भारतीयकरण की आवश्यकता है।
उन्होंने कहा कि 'प्राचीन भारत की कानूनी प्रणाली की वास्तविक स्थिति जानने के लिए हमें प्राचीन भारतीय ग्रंथों की ओर लौटना होगा और हम पाएंगे कि भारत की वह न्याय प्रणाली कानून के राज पर टिकी थी।'...उन्होंने इस बात पर भी अफसोस प्रकट किया कि किस तरह भारत की आधुनिक कानूनी प्रणाली ने 'मनु, कौटिल्य, कात्यायन, बृहस्पति, नारद, याज्ञवल्क्य आदि प्राचीन भारत के महान कानूनविदों के योगदानों की अनदेखी की है और वह 'औपनिवेशिक कानूनी प्रणाली चिपकी रही है।' लाजिम था कि प्रबुद्ध दायरों में यह बहस चल पड़ी कि क्या न्यायपालिका के अंदर कोई गंभीर विचारधारात्मक शिफ्ट हो रहा है।
याद कर सकते हैं कि बमुश्किल तीन साल पहले केरल उच्च न्यायालय के न्यायाधीश चिदंबरेश सुर्खियों में आए थे जब उन्होंने 'ग्लोबल ब्राहमन मीट' अर्थात वैश्विक ब्राह्मण सम्मेलन को संबोधित करते हुए ब्राह्मण जाति की कथित वरीयता को रेखांकित किया था और सम्मेलन को यह आह्वान किया था कि आरक्षण का आधार क्या जाति होना चाहिए। न्यायमूर्ति के पूर्वाग्रह किस तरह समाज में व्याप्त विषाक्तता को मजबूती देते हैं, इसे प्रमाणित करने के लिए अंत में हम मुंबई उच्च न्यायालय के एक फैसले पर बात कर सकते हैं। मुंबई उच्च न्यायालय ने एक मुस्लिम युवक की लिंचिग के मामले में सभी अभियुक्तों को पैरोल पर रिहा किया। अदालत का तर्क था कि 'यह मृतक की एकमात्र गलती थी कि वह दूसरे धर्म से सम्बद्ध था, यह तथ्य मैं अभियुक्तों के पक्ष में मानती हूं ... ऐसा प्रतीत होता है कि धर्म के नाम पर वह भड़क गए।'अंत में सर्वोच्च न्यायालय को इस मुददे पर हस्तक्षेप करना पड़ा और अभियुक्तों की जमानत रद्द करनी पड़ी। कई उदाहरण, एक ही चिन्ता, भारत को पुराना गौरव कब हासिल होगा और हम विश्व गुरु कैसे बनेंगे? कई अन्य उदाहरण दिए जा सकते हैंै, लेकिन फिलवक्त इतना ही कहना काफी होगा कि आज़ादी की इस पचहत्तरवीं सालगिरह पर न्यायपालिका पर भी गहराते बादलों को हम देख सकते हैं, जो यह संकेत जरूर देते हैं कि चीजें अब जबरदस्त उथलपुथल में हैं। इसका समाधान क्या निकलेगा, इसका उत्तर भविष्य के गर्भ में है।