- जगदीश रत्तनानी
इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि मतदान के बदलते प्रतिशत ने चुनाव आयोग की छवि को धूमिल किया है और यह कि ईवीएम प्रणाली के तहत चुनाव प्रक्रिया की विश्वसनीयता पर संदेह और गहरा रहा है। यह भारत में लोकतांत्रिक प्रणालियों, प्रक्रियाओं एवं परंपराओं के लिए झटका है। यह भारत के लोकतंत्र की जगमगाती छवि को मंद करने वाला नजर आ रहा है।
महाराष्ट्र में कुछ दिन पहले हुए विधानसभा चुनाव परिणामों को लेकर भारी असंतोष है। इन नतीजों के प्रति नाराजगी व्यक्त करने के लिए आंदोलन किया जा रहा है। दरअसल चुनाव को चुनौती देने के बनिस्बत उसके खिलाफ चल रहा आंदोलन ज्यादा महत्वपूर्ण है। विधानसभा चुनाव में एकनाथ शिंदे के नेतृत्व वाले शिवसेना गुट और अजित पवार के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी एनसीपी के गठबंधन में शामिल भाजपा को भारी बहुमत मिला है। यह सच है कि चुनावी आंकड़ों का खेल चलाना और मैदान में जनता का मूड पढ़ने वाले लोगों, मतलब दोनों के लिए चुनावी मिजाज को भांपना एक जटिल काम है, इसके बावजूद महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव इस बार एक विशेष चुनौती पेश करता है।
ऐसा इसलिए क्योंकि इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि मतदाताओं का मूड हाल ही में संपन्न 2024 के विधानसभा चुनावों के आए परिणामों से बहुत अलग था और रहेगा। इस तर्क में दम है कि मतदाताओं का मूड उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली शिवसेना के लिए एक समझने योग्य और अपेक्षित सहानुभूति वोट के पक्ष में स्पष्ट, दृश्यमान और दृढ़ता से झुका हुआ था जिनकी सरकार को भाजपा को चुनौती देने, उससे अलग होने का साहस करने और कर दिखाने की चुनौती देने के बाद गिरा दिया गया था। नई दिल्ली की सल्तनत के खिलाफ इस लड़ाई में महाराष्ट्रीयन गौरव की कहानी के सभी पहलू थे जिससे तनाव पैदा हुआ और जिसके नतीजे सामान्य तौर पर उद्धव ठाकरे की शिवसेना के नेतृत्व वाले गठबंधन के पक्ष में जाते। ऐसा इसलिए है क्योंकि सत्ता के इस खेल में शिवसेना का शिंदे गुट पीठ में छुरा घोंपने वाला था। उधर भाजपा के साथ सत्ता में शामिल होने की चाह में एनसीपी के अजित पवार ने अपने चाचा शरद पवार को धोखा दिया था।
राजनीतिक पर्यवेक्षकों के पास यह तर्क देने के लिए पर्याप्त सामग्री है कि जिस तरीके से ठाकरे सरकार को तोड़ा गया, विधायकों को भाजपा शासित राज्यों- गुजरात और असम में छिपाने के साथ जिस तरह से ठाकरे-शिवसेना के चुनाव चिन्ह को छीना गया और जिस ढंग से शरद पवार के व्यापक प्रभाव को कम करने की कोशिश की गई, वह सब लोगों को पसंद नहीं आया। उनकी राय में बड़े धन बल, बहुप्रचारित अभियान निष्पादन या आरएसएस के जमीनी समर्थन के बाद भी शिंदे-अजित सहित इनमें से किसी को, और विशेष रूप से भाजपा को आम तौर पर कोई वोट नहीं मिलेगा। वास्तव में भाजपा की ओर झुकाव रखने वालों को भी यह समझाने में मुश्किल हो रही है कि ठाकरे और पवार को तोड़ने के लिए इस्तेमाल की गई ताकत सही थी या गलत। सहानुभूति रखने वालों के पास एक सीमित तर्क यह है कि प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) कार्रवाई की कथित धमकी के कारण शिंदे या अजित पवार को रैंक तोड़ने के लिए मजबूर किया गया था। प्रवर्तन निदेशालय को अब व्यापक रूप से भाजपा के लिए काम करने वाले संगठन के रूप में देखा जाता है। भाजपा के लिए यह केवल नकारात्मकता बटोरता है।
महाराष्ट्र में लोग यह अच्छी तरह से जानते हैं कि तख्तापलट का मास्टरमाइंड कौन था तथा अभियान की अगुवाई नई दिल्ली के शीर्ष भाजपा नेतृत्व द्वारा की गयी थी। इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि भाजपा नेतृत्व एवं मुख्यमंत्री के रूप में उद्धव ठाकरे के बीच अत्यधिक कड़वाहट थी क्योंकि ठाकरे ने भाजपा से अलग होने तथा कांग्रेस के साथ टीम बनाने का फैसला किया था। यह एक स्वीकृत तथ्य है कि भाजपा उन्हें सबक सिखाने के लिए संकल्पित थी। इस खटास में भाजपा नेतृत्व के गुजरात संबंधों को सीधे तौर पर देखा गया है इसलिए महाराष्ट्र-गुजरात विभाजन स्पष्ट था जो शिवसेना के अभियान के महत्वपूर्ण हिस्सों में से एक बन गया।
इसके अलावा शिवसेना के अभियान में गुजरात स्थित गौतम अडानी समूह का मुद्दा भी शामिल हो गया। अडानी समूह मुंबई में रियल एस्टेट परियोजनाओं का निर्माण कर रहा है और उसने मुंबई की सबसे बड़ी झुग्गी बस्ती धारावी के पुनर्विकास के लिए एक विवादास्पद मेगा-अनुबंध हासिल किया है। यह समूह मुंबई हवाईअड्डा भी चलाता है। यह कहानी एक गहन भावना से भरी है लेकिन विधानसभा के परिणाम इस भावना के विपरीत गए हैं- भाजपा-शिवसेना (शिंदे)-एनसीपी (अजित पवार) गठबंधन ने 288 सीटों में से कुल 230 सीटें जीतीं, जिनमें अकेले भाजपा की 132 सीटें हैं। जीत इतनी जबरदस्त है कि इस बार महाराष्ट्र विधानसभा में विपक्ष का कोई नेता नहीं होगा। जून 2024 को हुए लोकसभा चुनावों में शिवसेना का वोट शेयर 16.72 प्रतिशत था जो अभी घटकर 9.96 फीसदी हो गया। यह भारी गिरावट है जिसके बारे में लोगों को समझाना बहुत आसान नहीं है।
चुनावी नतीजों के विरोध में वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता (95) बाबा आढाव द्वारा की गई भूख हड़ताल ईवीएम के दुरुपयोग के आरोपों को नया बल देती है। इसमें महाराष्ट्र चुनाव में धन बल के भारी उपयोग की बात तो शामिल भी नहीं की गई है। आढाव पुणे में महात्मा ज्योतिबा फुले के घर फुलेवाडा पर धरने पर बैठे। उनका धरना यह संकेत देता है कि यह आंदोलन बाहुबल-धन के खुल्लमखुल्ला इस्तेमाल के खिलाफ सामाजिक-राजनीतिक आंदोलन है व इसमें जमीनी हकीकत के विपरीत परिणाम देने के लिए मशीन की अगुवाई में हेर-फेर का अतिरिक्त आरोप भी शामिल है। मतदान करने वाले लोगों की संख्या में भारी वृद्धि के बारे में उठाए गए सवालों पर चुनाव आयोग से कांग्रेस के एक प्रतिनिधि मंडल ने मुलाकात भी की। आधिकारिक रिकॉर्ड में मतदान के दिन शाम 5 बजे तक मतदान का प्रतिशत 58.22 से बढ़कर उसी रात 11.30 बजे 65.02 फीसदी हो गया और मतगणना के दिन 66.05 प्रतिशत हो गया।
इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि मतदान के बदलते प्रतिशत ने चुनाव आयोग की छवि को धूमिल किया है और यह कि ईवीएम प्रणाली के तहत चुनाव प्रक्रिया की विश्वसनीयता पर संदेह और गहरा रहा है। यह भारत में लोकतांत्रिक प्रणालियों, प्रक्रियाओं एवं परंपराओं के लिए झटका है। यह भारत के लोकतंत्र की जगमगाती छवि को मंद करने वाला नजर आ रहा है।
यह दर्शाता है कि हमने पिछले 75 वर्षों में अपनी लोकतांत्रिक प्रणालियों को मजबूत नहीं बल्कि कमज़ोर किया है। हम एक ऐसे चरण में हैं कि ईवीएम के खतरों के कारण उससे होने वाले लाभ के दावे अप्रासंगिक हो गए हैं। यह समय मशीनों को त्यागने और पूरी तरह से भौतिक, बैलेट पेपर प्रणाली पर लौटने तथा मतपत्रों को डालने, उन्हें एक-एक करके गिनने की आजमाई और परखी हुई कागज व रबर स्टैंप वाली प्रक्रिया को अपनाने का है। मतदान की आसानी या परिणामों की गति यदि हमें तेजी से गलत जगह पर ले जाती है तो हमें इससे कुछ भी हासिल नहीं होता जैसा कि वास्तव में प्रतीत होता है। भारत को बचाने के लिए अब हमें ईवीएम प्रणाली को लाना होगा।(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। सिंडिकेट: द बिलियन प्रेस)