' एक पत्रकार को अपनी भावनाओं से समझौता किए बिना, बल्कि उन्हें जीवित रखते हुए एक तर्कप्रणाली विकसित करना चाहिए। किसी भी सामाजिक समस्या से जुड़ी हुई घटना से तात्कालिक रिपोर्टिंग करना एक बात है, लेकिन उसके निराकरण के लिए कार्य-कारण पध्दति विकसित करना बिल्कुल दूसरी।
आजकल कुछ ऐसा चलन हो गया है कि जनता को मूर्ख बनाने के लिए या उसे भ्रम में डालने के लिए लुभावने आंकड़ों को समाचार की शक्ल में परोस दिया जाता है। जिनके निहित स्वार्थ हैं वे तो यह करेंगे ही, लेकिन पत्रकार क्यों उनके झांसे में आएं! यह योजना दस करोड़ की, वही योजना छह सौ करोड़ की, तो कोई योजना एक हजार करोड़ की- इस सबका अंतत: क्या मतलब है?
ललित सुरजन की कलम से- पत्रकारिता: भावना बनाम तर्कबुध्दिहम और कुछ न करें, इतना तो कर ही सकते हैं कि जब सौ रुपए की कोई योजना सामने आए तो उसे हम अपने शीर्षक में पंद्रह रुपए ही लिखें, क्योंकि सबको पता है कि जनता के पास तो अंतत: पंद्रह पैसे ही पहुंचते हैं!'
(देशबंधु में 14 मार्च 2013 को प्रकाशित)