'आज खुदरा बाजार में एफडीआई को लेकर हो-हल्ला तो खूब मचाया जा रहा है, लेकिन उससे किसी परिणाम की आशा रखना व्यर्थ है, क्योंकि सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच जो हो रहा है वह छाया युध्द से अधिक कुछ नहीं है। लोकसभा व राज्यसभा में चाहे जितने आरोप-प्रत्यारोप लगाए गए हों, टी.वी. पर चाहे जितने दावे-प्रतिदावे किए गए हों, यह स्पष्ट है कि इस मुद्दे पर सभी पार्टियों का नजरिया लगभग एक समान है और एफडीआई को रोकने की मंशा किसी की भी नहीं है।
अगर कोई फर्क है तो इस बात का कि जहां कांग्रेस व कुछ अन्य दल सीधे किसान, मजदूर की हित की बात कर सकते हैं, वहीं भाजपा के पार्टीहित व्यापारी वर्ग के साथ जुड़े हुए हैं। वे ही उसके वोटर हैं, वे ही उसके फंड दाता हैं और वे ही छोटे-छोटे कस्बों तक संघ की गतिविधियों को चलाने में मददगार होते हैं। जब सुषमा स्वराज ने जोर देकर कहा कि आढ़तिए किसान के लिए एटीएम होते हैं, तब वे अपनी पार्टी व छोटे-मंझोले व्यापारियों के बीच के रिश्ते को ही रेखांकित कर रही थीं। यही नहीं, भाजपा स्वयं लंबे समय से आर्थिक उदारीकरण की पक्षधर रही है। सार्वजनिक क्षेत्र की कारखानों का विनिवेश उसी से शुरू किया था तथा अन्य बहुत से मुद्दों पर उसकी नीतियां वैश्विक विश्वपूंजीवाद के समर्थन में रही हैं।(देशबन्धु में 13 दिसम्बर 2012 को प्रकाशित)https://lalitsurjan.blogspot.com/2012/12/blog-post_18.html