देशबन्धु : चौथा खंभा बनने से इंकार-33

देशबन्धु की इकसठ साल की यात्रा पर केंद्रित लेखमाला के दूसरे खंड की यह समापन किश्त है

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देशबन्धु  चौथा खंभा बनने से इंकार-33
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ललित सुरजन
Updated on : 2021-01-21 03:12:53

- ललित सुरजन

देशबन्धु की इकसठ साल की यात्रा पर केंद्रित लेखमाला के दूसरे खंड की यह समापन किश्त है। इसमें तैंतीस किश्तों में मैंने मुख्यत: मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़ की राजनीति के कर्णधारों के साथ देशबन्धु के खट्टे-मीठे तथा कभी-कभार कड़वे रिश्तों का बिना किसी दुराग्रह के वर्णन करने का उपक्रम किया है। ये चित्र मेरी स्मृति व अनुभवों पर आधारित हैं। इनकी सिलसिलेवार शुरुआत 1964 में पं. द्वारका प्रसाद मिश्र से होती है। मुझे तब अखबार का काम सीखते तीन साल हो गए थे। राजनीतिक समझ भी दिनोंदिन साफ हो रही थी।

डॉ.रमन सिंह के पंद्रहसाला कार्यकाल के बहुत सारे प्रसंग स्मृति पटल पर उभरते हैं। हमें इस बात का हमेशा फख्र रहा कि देशबन्धु की जड़ें छत्तीसगढ़ की धरती में हैं। 'पत्र नहीं मित्र' के मुख्य ध्येय वाक्य के साथ हमने एक वाक्य और जोड़ा-'छत्तीसगढ़ की धरती का अपना अखबार'। बदलते दौर में अपने वजूद को कायम रखने तथा भविष्य की व्यावसायिक संभावनाओं की दृष्टि से यह विचार उठा कि दिल्ली से भी एक संस्करण होना चाहिए। हमारे 'मिशन स्टेटमेंट' में एक और पंक्ति बढ़ गई- 'छत्तीसगढ़ का पहला राष्ट्रीय दैनिक'। यह 2007 मध्य की घटना है।

मुख्यमंत्री को शिष्टाचार के नाते सूचना देने व राज्य सरकार से विज्ञापन मिलने की अपेक्षा के साथ मैंने डॉ. रमन से भेंट की। उन्होंने 7 अप्रैल, 2008 को उद्घाटन अवसर पर विशिष्ट अतिथि के रूप में आने की सहमति दी और सरकार से सहयोग का आश्वासन भी दिया। उन्होंने जितना सहयोग दिया, मैं समझता हूं कि उस समय और आगे भी राजनीतिक विचारों में भिन्नता को देखते हुए उतना पर्याप्त व सदाशय का प्रतीक था। दिल्ली संस्करण के बारे में आगे कभी अलग से विस्तारपूर्वक लिखना होगा।

राजनीति की डगर कितनी कठिन होती है तथा किस तरह विरोधाभासों के बीच तालमेल बैठाना होता है, यह रमन सरकार की तीन पारियों के अध्ययन से काफी-कुछ समझा जा सकता है। जून 2005 के पहले प्रदेश में आम तौर पर शांतिपूर्ण माहौल था। मुख्यमंत्री निवास सहित प्रमुख शासकीय भवनों में प्रवेश करना अपेक्षाकृत सरल था। किंतु सलवा जुड़ूम का ऐलान होते साथ दीवारें उठने लगीं, सुरक्षा के घेरे बढ़ते चले गए, सड़कों पर दूर-दूर तक बैरियर लगने लगे, सीएम के मोटरकेड में वाहनों की संख्या में इजाफा होने लगा, और आम जनता के दिल-दिमाग पर असुरक्षा का भय हावी होने लगा। इस वातावरण में मुख्यमंत्री ने जनसामान्य के साथ संवाद जारी रखने के लिए दो काम किए। एक तो मुख्यमंत्री निवास पर जनदर्शन का आयोजन प्रारंभ किया गया।

अगर सरकारी विज्ञप्तियों पर भरोसा किया जाए तो एक-डेढ़ घंटे के सीमित समय में मुख्यमंत्री ने किसी-किसी दिन एक हजार से भी अधिक लोगों से भेंट की व उनकी समस्याओं का समाधान किया। दूसरे, वे हर साल मई की झुलसा देने वाली गर्मी में लगातार एक माह तक हैलीकॉप्टर से यात्रा कर प्रदेश के दूर-पास के सैकड़ों गांवों तक पहुंचे और कहीं बरगद की छाया तो कहीं पंडाल में बैठकर जनता का दुख-दर्द जाना व उन्हें राहत पहुंचाई। इन हवाई दौरों में वे कई जगह बिना पूर्व सूचना 'अचानक' पहुंचे। विचारणीय है कि अधिकांश शिकायतें अथवा प्रतिवेदन नौकरशाही के खिला$फ थे, लेकिन शायद ही किसी अधिकारी से जवाब तलब किया गया हो या उस पर कठोर कार्रवाई की गई हो! क्या इस नरम रवैये के कारण ही राज्य में अभूतपूर्व भ्रष्टाचार होने के किस्से फैलने लगे?

रमन सिंह की पहली पारी खत्म होने के कुछ दिन पहले संघ को समर्पित एक सज्जन मिले। उन्होंने भविष्यवाणी की कि आसन्न विधानसभा चुनावों में भाजपा हार जाएगी। उन्होंने कारण बताया कि कांग्रेस राज्य में जो काम सौ रुपए में हो जाता था अब उसी काम के पांच सौ देना पड़ते हैं। उन्होंने जिस भी वजह से यह बात कही हो, वे ही जानें लेकिन अंतत: भविष्यवाणी गलत सिद्ध हुई।

इसके बावजूद एक संकेत मिलता है कि प्रशासन की दिशा क्या थी। भाजपा के केंद्रीय संगठन ने प्रभारी सचिव के तौर पर 2004 से 2018 के बीच छत्तीसगढ़ में कई वरिष्ठ पदाधिकारियों को भेजा और समय-समय पर बदला। इनमें से एक को हमने अनेक बार सार्वजनिक तौर पर अफसोस प्रकट करते सुना- मैं जब छत्तीसगढ़ का प्रभारी था। उन्हें शायद सचमुच हमारे राज्य से इतना लगाव हो गया था! मनमोहन सरकार के भी अनेक मंत्री शासकीय प्रयोजन से प्रदेश के दौरे पर जब तब आते रहे। वे भी छत्तीसगढ़ आने में प्रसन्नता का अनुभव करते थे और जाते समय रमन सरकार को अच्छा काम करने का सर्टिफिकेट दे जाते थे। अपने दल को संभालना आसान नहीं रहा होगा लेकिन विपक्ष से प्रमाणपत्र पा लेना तो वाकई काबिलेतारी$फ था।

बहरहाल, यह तो शासन-प्रशासन की बात हुई। मैं इनसे परे दो-तीन निजी अनुभवों को साझा करना उचित समझता हूं। सितंबर 2011 में मेरी एंजियोप्लास्टी हुई। उपचार के बाद मैं लगभग तीन माह तक घर पर ही आराम कर रहा था। एक दिन अचानक मुख्यमंत्री कार्यालय से फोन आया कि सीएम साहब मुझे देखने आ रहे हैं। कुछ ही समय बाद डॉ. रमन अपना लाव-लश्कर नीचे छोड़, दो मंजिल सीढ़ियां चढ़कर हमारे निवास पर आए। आधा घंटा बैठे।

स्वयं डॉक्टर हैं तो विस्तारपूर्वक जानकारी ली। अगर आगे किसी डॉक्टरी सलाह की जरूरत पड़े तो बताइए। दिल्ली में फलाने डॉक्टर बहुत अनुभवी हैं आदि आदि। यह उल्लेख करना आवश्यक है कि मेरी मिजाजपुर्सी के लिए आने वाले वे पहले राजनेता थे। शायद यह खबर मिल जाने के तीन-चार दिन बाद प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष नंदकुमार पटेल भी आए। दूसरा प्रसंग जून 2018 का है। विधानसभा चुनाव पूर्व भाजपा ने 'संपर्क से समर्थन' अभियान चलाया था। उसके पहले ही दिन रमन सिंह के घर आने की सूचना मिली जब मैं पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार निकटवर्ती कस्बे तिल्दा में एक तीन-दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी में भाग ले रहा था, सो मैंने आयोजकों से अगले दिन न आने के लिए छुट्टी मांग ली।

2011 और 2018 में इतना फर्क था कि सीएम के सुरक्षा स्टाफ ने एक घंटा पहले से मोर्चा सम्हाल लिया था। खैर, वे आए। काफी देर तक नई-पुरानी यादों को ताजा करते रहे। फिर चलते समय भाजपा की प्रचार सामग्री का एक पैकेट भेंट कर गए। मेरे लिए महत्वपूर्ण बात यह थी कि रमन सिंह ने अपने अभियान के अंतर्गत सबसे पहले रामकृष्ण मिशन के स्वामी सत्यरूपानंदजी से आशीर्वाद लेने के तत्काल बाद मुझसे संपर्क करना तय किया।

शिक्षा का अधिकार कानून लागू हो जाने के बाद देश भर में उस पर परिसंवाद, संगोष्ठी, कार्यशाला आदि का सिलसिला चल पड़ा था। छत्तीसगढ़ में आक्सफैम इंडिया के सहयोग से मायाराम सुरजन फाउंडेशन ने एक नई पहल की। मुख्यमंत्री को विधायकों के लिए इस विषय पर एक पैरवी और परामर्श कार्यशाला आयोजित करने का प्रस्ताव दिया जिस पर उन्होंने तुरंत सहमति दे दी।

2 अप्रैल, 2012 को विधानसभा के एक सभागार में शिक्षाविद विनोद रैना का सुचिंतित व्याख्यान हुआ जिसमें मुख्यमंत्री, विधानसभा अध्यक्ष धरमलाल कौशिक व विपक्ष के नेता रवींद्र चौबे सहित साठ से अधिक विधायक उपस्थित रहे। देश में इस तरह का यह पहला कार्यक्रम था। इसी तरह का दूसरा आयोजन स्वास्थ्य के प्रति निर्वाचित जनप्रतिनिधियों की प्रतिबद्धता पर नेशनल फाउंडेशन फॉर इंडिया के एक त्रिवर्षीय प्रकल्प के उद्घाटन अवसर पर 15 जुलाई, 2016 को हुआ।

इसमें भी डॉ. रमन सिंह, विधानसभा अध्यक्ष गौरीशंकर अग्रवाल, विपक्ष के नेता टीएस सिंहदेव सहित करीब अस्सी विधायक सम्मिलित हुए। यह लिखना अप्रासंगिक न होगा कि भूपेश बघेल के नेतृत्व में कांग्रेस सरकार बनने के बाद इस प्रकल्प के समापन अवसर पर 20 फरवरी, 2019 को नवनिर्वाचित विधायकों के लिए तीसरी पैरवी कार्यशाला का आयोजन हुआ। इसमें मुख्यमंत्री, विधानसभा अध्यक्ष डॉ. चरणदास महंत, विपक्ष के नेता धरमलाल कौशिक सहित बड़ी संख्या में विधायक आए। छत्तीसगढ़ ने इस तरह विधायिका तथा सिविल सोसाइटी के बीच संवाद का एक नया रास्ता खोल दिया है।

देशबन्धु की इकसठ साल की यात्रा पर केंद्रित लेखमाला के दूसरे खंड की यह समापन किश्त है। इसमें तैंतीस किश्तों में मैंने मुख्यत: मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़ की राजनीति के कर्णधारों के साथ देशबन्धु के खट्टे-मीठे तथा कभी-कभार कड़वे रिश्तों का बिना किसी दुराग्रह के वर्णन करने का उपक्रम किया है। ये चित्र मेरी स्मृति व अनुभवों पर आधारित हैं। इनकी सिलसिलेवार शुरुआत 1964 में पं. द्वारका प्रसाद मिश्र से होती है। मुझे तब अखबार का काम सीखते तीन साल हो गए थे। राजनीतिक समझ भी दिनोंदिन साफ हो रही थी। समापन 2018 में डॉ. रमन सिंह पर आकर होता है। इन चौवन सालों में राजनीति का चरित्र बदला है और समाचारपत्र तो नई संज्ञा मीडिया के विराट वैभव में धीरे-धीरे कर अपना अस्तित्व ही खोने पर विवश हो गए हैं।

एक पुरानी कहावत को परिवर्द्धित कर कहना चाहूंगा कि इस लंबे दौर में नर्मदा, महानदी, इंद्रावती, बैनगंगा, बेतवा, शिवनाथ, पार्वती, चंबल, ताप्ती सहित अविभाजित मध्यप्रदेश की तमाम नदियों में न जाने कितना पानी बह चुका है। कितनी सतत-सलिला नदियां तो सरोवरों की संकीर्णता में कैद जलराशि में तब्दील हो चुकी हैं। दरअसल, यही इस युग का यथार्थ है। इन संस्मरणों में बहुत कुछ लिखने से छूट गया है। वह शायद स्वतंत्र लेखों में आगे कभी आए! मैंने चलते-चलते भूपेश बघेल का उल्लेख किया है। वे जमीन से जुड़े ऊर्जावान नेता हैं। मैं उनमें निहित संभावनाओं के पूरी तरह प्रस्फुटित होने की आशा करता हूं।

यह आलेख पूर्व लिखित है । (समाप्त)aksharparv@gmail.com