- ललित सुरजन
श्री जोगी ने मुझे राज्य वन्य जीवन संरक्षण मंडल का सदस्य मनोनीत किया था। डॉ. रमन सिंह ने पुनर्गठन किया तो मेरी सदस्यता कायम रखी। वरिष्ठ आदिवासी नेता अरविंद नेताम भी एक सदस्य थे। वे तब भाजपा में आ गए थे। मुख्यमंत्री की अध्यक्षता में जो पहली बैठक हुई उसमें संरक्षित वनों के निवासियों के पुनर्वास व राहत पर चर्चा हुई। मैंने अधिकारियों द्वारा दाखिल प्रतिवेदनों को अपर्याप्त मानते हुए सुझाव दिया कि मंडल के सदस्यों को स्वयं जाकर स्थल निरीक्षण करना चाहिए।
यह बात शायद बहुत लोगों को पता न हो और पता लगने पर आश्चर्य हो कि रमन सिंह भारत के उन बिरले नेताओं में हैं जो दिवंगत फिलिस्तीनी नायक यासर अराफात से मिल चुके हैं। आश्चर्य की बात इसलिए कि भारतीय जनता पार्टी को जिस देश की नीतियां और कार्यप्रणाली सबसे अधिक लुभाती हैं वह इजरायल है। इसके विस्तार में जाना अभी आवश्यक नहीं है। इतना कहना काफी है कि कट्टरपंथी यहूदीवादी लॉबी जिस तरह हिब्रू, यहूदी, इजरायल की अवधारणा पर चलती है, उसी का प्रतिबिंब संघ व भाजपा के हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान में झलकता है।
भाजपा के जिन नेताओं ने अपनी पार्टी के इस आदर्श देश की यात्राएं की हैं उनमें तत्कालीन केंद्रीय मंत्री डॉ. रमन सिंह का नाम भी है। चूंकि वे यासर अराफात से मिलने को उत्सुक थे इसलिए इजरायल प्रवास में उपलब्ध मौके का लाभ उठाते हुए सीमा पार फिलिस्तीन की यात्रा भी कर आए। यह भले ही उनकी निजी यात्रा थी किंतु अनुमान लगाया जा सकता है कि इसके लिए उन्होंने सरकार और पार्टी से अनुमति ले ली होगी! लाहौर की बस यात्रा करने और पाकिस्तान के साथ दोस्ती का हाथ बढ़ाने वाले प्रधानमंत्री वाजपेयीजी के समय यह हरी झंडी मिलना बहुत मुश्किल नहीं रहा होगा! मुझे जहां तक याद आता है सन् 2003 के विधानसभा चुनावों के दौरान उन्होंने जो प्रचार सामग्री प्रकाशित की थी उसमें कहीं अराफात के साथ उनकी तस्वीर भी थी। एक मुलाकात में मैंने उनसे इस बारे में जानना चाहा था तो यह उत्तर मिला कि विश्व की इतनी चर्चित शख्सियत से मिलने की उनकी स्वाभाविक इच्छा थी।
प्रदेश के सर्वमान्य नेता बनने की चाहत लिए डॉ. रमन ने अपने कार्यकाल की शुरुआत अच्छी की थी। उनकी छवि को पहला धक्का सत्ता सम्हालने के तकरीबन डेढ़ साल बाद ऐसे विवादास्पद निर्णय से लगा जिसकी अनुगूंज देश-विदेश में आज भी सुनाई देती है। 5 जून 2005 को उन्होंने नक्सल समस्या के कथित निवारण हेतु सलवा जुड़ूम अभियान प्रारंभ किया जिसमें पूरा जोर भाजपा की पारंपरिक सोच के अनुरूप बलप्रयोग पर था। कहने को यह कांग्रेस नेता (स्व) महेंद्र कर्मा के द्वारा शुरू किया गया अभियान था, लेकिन परदे के पीछे राज्य सरकार का पूरा समर्थन था। यह सच अधिक दिनों तक छुपा नहीं रह सका।
सरकार ने अपने अभियान को सफल करने के लिए प्रशासन व पुलिस को निरंकुश छोड़ दिया जिसके भयावह नतीज सामने आए। एक तरफ सशस्त्र बल, दूसरी ओर नक्सली- दोनों ने अगले चौदह साल जो खूनी खेल खेला, छत्तीसगढ़ ने कभी उसकी कल्पना नहीं की थी। बस्तर में लगभग छह सौ गांव उजड़ गए। उनके निवासी सलवा जुड़ूम शिविरों में शरण लेने बाध्य किए गए। कोई तीन लाख आदिवासी सीमावर्ती प्रदेशों की ओर पलायन करने मजबूर हो गए। ताड़मेटला और झीरम घाटी सहित कितनी ही हिंसक वारदातें हुईं। वीसी शुक्ल, नंदकुमार पटेल, कांग्रेस के अनेक नेता, अन्य राजनीतिक कार्यकर्ता, सैकड़ों सामान्य नागरिक मार डाले गए। हजारों निर्दोष जन जेल में ठूंस दिए गए। नतीजा यह हुआ कि चारों ओर छत्तीसगढ़ के बारे में एक नकारात्मक धारणा बनती चली गई। करेले पर नीम चढ़ने की कहावत इस तरह चरितार्थ हुई कि केंद्र की कांग्रेस सरकार इस कदम का अनुमोदन करती दिखी। प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने तो नक्सल समस्या को देश के सामने बड़ी चुनौती निरूपित किया था।
इस दौरान जिन लोगों व संस्थाओं ने बातचीत के जरिए संघर्ष खत्म करने के सुझाव दिए उनका या तो उपहास किया गया या उपेक्षा की गई या वे भी दमन का शिकार हुए। जिन डॉ. ब्रह्मदेव शर्मा ने नक्सली चंगुल से कलेक्टर अलेक्स पॉल मेनन की रिहाई में मुख्य भूमिका निभाई, संघर्ष समाधान के लिए उनसे किए गए वायदे देखते ही देखते भुला दिए गए। शांति मिशन पर बस्तर जा रहे स्वामी अग्निवेश के खिलाफ रायपुर में प्रदर्शन और बस्तर में उन पर शारीरिक आक्रमण किया गया। रायपुर की सभा की अध्यक्षता कांग्रेस नेता केयूर भूषण कर रहे थे, उन पर भी हमला करने की कोशिश हुई जिसमें कुछ उद्दंड कांग्रेसी भी शामिल थे। सम्मानित पत्रकार अजीत भट्टाचार्य एक जांच समिति के सदस्य बनकर आए।
मैंने मुख्यमंत्री से व्यक्तिगत रूप से आग्रह किया कि अजीत बाबू को मिलने का समय दे दीजिए ताकि आपका पक्ष भी स्पष्ट हो सके लेकिन उन्होंने मेरी सलाह को न मानना बेहतर समझा। इस बीच पीयूसीएल के प्रभावशाली नेता राजेंद्र सायल को जबलपुर हाईकोर्ट में चल रहे किसी पुराने मामले में रायपुर में बीच सड़क पर इस अंदाज में गिरफ्तार किया गया मानों वे जेब काटकर भाग रहे हों। डॉ. विनायक सेन और अजय टीजी को न सिर्फ गिरफ्तार किया गया बल्कि उन्हें जमानत न मिल पाए इसकी हर संभव कोशिश की गई। दूसरी ओर सत्ता पक्ष का प्रहसन भी देखने में आया जब रायपुर की सड़कों पर भाजपा की ओर से सलवा जुड़ूम के समर्थन में एक मोटर साइकिल रैली निकाली गई, गोया इस नौटंकी से मामला सुलझ जाएगा।
भाजपा की पारंपरिक सोच का जिक्र ऊपर आया है। उसका एक उदाहरण हमने रमन सिंह के भाजपा के प्रदेशाध्यक्ष रहते हुए भी देखा। केंद्र की वाजपेयी सरकार ने दिनेश नंदन सहाय को छत्तीसगढ़ का पहला राज्यपाल नियुक्त किया था। वे बिहार कैडर के आला पुलिस अफसर थे। सेवानिवृत्ति के बाद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने उन्हें जदयू का प्रदेश उपाध्यक्ष बनाया था। जॉर्ज फर्नांडीज भी बिहार से लोकसभा सदस्य थे तथा श्री सहाय से उनके निकट संबंध थे। संभवत: उनकी सिफारिश पर ही यह नियुक्ति हुई थी।
नए राज्यपाल ने प्रदेश के विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति होने की हैसियत से एक दीक्षांत समारोह में नीतीश कुमार को, तो एक में अरुण जेटली को दीक्षांत भाषण देने के लिए निमंत्रित किया था व उन्हें डी लिट् की मानद उपाधि से सम्मानित भी किया था। दूसरी ओर उन्हें राज्य की कांग्रेस सरकार के साथ भी संवैधानिक दायित्व के अनुरूप संबंध निभाना था। कुल मिलाकर वे अपने पद, आयु, अनुभव का ध्यान रख सभी पक्षों के बीच संतुलन साध रहे थे। लेकिन यही बात भाजपा को नागवार गुजर रही थी। वह दिन-प्रतिदिन अपने ही राज्यपाल पर आक्रमण करने लगी व उनका तबादला त्रिपुरा करवा कर ही दम लिया। मुझे इस प्रकरण में यह बात दुखद व गरिमा के विपरीत प्रतीत हुई कि विपक्ष ने राज्यपाल की विदाई की वेला में संसदीय परंपरा के अनुसार जो प्रोटोकॉल निभाना था, उसकी अवहेलना की।
मेरे मन में प्रश्न उठता है कि ये निर्णय रमन सिंह की निजी पहल पर लिए गए या उन्हें पार्टी नेतृत्व से ऐसा ही करने के निर्देश थे! मैंने उन्हें जितना समझा है उस आधार पर दूसरी संभावना ही प्रबल लगती है। अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति जॉर्ज बुश जूनियर ने घोषित किया था कि जो हमारे साथ नहीं है वह हमारा दुश्मन है। अमेरिकी व्यवस्था में यह धारणा नई नहीं है। उनके शब्दकोश से 'तटस्थता' शब्द काफी पहले विलोपित हो चुका है। इस दर्शन को कैडर आधारित दल भाजपा ने भी काफी हद तक अंगीकार किया है। इसका संज्ञान लेते हुए तर्क दिया जा सकता है कि डॉ. रमन सिंह ने पार्टी के आदेशों का पालन करते हुए भी जहां मौका मिला अपनी स्वतंत्र पहचान कायम करने का उपक्रम किया।
गरीबी रेखा से नीचे के परिवारों को मात्र एक रुपया किलो की दर पर प्रतिमाह पैंतीस किलो चावल देने का फैसला यहां ध्यान आता है। यह कदम उनकी जनहितैषी पहचान गढ़ने के खूब काम आया। 'चांउर वाले बबा' के रूप में उनका नया नाम प्रचारित करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी गई। इस योजना की घोषणा करने के दिन किसी पत्रकार द्वारा सवाल पूछने पर मुख्यमंत्री ने सधा हुआ उत्तर दिया- गरीब परिवार को सस्ता राशन मिलेगा तो उससे जो रकम बचेगी वह बच्चों की फीस, बीमारी में दवाई जैसे आवश्यक कार्यों में काम आएगी। कुछ समय बाद योजना की व्यवहारिकता, सामाजिक ताने-बाने पर असर, क्रियान्वयन में गड़बड़ी जैसे बिंदुओं को लेकर आलोचना भी हुई लेकिन प्रथम दृष्टि में निर्णय उचित ही प्रतीत हुआ।
श्री जोगी ने मुझे राज्य वन्य जीवन संरक्षण मंडल का सदस्य मनोनीत किया था। डॉ. रमन सिंह ने पुनर्गठन किया तो मेरी सदस्यता कायम रखी। वरिष्ठ आदिवासी नेता अरविंद नेताम भी एक सदस्य थे। वे तब भाजपा में आ गए थे। मुख्यमंत्री की अध्यक्षता में जो पहली बैठक हुई उसमें संरक्षित वनों के निवासियों के पुनर्वास व राहत पर चर्चा हुई। मैंने अधिकारियों द्वारा दाखिल प्रतिवेदनों को अपर्याप्त मानते हुए सुझाव दिया कि मंडल के सदस्यों को स्वयं जाकर स्थल निरीक्षण करना चाहिए। इस पर मज लेते हुए मुख्यमंत्री ने कहा कि आपके और नेताम जी के विचार तो एक समान हैं सो इस काम के लिए आप दोनों की दो सदस्यीय कमेटी बना देते हैं। कमेटी बन गई। हमने बारनवापारा के छह तथा अचानकमार के नौ वनग्रामों का दौरा किया। ग्रामीण जनों के बीच खुली जन सुनवाईयां की।
लौटकर मुख्यमंत्री को रिपोर्ट प्रस्तुत की। मेरा मानना है कि उस रिपोर्ट पर अमल किया जाता तो वह पुनर्वास के लिए एक दृष्टांत बन जाती। खैर, हमने समय व परिश्रम का निवेश किया उसके पुरस्कार स्वरूप वन विभाग ने चतुराई दिखाते हुए मुझे मंडल की भावी बैठकों में बुलाना बंद कर दिया। मीटिंग अपराह्न तीन बजे है तो मुझे दो बजे खबर दी जा रही है। मैंने इसकी शिकायत करना उचित नहीं समझा। इतना अंदाज अवश्य हो गया कि नौकरशाही मुख्यमंत्री की भी परवाह न करने में समर्थ है। (अगले सप्ताह जारी)
यह आलेख पूर्व लिखित है। अभी कुछ सप्ताह पूर्ववत इस लेखमाला की कड़ियां प्रकाशित होगी।aksharparv@gmail.com