• चीते पर निबंध

    चीता एक राजनैतिक प्राणी है। 50 के दशक में भारत से लुप्त होने से पहले चीता भी एक जंगली, मांसाहारी और विडाल वंशी प्राणी माना जाता था

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    - सर्वमित्रा सुरजन

    चीते के आने पर शेर को ही नहीं गाय को भी अपने अस्तित्व की चिंता होने लगी है। गौमाता ने अपने कारण कई निर्दोषों के प्राण जाते देखे। मान्यता है कि गाय ने धरती का बोझ उठा रखा है। मगर अन्याय का बोझ उठाना गाय के लिए संभव नहीं होगा। और अन्याय से अधिक विश्वासघात का धक्का गायें सहन नहीं कर पाएंगी। पिछले कुछ बरसों में गायों ने देखा है कि उनके आगे इंसानी जान की कीमत कुछ नहीं रही।

    चीता एक राजनैतिक प्राणी है। 50 के दशक में भारत से लुप्त होने से पहले चीता भी एक जंगली, मांसाहारी और विडाल वंशी प्राणी माना जाता था। लेकिन जैसे मेरा देश बदल रहा है, वैसे चीते का कुल, मर्यादा और पहचान भी बदल जाए तो आश्चर्य नहीं। चीते का वैज्ञानिक नाम एसीनॉनेक्स जुबाटस होता है। बिल्ली के परिवार का यह जानवर अपने पंजों की बनावट के कारण खास स्थान रखता है। इसके पंजे बंद नहीं होते, जिस वजह से इसकी पकड़ कमजोर होती है। मगर यह सब विशेषताएं उन चीतों की हो सकती हैं, जो भारत के बाहर दूसरे देशों में हैं। भारत में अब जो आठ चीते नामीबिया से लाए गए हैं, जल्द ही उनका भी वैज्ञानिक नाम परिवर्तन हो सकता है।

    देश में पिछले कुछ सालों में कई जगहों के नाम और रूप बदले गए हैं, जिनसे देश को नयी पहचान मिली है। दावा है कि जनता को आंतरिक तौर पर नयी ताकत का अहसास हुआ है। यह सब अपनी जड़ों की ओर लौटने का सुपरिणाम है। फिर भले ही कोई शिकायत करता रहे कि देश मानव सूचकांक में नीचे हैं, कि कुपोषण और भुखमरी की मार देश में है। खैर, अब चीतों की पहचान भी उनकी जड़ों से करवाई जाएगी। उनके नए वैज्ञानिक नाम के लिए कुछ सुझाव पेश हैं। जैसे मोशानॉनेक्स लोटस, बीजेपीनेक्स कमलटस, मुमकनॉनेक्स जुमलाटस इत्यादि। नामकरण संस्कार के बाद चीतों को तुरंत ही एहसास होने लगेगा, कि न वो आए हैं, न उन्हें लाया गया है, वो मां भारती की संतान हैं और भारतमाता ने उन्हें बुलाया है।

    इसके बाद उन्हें इस देश की आबोहवा में सब चंगा सी वाला एहसास होने लगेगा। जंगल के दूसरे प्राणियों को उनका वणक्कम पहुंचेगा और वे जल्द ही सबसे गले मिलने की महान परंपरा को निभाते दिखेंगे। जब एक घाट पर शेर और बकरी के पानी पीने के किस्से सुनाए जा सकते हैं, तो फिर चीते और चीतल की मित्रता क्यों नहीं हो सकती। ऐसा होने से उन विधायकों की शिकायत भी दूर हो जाएगी, जो चीतल को चीते का भोज बनने की खबर पर परेशान हैं। इसके बाद नई नस्ल के बच्चे जिस तरह अभी मगरमच्छ के बच्चे को पकड़ कर लाने के किस्से सुनते हैं, या बुलबुल के पंखों पर मातृभूमि की सैर की गाथाएं सुनते हैं, वे कहानियां सुनेंगे कि हमारे देश में इतनी उदारता और सहिष्णुता है कि चीता और चीतल एक साथ एक जंगल में रहते हैं। हालांकि कुछ अर्बन प्राणियों को यह बात साजिश की तरह दिख सकती है जबकि सबसे बड़ी साजिश तो ये है कि ये अर्बन प्राणी टुकड़े-टुकड़े का ठप्पा लगने के बाद वे भारत को जोड़ने की यात्रा करते हैं।

    खैर, फिलहाल बात चीते की करते हैं। चीते को अब तक तेज भागते हुए ही देखा गया है। चीते की इस तेज रफ्तार को कुछ व्यापारियों और उद्योगपतियों से चुनौती मिल सकती है। क्योंकि उनके बैंक खातों में चीते की दौड़ से कहीं ज्यादा तेजी देखी गई। वैसे चीता चाहे तो योग गुरुओं की शरण में आकर जल्द ही योग का नया प्रतीक भी बन सकता है। उसके पंजे जो अब तक बंद नहीं होते हैं, और जिनकी पकड़ कमजोर मानी जाती है, यह दोष भी जल्द ही दूर हो जाएगा। नए नाम और पहचान के साथ चीतों को अपने कब्जे में आने वाली हर चीज को कसकर पकड़ना आ जाएगा। चीतों की एक खासियत ये है कि वे चाहे जितने खूंखार दिखते हों, लेकिन वे गुर्राते नहीं बल्कि बिल्ली की तरह म्याऊं-म्याऊं जैसी ध्वनि निकालते हैं।

    फर्क इतना ही है कि बिल्ली की म्याऊं थोड़ी हल्की और पतली होती है, वहीं चीते की म्याऊं में वजन और भारीपन होता है। ये फर्क वैसा ही है जैसे सत्ता के बाहर रहने और सत्ता में आ जाने के बाद नेताओं के सुर बदल जाते हैं। इसके कई नमूने देश ने देखे हैं। जैसे गैस की कीमत जिन लोगों को पहले ज्यादा लगती थी, वे वजनदार आवाज में भारी विरोध करते थे, लेकिन अब भी गैस की कीमत अधिक लगने के बावजूद उनके मुंह से विरोध की हल्की आवाज़ भी नहीं निकलती। विदेशी जंगलों का तो पता नहीं, लेकिन भारतीय राजनीति के जंगल में यह आम चलन है कि जैसे ही सत्ता बदलती है, विचारधारा और सुरों का बदलाव लक्षणीय हो जाता है। अब चीता भी नए राज्य में, नए शासक के अधीन आ गया है, और उम्मीद है कि जैसे ही भक्त संप्रदाय में चीते की दीक्षा पूरी होगी, वैसे ही वो भी दहाड़ना सीख जाएगा।

    चीता अगर दहाड़ना सीखता है तो फिर यह विषय विद्वानों के विमर्श के केंद्र में रहेगा कि चीते की दहाड़ और शेर की दहाड़ में किस तरह का फर्क महसूस किया जा सकता है। चीते की दहाड़ क्या 56 इंच के सीने और लाल आंखों वाली जांबाजी का मुकाबला कर पाएगी या फिर आभासी होगी, जो टेलीप्रॉम्प्टर के सामने होने पर ही निकलेगी, अन्यथा म्याऊं से ही चीते का काम चलता रहेगा। चीता भारत के जंगल में तो आ गया है, लेकिन इस जंगल का राजा वह बन पाएगा या नहीं, यह जंगल के प्राणियों पर निर्भर करता है। अब तक शेर को ही जंगल का राजा कहा जाता है, लेकिन चीते के आने के बाद शेर को अपने अस्त्तित्व के लिए सतर्क होना पड़ रहा है। शेर के लिए यह सतर्कता जरूरी भी है, क्योंकि हाल ही में उसके मूर्तिरूप में परिवर्तन कर यह संकेत दे दिया गया है कि आगे और बदलाव मुमकिन हैं। अब अगर शेर ने लापरवाही बरती तो न जाने क्या-क्या बदल जाएगा। शेर का नाम भारत के इतिहास से मिटा कर चीते का नया इतिहास लिखा जा सकता है।

    चीते के आने पर शेर को ही नहीं गाय को भी अपने अस्तित्व की चिंता होने लगी है। गौमाता ने अपने कारण कई निर्दोषों के प्राण जाते देखे। मान्यता है कि गाय ने धरती का बोझ उठा रखा है। मगर अन्याय का बोझ उठाना गाय के लिए संभव नहीं होगा। और अन्याय से अधिक विश्वासघात का धक्का गायें सहन नहीं कर पाएंगी। पिछले कुछ बरसों में गायों ने देखा है कि उनके आगे इंसानी जान की कीमत कुछ नहीं रही। भारत से लेकर इंग्लैंड तक गो पूजा होते देखी गई। गायों ने मान लिया था कि उनके मान-सम्मान और रक्षा के लिए सारे जतन किए जाएंगे। गायों को गुमान था कि इस देश में वृद्धा मां के पैर धोते हुए, उनके हाथ से शगुन लेते या प्रसाद खाते हुए तस्वीरें छपती हैं, तो माता का दर्जा होने के नाते उन्हें भी ऐसी इज्जत बख्शी जाएगी। लेकिन लंपी वायरस के आते ही गौमाता को उसके हाल पर मरने छोड़ दिया गया। और अब चीतों के आने के बाद गायों की बची-खुची पूछ-परख खत्म न हो, ये आशंका गायों को हो रही है।

    एक आशंका चीतों को भी है। उन्हें पता चला है कि 2009 में उनके कुछ भाई-बंधु गुजरात पहुंचे थे। लेकिन अब उनकी कोई जानकारी नहीं है कि वो कहां हैं, किस हाल में हैं। चीतों ने गुजरात मॉडल के बारे में तो सुन ही रखा है। लेकिन फिलहाल वे अजब-गजब मध्यप्रदेश में हैं। उन्हें अपने अच्छे दिनों का इंतजार करना चाहिए।

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