- डॉ. हनुमन्त यादव
छत्तीसगढ़ राज्य के गठन के बाद लगभग हर पांच साल में नक्सली रणनीति बनाकर ऐसी घटनाओं को अंजाम देते आए हैं जिसमें दर्जनों जवान मारे जाते रहे हैं। सदैव ही जवानों को श्रद्धांजलि देते समय छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री और गृहमंत्री अपने बयानों में दोषियों को कड़ी सजा देने और नक्सलवाद समाप्त करने की बात करते रहे हैं, किन्तु नक्सली बदस्तूर सुरक्षा जवानों की हत्याएं करते रहे हैं ।
3 अप्रैल से 8 अप्रैल तक छत्तीसगढ़ के बस्तर संभाग के बीजापुर जिला के तर्रेम क्षेत्र में नक्सलियों द्वारा खोजी संयुक्त सुरक्षा बलों पर घात लगा कर किए गए हमले में 22 जवानों के शहीद होने के समाचार राष्ट्रीय समाचार माध्यमों में सुर्खियों में बने रहे। शनिवार 3 अप्रैल को यू.जी.एन.एल., रॉकेट लांचर, इंसास व ए.के-47 सरीखे आधुनिक आयुधों से लैस नक्सलियों के हमले में सुरक्षा बलों के 22 जवान शहीद हुए और 30 जवान घायल हुए। कोबरा कमांडों बटालियन के एक जवान राकेश्वर सिंह मन्हास का शव नहीं मिलने के कारण उसे लापता बताया गया था। नक्सलियों ने हमले में सुरक्षा बलों के हथियार, गोला-बारूद, वर्दी और मारे गए सुरक्षा बलों के जूते तक लूट लिए। नक्सलियों की खोज के लिए संयुक्त सुरक्षा अभियान में सी.आर.पी.एफ. की बस्तरिया बटालियन, डी.आर.जी., सी.एफ., एस.टी.एफ, और कोबरा बटालियन शामिल थी। शहीद हुए 22 जवानों में 8 जवान कोबरा कमांडो बल के थे।
4 अप्रैल को केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह द्वारा नक्सलियों से निपटने के लिए रणनीति तैयार करने के लिए प्रात: दिल्ली में अपने निवास पर शीर्ष सुरक्षा अधिकारियों के साथ बैठक, दोपहर को जगदलपुर में राज्य के उच्च सुरक्षा अधिकारियों के साथ बैठक तथा बीजापुर में जवानों को श्रद्धाजंलि देने का समाचार राष्ट्रीय समाचार माध्यमों में दिन भर छाया रहा। बीजापुर में जवानों को श्रद्धाजंलि अर्पण कार्यक्रम में केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह के साथ राज्य के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल भी मौजूद थे। 5 अप्रैल को पीएलजीए की दण्डकारण्य स्पेशल झोन कमेटी ने एक पर्चा जारी करके उसमें कोबरा कमांडो बटालियन के तथाकथित लापता जवान राकेश्वर सिंह मन्हास को बंधक बनाए जाने की बात स्वीकारते हुए उसको छोड़ने के लिए कुछ शर्तें रखीं। नक्सलियों ने इसके लिए एक मध्यस्थता समिति बनाने की बात कही। छत्तीसगढ़ सरकार ने कोबरा कमांडो जवान राकेश्वर सिंह को छुड़ाने के लिए नक्सलियों की शर्त मानकर उनकी इच्छानुसार मध्यस्थता समिति का गठन कर दिया।
बस्तर के सामाजिक कार्यकर्ता पद्मश्री धरमपाल सैनी इस 11 सदस्यीय मध्यस्थता समिति के अध्यक्ष थे एवं गोंडवाना समाज के अध्यक्ष तेलम बेरिया, सात पत्रकार और छत्तीसगढ़ शासन के दो अधिकारी सदस्य के रूप में शामिल थे। मध्यस्थता समिति के अध्यक्ष एवं बीजापुर के पत्रकारों के अनुसार कमांडो जवान राकेश्वर सिंह मन्हास को नक्सलियों ने जन अदालत के माध्यम से बिना शर्त रिहा किया है। नक्सलियों ने मध्यस्थता समिति के अध्यक्ष एवं सदस्यों को 7 अप्रैल को सूचित किया कि वे तर्रेम से 10 कि.मी. की दूरी पर उस क्षेत्र के 20 गांवों के ग्रामीणों की जन अदालत लगा रहे हैं, उसी जन अदालत में राकेश्वर सिंह को मध्यस्थता समिति को सौंपा जायेगा। नक्सलियों ने मध्यस्थता समिति को आगाह कर दिया था कि यदि आसपास सुरक्षा बलों की मौजूदगी हुई तो जवान को नहीं सौंपा जायेगा। जन अदालत में लगभग 3000 ग्रामीण मौजूद थे। जन अदालत में काफी बहस के बाद नक्सलियों द्वारा बांधे गए राकेश्वर सिंह को मध्यस्थता समिति के अध्यक्ष धरमपाल सैनी को सौंपने का निर्णय लिया गया।
मैंने वर्ष 1978 से वर्ष 1984 के 7 वर्षों में दक्षिण बस्तर की 5 प्रमुख जनजातियों की कृषि एवं लघु वनोपज आधारित जीवन शैली के 3 प्रक्षेत्र अध्ययन किए थे। इसके लिए उन जनजातियों के बहुल क्षेत्रों से प्राथमिक समंक एकत्रित किए गए थे। इस संबंध में बस्तर के जिला प्रशासन अधिकारियों का अपेक्षित सहयोग मिला था। उन्होंने ग्रामीणों से साक्षात्कार करने हेतु पटवारी की सेवाएं एवं थानागुडी में ठहरने की सुविधाएं उपलब्ध कराई गई थी। दक्षिण बस्तर के सभी विकास ख्ंाडों के ग्रामों के ग्रामीणों से बातचीत में जब भी नक्सलियों का जिक्र आता था, ग्रामीण बड़े आदर भाव से उनका जिक्र करते थे। वे सबसे अधिक नक्सलियों की जन अदालत की प्रशंसा करते थे, जिसमें नक्सली ग्रामीणों से मौखिक शिकायत प्राप्त होते ही नक्सली आनन फानन में जांच-पड़ताल कर उसी दिन या अगले दिन जन अदालत में न केवल निर्णय सुना दिया जाता था बल्कि दोषी व्यक्ति को उसी दिन सजा भी दे दी जाती थी। नक्सलियों के कानून में सरकारी मुखबिरी की सजा मौत मानी गई है।
नक्सलियों का दावा है कि दक्षिण बस्तर के जनजाति बहुल ग्रामों के ग्रामीण उनकी जन अदालत के माध्यम से त्वरित न्याय दिलाने और वनवासियों के शोषण से मुक्ति दिलाने के लिए चलाए गए अभियान के कारण आदरभाव से उनकी पूजा करते हैं। पूंजीपतियों द्वारा बस्तर में उद्योग लगाने और सरकार द्वारा चौड़ी पक्की सड़कें बिछाने से दूसरे राज्यों के गैरआदिवासी व्यवसायियों एवं ठेकेदारों द्वारा बस्तर के ग्रामीणों के शेाषण का द्वार खुलकर मजबूत हो जाएगा इसलिए वे इसका विरोध करते हैं। इसीलिए पहले वे जन अदालत से आदेश प्राप्त करके सरकारी ग्राम पंचायतों द्वारा आयोजित ग्राम सभाओं में उद्योगों और सड़क आदि विकास योजनाओं के विरूद्ध प्रस्ताव पारित करके जन आन्दोलन प्रेरित कर समर्थन देते हैं। सवाल उठता है कि यदि नक्सलवादी बीजापुर, सुकमा और दंतेवाड़ा आदि जिलों में इतने अधिक लोकप्रिय हैं तो वे यदि इन जिलों की विधानसभा, जिला पंचायत, जनपद पंचायत व ग्राम पंचायत के चुनाव में खड़े होते हैं तो भारी बहुमत से विजयी हो सकते हैं। वे ग्राम स्वराज निकायों पर काबिज होकर अपने मन माफिक नीतियां बनवा सकते हैं, योजनाओं को क्रियान्वयन करके भ्रष्टाचार एवं लाल फीताशाही समाप्त कर सकते हैं।
दरअसल बस्तर में साम्यवादी दल एम.एल. की जनमुक्ति गुरिल्ला सेना को ही नक्सलवादी कहा जाता है। वर्तमान में इसके क्षेत्रीय कमांडर माडवी हिड़मा है। इस गुरिल्ला सेना के कार्यक्षेत्र में संवैधानिक लोकतांत्रिक संस्थाओं के चुनाव आते ही नहीं हैं। छत्तीसगढ़ राज्य के गठन के बाद लगभग हर पांच साल में नक्सली रणनीति बनाकर ऐसी घटनाओं को अंजाम देते आए हैं जिसमें दर्जनों जवान मारे जाते रहे हैं। सदैव ही जवानों को श्रद्धांजलि देते समय छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री और गृहमंत्री अपने बयानों में दोषियों को कड़ी सजा देने और नक्सलवाद समाप्त करने की बात करते रहे हैं, किन्तु नक्सली बदस्तूर सुरक्षा जवानों की हत्याएं करते रहे हैं । मध्यस्थता होने पर जवानों को छोड़ने के बदले व्यवहार में कुछ चुनिंदा नक्सलियों की रिहाई करनी पड़ती है। अभी जो स्थिति है उसके अनुसार छत्तीसगढ़ में नक्सली कमजोर नहीं हुए हैं वे आगे आगे आने वाले दिनों में भी आधुनिक हथियारों से लैस सुरक्षा बलों पर हमला करके अपनी शक्ति का अहसास कराते रहेगें। इसका एक कारण यह भी है कि जगदलपुर से लेकर दिल्ली तक कार्यरत सिविल सोसाइटी संगठनों का नक्सलियों को नैतिक समर्थन है।