- एल. एस. हरदेनिया
आजादी के संघर्ष के दौरान जिसे ब्रिटिश राज कहते थे, वहां संघर्ष का नेतृत्व कांग्रेस के हाथ में था और राजे-रजवाड़ों में आजादी के आंदोलन का नेतृत्व प्रजामंडल के हाथ में था। प्रजामंडल के अध्यक्ष जवाहरलाल नेहरू थे। शेख अब्दुल्ला इसके एक प्रमुख नेता थे। प्रजामंडल के आदर्श और सिद्धांत वही थे जो कांग्रेस के थे।
भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ समेत कई व्यक्ति व संगठन जवाहरलाल नेहरू को कश्मीर समस्या के लिए जिम्मेदार मानते हैं। परंतु इसके विपरीत पूरे विश्वास से यह दावा किया जा सकता है कि यदि जवाहरलाल नेहरू और शेख अब्दुल्ला नहीं होते तो जम्मू-कश्मीर भारत का हिस्सा नहीं बन पाता। भारत को आजादी देने के लिए ब्रिटिश संसद ने जो कानून बनाया था उसके अनुसार इंडिया को दो राष्ट्रों में विभाजित किया जाना था। भारत की सभी रियासतों को तीन विकल्प दिए गए थे। वे चाहें तो भारत या पाकिस्तान में शामिल हों सकते थे या आजाद भी रह सकते थे। उन्हें यह फैसला दोनों राष्ट्रों के बनने के पहले लेना था। फैसला लेने का अधिकार संबंधित रियासत के राजा-नवाब को दिया गया था।
बहुसंख्यक रियासतों के शासकों ने सन् 1947 के अगस्त माह के पहले ही निर्णय ले लिया था। परंतु कुछ राज्यों ने, जिनमें कश्मीर, हैदराबाद व भोपाल शामिल थे, भारत या पाकिस्तान में शामिल होने का निर्णय न लेते हुए यह स्पष्ट कर दिया था कि वे आजाद रहना चाहेंगे। कश्मीर के राजा हरिसिंह ने घोषणा कर दी कि वे कश्मीर को एशिया का स्विट्जरलैंड बनाना चाहेंगे। उन्होंने पाकिस्तान से एक समझौता कर यह गारंटी ले ली कि वह हरिसिंह के निर्णय का साथ देगा।
परंतु इन रियासतों की जनता भारत में शामिल होना चाहती थी। उस दौरान शेख अब्दुल्ला जम्मू व कश्मीर के सर्वमान्य नेता थे। वे चाहते थे कि कश्मीर का विलय भारत में हो। उनके इस निर्णय के पीछे उनके वे सिद्धांत व आदर्श थे जिनमें उनकी गहरी आस्था थी। आजादी के संघर्ष के दौरान जिसे ब्रिटिश राज कहते थे, वहां संघर्ष का नेतृत्व कांग्रेस के हाथ में था और राजे-रजवाड़ों में आजादी के आंदोलन का नेतृत्व प्रजामंडल के हाथ में था। प्रजामंडल के अध्यक्ष जवाहरलाल नेहरू थे। शेख अब्दुल्ला इसके एक प्रमुख नेता थे। प्रजामंडल के आदर्श और सिद्धांत वही थे जो कांग्रेस के थे अर्थात धर्मनिरपेक्षता, समाजवाद, भूमि सुधार, संसदीय प्रजातंत्र इत्यादि। इसके अतिरिक्त शेख अब्दुल्ला नेहरू को अपना नेता मानते थे।
शेख अब्दुल्ला के कारण जिन्ना और उनकी मुस्लिम लीग कश्मीर में अपनी जड़ें नहीं जमा पाई थी। जब जिन्ना ने सारे देश के मुसलमानों से डायरेक्ट एक्शन का आह्वान किया था तब मुस्लिम बहुसंख्यक क्षेत्र होने के बावजूद कश्मीर में जिन्ना और लीग को जीरो रिस्पांस मिला।
जब सारा भारत आजाद हुआ तबतक कश्मीर के राजा हरिंसिंह यह निर्णय नहीं ले पाए थे कि वे अपनी रियासत का विलय भारत या पाकिस्तान में करेंगे। इस स्थिति का लाभ उठाते हुए पाकिस्तान ने कश्मीर मेंअपनी फौज भेज दी। लेकिन ये फौजी आदिवासियों (कबाईलियों) की वेशभूषा में थे। कश्मीर में कोई भी इन आक्रमणकारियों का मुकाबला करने में सक्षम नहीं था। जब पाकिस्तानी फौज श्रीनगर से चन्द मील दूर रह गई तब हरिसिंह श्रीनगर छोड़कर भाग गए और उन्होंने जम्मू में शरण ले ली। इस दरम्यान उन्होंने भारत से सहायता मांगी। भारत में उस समय तक अंग्रेजों का शासन था और माउंटबेटन वाईसराय थे।
माउंटबेटन ने शर्त रखी कि वे तभी सहायता करेंगे जब हरिसिंह भारत में कश्मीर के विलय के दस्तावेज पर हस्ताक्षर कर देंगे। घबराये हुए हरिसिंह को बताया गया कि व्ही. पी. मेनन विलय के दस्तावेज लेकर आ रहे हैं। हरिसिंह ने अपने एडीसी से कहा कि मेरे तकिए के नीचे पिस्तौल रखी है। यदि तीन बजे तक मेनन नहीं आए तो मेरी पिस्तौल से ही मेरी हत्या कर देना। समय रहते मेनन आ गए और विलय के दस्तावेज पर हरिसिंह के हस्ताक्षर करवा लिए गए। विलय जिन शर्तों पर किया गया था, उन्होंने ही आगे चलकर धारा-370 का रूप लिया।
यह आरोप भी लगाया जाता है कि शेख की शह पर पाक फौज जीपों व ट्रकों पर सवार होकर कश्मीर में चढ़ी चली आई। यह आरोप पूरी तरह से बेबुनियाद है। यदि इस आरोप में कोई दम है तो शेख बहुत आसानी से कश्मीर पाकिस्तान को सौंप सकते थे। परंतु ऐसा नहीं था क्योंकि शेख ने कश्मीर की जनता को अपने विचारों में ढाल लिया था। इस हमले की निंदा करते हुए कश्मीर के सर्वमान्य नेता शेख अब्दुल्ला ने कहा कि ये हमलावर हथियारों से सुसज्जित थे। इन हमलावरों ने भयानक तबाही मचाई। लोगों को लूटा, महिलाओं के साथ बदसलूकी की। ये अपराधी थे जिन्हें कुछ लोगों ने कश्मीर को आजाद कराने वाला शहीद बताया। इन्होंने बच्चों को मारा और कुरान तक का अपमान किया। ब्रिटेन के अप्रत्यक्ष समर्थन से हुए पठानों के इस हमले से भी जब कश्मीर को पाकिस्तान में नहीं मिलाया जा सका तो जनमत संग्रह की बात की जाने लगी। परंतु माउंटबेटन को लगा कि यदि उस कश्मीर में जनमत संग्रह होगा जिसका विलय भारत में हो चुका है तो उसका नतीजा भारत के हक में ही होगा।
भारत के विभाजन के पूर्व ब्रिटेन के आखिरी वायसराय और गर्वनर जनरल लार्ड माउंटबेटन ने पूरा प्रयास किया कि कश्मीर पाकिस्तान में शामिल हो जाए। जैसा कि ऊपर जिक्र किया गया है, इस बीच कश्मीर के महाराजा हरिसिंह ने यह घोषणा कर दी कि वे कश्मीर को एक स्वतंत्र देश बनाकर उसे एशिया का स्विट्जरलैंड बनाना चाहेंगे। इसी बीच ब्रिटेन की जानकारी के चलते पाकिस्तान ने कश्मीर पर हमला कर दिया। हमला फौज ने नहीं बल्कि कबीलाई पठानों ने किया। इसके बाद माउंटबेटन लाहौर गए और वहां उन्होंने जिन्ना से मुलाकात की। जिन्ना ने सुझाव दिया कि दोनों देशों की सेनाओं को कश्मीर से हट जाना चाहिए। इस पर माउंटबेटन ने पूछा कि आक्रमणकारी पठानों को वहां से कैसे हटाया जाएगा। इसपर जिन्ना ने कहा कि यदि आप उन्हें हटाएंगे तो समझो कि अब किसी भी प्रकार की बात नहीं होगी। यहां यह उल्लेखनीय है कि भारत के विभाजन के पहले जिन्ना कश्मीर गए थे। वहां उन्होंने यह कोशिश की थी कि कश्मीर के मुसलमान उनका साथ दें। परंतु कश्मीर के मुसलमानों ने स्पष्ट कर दिया कि वे भारत के आजादी के आंदोलन के साथ हैं तथा दो राष्ट्रों के सिद्धांत के विरोधी हैं।
लाहौर से वापस आने पर माउंटबेटन ने सुझाव दिया कि सारा मामला संयुक्त राष्ट्र संघ को सौंप दिया जाए। 1 जनवरी 1948 को सारा मामला संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद को सौंप दिया गया। जैसे ही मामला सुरक्षा परिषद को सौंपा गया ब्रिटेन ने भारत के विरूद्ध बोलना प्रारंभ कर दिया। इस बीच ब्रिटेन व अमेरिका ने भारत की हमले की शिकायत को भारत-पाकिस्तान के बीच विवाद का रूप दे दिया। सुरक्षा परिषद की बैठक में ब्रिटेन ने भारत की तीव्र शब्दों में निंदा की। इस बीच ब्रिटेन ने भारत पर युद्धविराम का प्रस्ताव मंजूर करने का दबाव बनाया। ऐसा उस समय किया गया जब भारतीय सेना आक्रमणकारियों को पूरी तरह से खदेड़ने की स्थिति में थी। परंतु ब्रिटेन व अमेरिका जानते थे कि यदि भारत ने आक्रमणकारियों को खदेड़ दिया तो कश्मीर की समस्या सदा के लिए समाप्त हो जाएगी। इसलिए उन्होंने जबरदस्त दबाव बनाकर युद्धविराम करवा दिया।
युद्धविराम का नतीजा यह हुआ कि कश्मीर का एक हिस्सा पाकिस्तान के कब्जे में बना रहा। इस बीच जनमत संग्रह का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया गया। परंतु उसके साथ यह शर्त रखी गई कि पाकिस्तान कश्मीर से अपनी सेना हटा लेगा। इसके साथ ही यह शर्त भी रखी गई कि पाकिस्तान उन कबीलाईयों और पाकिस्तान के उन नागरिकों को वहां से हटाने का प्रयास करेगा जो वहां पाकिस्तान की ओर से युद्ध कर रहे थे। पाकिस्तान ने इस प्रस्ताव को स्वीकार तो कर लिया परंतु ब्रिटेन व अमेरिका ने पाकिस्तान पर इसपर अमल करने के लिए दबाव नहीं बनाया। इसका कारण यह था कि ये दोनों देश जानते थे कि यदि पाकिस्तान द्वारा कश्मीर से अपनी फौज हटा ली जाएगी तो वहां होने वाले जनमत संग्रह के नतीजे भारत के पक्ष में होंगे।
जब यह स्पष्ट हो गया कि जनमत संग्रह के माध्यम से ब्रिटेन व अमेरिका कश्मीर पर अप्रत्यक्ष रूप से अपना दबदबा नहीं रख पाएंगे तो उन्होंने एक नई चाल चली। दोनों देशों ने सुझाव दिया कि कश्मीर के मामले का हल मध्यस्थता के माध्यम से निकाला जाए। इस संबंध में ब्रिटेन के प्रधानमंत्री क्लीमेंट एटली और अमेरिका के राष्ट्रपति हैरी टू्रमेन ने औपचारिक प्रस्ताव भेजा। दोनों देशों ने नेहरूजी पर इतना दबाव बनाया कि उन्हें सार्वजनिक रूप से अपनी असहमति जाहिर करनी पड़ी।
नेहरू ने यह आरोप लगाया कि ये दोनों देश समस्या को सुलझाना नहीं चाहते बल्कि अपने कुछ छिपे इरादों को पूरा करना चाहते हैं। बाद में यह भी पता लगा कि मध्यस्थता के माध्यम से ब्रिटेन और अमेरिका कश्मीर में विदेशी सेना भेजना चाहते थे। इस मामले की गंभीरता को समझते हुए सोवियत संघ ने अपना दृष्टिकोण स्पष्ट करना आवयश्यक समझा। सन् 1952 के प्रारंभ में सुरक्षा परिषद को संबोधित करते हुए सोवियत संघ के प्रतिनिधि याकोव मौलिक ने कहा कि पिछले चार वर्षों से कश्मीर की समस्या इसलिए हल नहीं हो पा रही है क्योंकि ब्रिटेन व अमेरिका अपने साम्राज्यवादी इरादों को पूरा करने के लिए कश्मीर को अपने कब्जे में रखना चाहते हैं, इसलिए संयुक्त राष्ट्रसंघ के माध्यम से ऐसे प्रस्ताव रख रहे हैं जिनसे कश्मीर इनका फौजी अड्डा बन जाए। इसके बाद सोवियत संघ ने ब्रिटेन और अमेरिका के उन प्रस्तावों को वीटो का उपयोग करते हुए निरस्त करवा दिया जिनके माध्यम से ये दोनों देश कश्मीर को अपना उपनिवेश बनाना चाहते थे। (शेष कल के अंक में)