- एल. एस. हरदेनिया
जहां नेहरू को अंतरराष्ट्रीय दबाव का सामना करना पड़ रहा था वहीं देश के भीतर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, हिन्दू महासभा आदि संगठनों ने धारा-370 के विरूद्ध आंदोलन छेड़ दिया। जम्मू में आंदोलन ने व्यापक रूप ले लिया। आंदोलन का नारा था-'दो विधान, दो प्रधान, दो निशान नहीं चलेंगे'। दिल्ली में भी आंदोलन ने उग्र रूप धारण कर लिया। नेहरू और शेख दोनों आंदोलनकारियों के निशाने पर थे। आंदोलन का नेतृत्व डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी कर रहे थे।
(पिछले अंक का शेष)
सन् 1957 में पुन: सुरक्षा परिषद में कश्मीर के प्रश्न पर एक लंबी बहस हुई। बहस में भाग लेते हुए सोवियत प्रतिनिधि ए ए सोवोलेव ने दावा किया कि कश्मीर की समस्या बहुत पहले अंतिम रूप से हल हो चुकी है। समस्या का हल वहां की जनता ने निकाल लिया है और तय कर लिया है कि कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है।
इस बीच अनेक ऐसे मौके आए जब जवाहरलाल नेहरू ने कड़े शब्दों में ब्रिटेन व अमेरिका की निंदा की। इस दरम्यान अमेरिका ने पाकिस्तान को भारी भरकम सैन्य सहायता देना प्रारंभ कर दिया। नेहरू ने बार-बार कहा कि वे किसी हालत में इन साम्राज्यवादी ताकतों के दबाव में नहीं आएंगे न अगले वर्ष और ना ही भविष्य में कभी।
इस बीच एक ऐसी घटना हुई जिसकी कल्पना कम से कम जवाहरलाल नेहरू ने नहीं की थी। वर्ष 1962 के अक्टूबर में चीन ने भारत पर हमला कर दिया। चीनी हमले के बाद अमेरिका व ब्रिटेन ने भारत को नाम मात्र की ही सहायता दी और वह भी इस शर्त के साथ कि भारत कश्मीर समस्या हल कर ले। अमेरिका के सवेरोल हैरीमेन और ब्रिटेन के डनकन सेन्डर्स दिल्ली आए। दिल्ली प्रवास के दौरान उन्होंने चीनी हमले की चर्चा कम की और कश्मीर की ज्यादा। भारत की मुसीबत का लाभ उठाते हुए अमेरिका ने मांग की कि भारत में वाइस ऑफ अमेरिका का ट्रांसमीटर स्थापित करने की अनुमति दी जाए और सोवियत संघ से की गई संधि को तोड़ दिया जाए।
कुल मिलाकर अमेरिका और ब्रिटेन ने कश्मीर के प्रश्न पर भारत का साथ न देकर पाकिस्तान का साथ दिया। अमेरिका व ब्रिटेन प्रजातांत्रिक देश हैं परंतु अपने संकुचित स्वार्थों की खातिर इन दोनों देशों ने दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत का साथ न देकर एक तानाशाही देश का साथ दिया। यदि ये दोनों देश भारत का साथ देते तो कश्मीर की समस्या कब की हल हो गई होती।
सारी दिक्कतों और कमजोरियों के बाद भी नेहरू अमेरिका व ब्रिटेन के सामने नहीं झुके। नेहरू की दृढ़ता की अटल बिहारी वाजपेयी ने भी भूरि-भूरि प्रशंसा की थी। नेहरूजी की मृत्यु के बाद वाजपेयी ने एक अत्यंत भावनाओं से ओतप्रोत भाषण दिया था। नेहरू की दृढ़ता का उल्लेख करते हुए वाजपेयी ने कहा था-
'मुझे याद है चीनी आक्रमण के दिनों में जब हमारे पश्चिमी मित्र इस बात का प्रयत्न कर रहे थे कि हम कश्मीर के प्रश्न पर पाकिस्तान से कोई समझौता कर लें तब एक दिन मैंने नेहरूजी को बड़ा क्रुद्ध पाया। जब उनसे कहा गया कि कश्मीर के प्रश्न पर समझौता नहीं होगा तो हमें दो मोर्चों पर लड़ना पड़ेगा तो वे बिगड़ गए और कहने लगे कि अगर आवश्यकता पड़ेगी तो हम दोनों मोर्चों पर लड़ेंगे। वे किसी दबाव में आकर बातचीत करने के खिलाफ थे। पाकिस्तान और चीन के प्रति उनकी नीति इसी अद्भुत सम्मिश्रण का प्रतीक थी। उसमें उदारता भी थी और दृढ़ता भी थी। यह दुर्भाग्य है कि इस उदारता को दुर्बलता समझा गया जबकि कुछ लोगों ने उनकी दृढ़ता को हठवादिता समझा।'
बार-बार यह बात कही जाती है कि यदि पटेल के हाथ में कश्मीर का मसला होता तो स्थिति कुछ और होती। कश्मीर का मसला सुरक्षा परिषद में जाने के बाद नेहरू को उसे अपने हाथ में लेना पड़ा। उसके पहले तक पटेल इसमें पूरी दिलचस्पी ले रहे थे। पटेल के कई बार बुलाने के बाद भी हरिसिंह दिल्ली नहीं आए। जब वे दिल्ली नहीं आए तो पटेल ने संदेश भेजा कि मैं स्वयं वहां आता हूं। इस पर हरिसिंह ने कहा कि यदि आप श्रीनगर आए तो मैं आपको गिरफ्तार कर लूंगा। इसपर नेहरू ने कहा कि मैं आता हूं। इसपर हरिसिंह ने कहा कि 'मैं आपको गिरफ्तार कर लूंगा'। तब पटेल ने माउंटबेटन से कहा कि अभी तो आप ही कश्मीर के मालिक हैं। इसपर माउंटबेटन ने पूछा कि मैं हरिसिंह से क्या कहूं। इसपर पटेल ने कहा कि आप हरिसिंह से कहें कि यदि वह भारत में शामिल नहीं होना चाहते तो पाकिस्तान में शामिल हो जाएं। आजाद होने का सपना न देखें। यदि आप आजाद रहोगे तो सबको तकलीफ होगी। पर हरिसिंह नहीं माने। इसके बाद पाकिस्तान ने हमला कर दिया। विलय के बाद पाकिस्तानी हमले का मुकाबला करने की जो तैयारी की गई उसमें पटेल का पूरा सहयोग रहा।
तैयारी के दौरान पटेल और नेहरू की जो बातचीत हुई उसे एक पुस्तक 'लिबर्टी अपडेट' में उद्धत किया गया है। पटेल ने पाकिस्तानी हमलावरों को खदेड़ने की जिम्मेदारी अपने हाथ में ले ली। डिफेन्स मीटिंग में पटेल ने महसूस किया कि नेहरू अभी तक कुछ तय नहीं कर पाए हैं। पटेल ने जरा गुस्से भरे स्वर में कहा, 'जवाहरलाल तुम कश्मीर को बचाना चाहते हो या नहीं'। नेहरू ने कहा कि, 'मैं हर हालत में कश्मीर चाहता हूं। कश्मीर तो मेरे सीने पर लिखा है'। इसपर सरदार ने सेना के अधिकारियों से कहा, 'देखो अब प्रधानमंत्री का आदेश हो गया है'। इसके बाद पटेल ने आल इंडिया रेडियो के माध्यम से सभी निजी विमान कंपनियों से कहा कि वे अपने हवाई जहाज शीघ्र भेजें। इसके बाद सैनिकों और हथियारों से लदे हवाई जहाज श्रीनगर के लिए रवाना कर दिए गए।
गांधीजी ने कश्मीर में भारतीय सैन्य हस्तक्षेप को उचित ठहराते हुए कहा कि बर्बर घुसपैठियों से कश्मीर की निहत्थी जनता की रक्षा करने के लिए यह आवश्यक है।
16 मार्च 1950 को लिखे गए एक पत्र में सरदार पटेल लिखते हैं, ष्भ्वूमअमतऐं लवन लिए जीम ज्ञेंीउपत चतवइसमउ बंद वदसल इम ेवसअमक चमंबमनिससल जव चंतजपंस कपेेंजपेंिबजपवद व इिवजी पकमेण् ॅम वद वनत चंतज तमंसपेम पज इनज ं तमबवहदपजपवद व जीपे जव बवउम तिवउ वजीमत पकमण्ष् इसी तरह 25 फरवरी 1950 को पटेल नेहरु को संबोधित करते हुए पत्र में लिखते हैं, 'लवन अम चवपदजमक जीम ुनमेजपवद व ज्ञेंीउपत पे इमवितम जीम ेमबनतपजल बवनदबपसण् भ्ंअपदह पदअवामक वितनउ व मजजसमउमदज वचमद जव इवजी प्दकपं दक च्ंापेजंद उमउइमत व िजीम न्दपजमक छंजपवदे व्तहंदपेंजपवदए दवजीपदह नितजीमत दममक इम कवदम पद जीम ल मजजसमउमदज व कपेचनजमेष्ण् - यह पत्र इस बात का प्रतीक है कि यूएन को कश्मीर का मामला सबकी सहमति से लिया गया था। जहां नेहरू को अंतरराष्ट्रीय दबाव का सामना करना पड़ रहा था वहीं देश के भीतर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, हिन्दू महासभा आदि संगठनों ने धारा-370 के विरूद्ध आंदोलन छेड़ दिया। जम्मू में आंदोलन ने व्यापक रूप ले लिया।
आंदोलन का नारा था-'दो विधान, दो प्रधान, दो निशान नहीं चलेंगे'। दिल्ली में भी आंदोलन ने उग्र रूप धारण कर लिया। नेहरू और शेख दोनों आंदोलनकारियों के निशाने पर थे। आंदोलन का नेतृत्व डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी कर रहे थे। डॉ मुखर्जी नेहरूजी के नेतृत्व वाली अंतरिम मंत्रिपरिषद के सदस्य रह चुके थे, जिसने कश्मीर की समस्या के संबंध में प्रारंभिक नीति बनाई थी। डॉ मुखर्जी हिन्दू महासभा के नेता थे। बाद में उनके नेतृत्व में जनसंघ की स्थापना हुई। डॉ मुखर्जी आंदोलन के दौरान कश्मीर गए जहां उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। जेल में वे बीमार हो गए और जेल में ही उनकी मृत्यु हो गई। सेना के विमान से उनका शव कलकत्ता ले जाया गया जहां विशाल जनसमूह ने उन्हें अंतिम विदाई दी।
हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि यह सारा घटनाक्रम भारत के आजाद होने के काल का है। नवस्वतंत्र भारत उस समय भयानक साम्प्रदायिक दंगों, करोड़ों शरणार्थियों के आगमन, सत्ता हस्तांतरण, कश्मीर के अलावा अन्य कई रियासतों के भारत में विलय और कई अन्य जटिल समस्याओं से जूझ रहा था। उसी दौरान भारतीय संविधान भी तैयार हो रहा था। इसी बीच गांधीजी की हत्या की विपत्ति ने भी दुनिया को हिला दिया। ऐसे चुनौतीपूर्ण समय में हिमालय जैसी समस्याओं का मुकाबला करते हुए यदि कश्मीर के मामले में नेहरूजी ने कोई छोटा-मोटा गलत निर्णय ले लिया हो या कोई निर्णय लेने में देर कर दी हो तो उसे उदारतापूर्वक नजरअंदाज किया जाना चाहिए।
इसी बीच कश्मीर में शेख के खिलाफ षड़यंत्र प्रारंभ हो गए। यह बात जोर-शोर से फैलाई जाने लगी कि शेख कश्मीर को स्वतंत्र देश घोषित करने वाले हैं। इस तरह की अफवाहें उन्हीं की पार्टी के कुछ लोग फैला रहे थे। इस बीच शेख की एक प्रमुख अमरीकी नेता से मुलाकात हुई। इन्हीं अफवाहों के बीच तत्कालीन सदर-ए-रियासत युवराज कर्णसिंह ने आधी रात को पहले शेख को प्रधानमंत्री के पद से बर्खास्त किया और थोड़े समय बाद उन्हें गिरफ्तार करवा दिया। कई किताबों में लिखा गया है कि शेख की गिरफ्तारी नेहरूजी को बताए बिना की गई थी। शेख को हटाने के बाद बख्शी गुलाम मोहम्मद को कश्मीर का प्रधानमंत्री बनाया गया। बख्शी के शासनकाल में कश्मीर में भ्रष्टाचार चरम पर पहुंच गया। उस समय कश्मीर में बख्शी के शासन को बीबीसी अर्थात 'बख्शी ब्रदर्स करप्शन' कहा जाता था।
प्रसिद्ध इतिहासकार रामचन्द्र गुहा अपनी पुस्तक 'इंडिया आफ्टर गांधी' में लिखते हैं-'प्रारंभ में हरिसिंह की अनिश्चितता की स्थिति से कश्मीर के हालात बिगड़े और बाद में शेख तथाकथित महत्वाकांक्षा और डॉ. मुखर्जी के अपरिपक्वएवं अदूरदर्शी आंदोलन ने कश्मीर में अराजकता की स्थिति पैदा कर दी। एक अंग्रेज फौजी अफसर जो शेख और बख्शी दोनों से परिचित थे, ने लिखा था कि 'शेख कश्मीर और कश्मीर की जनता से बेहद ईमानदारी से बेइंतहा मोहब्बत करते थे। वहीं बख्शी एक बेईमान और अक्षम व्यक्ति थे।' गुहा एक पत्रकार की राय का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि मुखर्जी की यह मांग कि युद्ध छेड़कर कश्मीर का वह क्षेत्र वापिस ले लेना चाहिए लगभग असंभव मांग थी। ऐसा प्रयास होता तो उसका अर्थ विश्व युद्ध होता। कुल मिलाकर कुछ गंभीर गैर-जिम्मेदाराना हरकतों के कारण, कश्मीर जिसे धरती पर स्वर्ग कहते थेए नर्क में तब्दील हो गया।
जब जगमोहन वहां के राज्यपाल थे उस दौरान मुझे कश्मीर जाने का मौका मिला था। उसके बाद भी मैं एक-दो बार कश्मीर गया। उस दौरान मैंने वहां के युवकों से बातचीत की। मैंने उनसे जानना चाहा कि वे भारत से क्यों नाराज हैं' उनका कहना था कि 'आपने हमारे सबसे बड़े नेता पर भरोसा नहीं किया, उस नेता पर जिसके आदेश पर हम मुसलमान होने के बावजूद पाकिस्तान के स्थान पर भारत में शामिल हुए। ऐसी स्थिति के चलते हम क्यों आप पर विश्वास करेंगे। उनकी इस दर्द भरी बात को सुनने के बाद हमें आत्म विश्लेषण करना चाहिए कि आखिर गलती किसने की और क्यों की।
धारा-370 को लेकर सभी ने अपने निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए गतिविधियां कीं। यदि भारतीय जनता पार्टी धारा-370 को हटाने के बारे में गंभीर थी तो महबूबा मुफ्ती के साथ मिलकर सरकार क्यों बनाई इसके बावजूद कि महबूबा धारा-370 की कट्टर समर्थक थीं। इसी तरह 370 को हटाने को कटिबद्ध भाजपा ने 370 की समर्थक महबूबा के साथ क्यों सरकार बनाई? स्पष्ट है कि ये दोनों अवसरवादी हैं। (समाप्त)