- डॉ.अजीत रानाडे
राजनेता प्रतिशोध की राजनीति के बारे में शिकायत करते हैं जहां सत्तारूढ़ दल विपक्षी सदस्यों के खिलाफ झूठे मामले दर्ज करते हैं। न्यायमूर्ति शाह समिति ने 2014 की सुधार संबंधी सिफारिशों में ऐसी संभावना के खिलाफ सुरक्षा उपायों को निर्दिष्ट किया है। अब समय आ गया है कि मतदाताओं को इस बात पर जोर देना चाहिए कि प्रत्याशियों के बारे में केवल आपराधिक मामलों का खुलासा पर्याप्त नहीं है।
कर्नाटक विधानसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी की जीत पिछले 34 वर्षों में सबसे शानदार विजय है। सीटों की संख्या और वोट शेयर दोनों मामलों में साढ़े तीन दशकों के बाद यह रिकॉर्ड टूटा है। यह एक निर्णायक और व्यापक जनादेश है जिसमें रिकॉर्ड मतदान (72 प्रतिशत) भी हुआ है। इस शानदार जीत में योगदान देने वाले कारणों और खिलाड़ियों का विश्लेषण अंतहीन होगा। क्या यह सत्ता विरोधी लहर का गंभीर मामला था? कर्नाटक में 1985 के बाद किसी भी पार्टी ने लगातार दूसरी बार सत्ता में वापसी नहीं की है। क्या यह '40 प्रतिशत कमीशन' के नारे द्वारा कब्जा किए गए भ्रष्टाचार के खिलाफ घृणा के कारण था? क्या यह धार्मिक भावनाओं को छूने वाले मुद्दों पर अत्यधिक ध्यान केंद्रित करने के कारण था? क्या यह नफ़रत फैलाने वाले भाषणों के कारण मतदाता की नाराजगी थी? ये सभी नकारात्मक प्रेरक कारक हैं।
उन सकारात्मक प्रेरकों के बारे में क्या जो इस जीत का कारण बने? क्या ये पांच गारंटियां थीं जिनका कांग्रेस के घोषणापत्र में उल्लेख किया गया है? ये मुफ्त बिजली, न्यूनतम आय की गारंटी, मुफ्त भोजन और मुफ्त बस पास तथा बेरोजगारी बीमा के बारे में हैं। इनमें से कुछ वादे मुफ्त की तरह लगते हैं और कुछ सामाजिक सुरक्षा की तरह के हैं। बाद वाले आश्वासनों की आवश्यकता है जबकि पहला वादा परेशानी भरा है। कुल मिलाकर उत्प्रेरक कारकों के बारे में होने वाली यह बहस कभी भी निर्णायक नहीं होगी। सभी घटक निश्चित रूप से कुछ हद तक मायने रखते थे और मतदाता हमेशा की तरह तर्कसंगत, आर्थिक या वस्तुनिष्ठ घटकों की तुलना में भावनात्मक कारकों से अधिक प्रभावित होते हैं। भारत में सभी राजनीतिक चुनावों की यह एक विशेषता है,
लेकिन परिणाम का एक पहलू ऐसा भी है जिससे हम सभी को चिंतित होना चाहिए। यह आपराधिक तत्वों के उदय के बारे में है। इस समय यदि कोई महत्वपूर्ण जरूरत है तो वह चुनाव प्रक्रिया में सुधारों की है जो इस प्रणाली को साफ कर सकते हैं। आपराधिक मामले लंबित रहने वाले विजयी उम्मीदवारों की हिस्सेदारी 2018 में 35 प्रतिशत की तुलना में बढ़कर 55 प्रतिशत हो गई है। सभी राजनीतिक दलों में आपराधिक मामलों से जुड़े उम्मीदवारों की हिस्सेदारी बढ़ी है। भले ही कोई केवल गंभीर आपराधिक मामलों वाले लोगों को देखे तो भी इन 55 प्रतिशत नवनिर्वाचित विधायकों की हिस्सेदारी चिंताजनक है। जीतने वाले उम्मीदवारों की यह हिस्सेदारी 24 से बढ़कर 32 प्रतिशत हो गई है। गंभीर मामले हत्या, हमला, अपहरण और बलात्कार या आर्थिक अपराधों से संबंधित हैं। ये अपराध गैर-जमानती हैं जिनमें 5 साल या उससे अधिक की सजा का प्रावधान है। 'अपराध' की परिभाषा के बारे में कानून बहुत स्पष्ट है। यह केवल पुलिस के समक्ष शिकायत दर्ज करना या प्राथमिकी दर्ज करना मात्र नहीं है। आपराधिक मामले वे होते हैं जो एक सक्षम मजिस्ट्रेट द्वारा अपने न्यायिक दिमाग का उपयोग करने और फिर आरोप निश्चित करने के बाद तय होते हैं।
बेशक यह सही है कि दोषी साबित होने तक कोई भी व्यक्ति निर्दोष होता है। केवल दोषी व्यक्तियों को चुनाव लड़ने से रोक दिया गया है और वह भी ऐसे में जब दोषसिद्धि के खिलाफ ऊपरी अदालत में अपील नहीं की जा रही हो। लंबित मामले अपील प्रक्रिया के दौरान वर्षों तक चल सकते हैं। इसलिए आपराधिक तत्वों को हमारी राज्य विधानसभाओं और संसद से बाहर रखने में चुनाव कानून विफल रहा है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जून 2014 में राज्यसभा में अपने पहले भाषण में इस मुद्दे पर बहुत पीड़ा व्यक्त की थी। उन्होंने कहा था कि आपराधिक तत्वों से राजनीति को साफ करना उनकी सर्वोच्च प्राथमिकता होगी। मोदी ने अदालतों से इन विशेष मामलों के निपटारे में तेजी लाने के लिए कहा था। फिर भी, अब तक अयोग्यता निर्धारित करने के लिए कोई नया कानून पारित नहीं किया गया है।
पिछले तीन दशकों से अधिक समय से आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवारों को अयोग्य घोषित करने के मुद्दे पर चर्चा की जा रही है। साल 1999 में न्यायमूर्ति जीवन रेड्डी के नेतृत्व में 15वें विधि आयोग की 170 वीं रिपोर्ट ने उम्मीदवारों को अयोग्य घोषित करने के लिए संशोधन प्रस्तुत किए थे। फरवरी, 2014 में न्यायमूर्ति एपी शाह के नेतृत्व वाले 20वें विधि आयोग की 244वीं रिपोर्ट में आपराधिक उम्मीदवारों को अयोग्य घोषित करने के लिए बहुत विस्तृत प्रस्ताव शामिल थे। इससे काफी पहले अक्टूबर 1993 में गृह सचिव एनएन वोहरा की अध्यक्षता वाली एक समिति ने राजनीति के अपराधीकरण पर एक रिपोर्ट सौंपी थी। इससे यह स्पष्ट होता है कि कम से कम 1990 के दशक की शुरुआत से राजनीति में आपराधिक दाग वाले प्रत्याशियों का मुद्दा हर किसी के लिए बड़ी चिंता का विषय रहा है। इसके बावजूद आपराधिक पृष्ठभूमि वाले लोगों की चुनाव में हिस्सेदारी बढ़ती जा रही है। यह एक ऐसी बात है जो संसद के साथ-साथ राज्य विधानसभाओं में भी देखी जा रही है। यह कहने का कोई मतलब नहीं है कि लोग आपराधिक पृष्ठभूमि वाले लोगों को चुनते रहते हैं तो हम क्या कर सकते हैं। पिछले महीने ही गैंगस्टर से राजनेता बने एक व्यक्ति और उसके भाई की पुलिस हिरासत के दौरान टीवी कैमरों के सामने गोली मारकर हत्या कर दी गई थी। यह हत्याकांड गलत था। न्यायेतर हत्याओं और न्यायेतर सक्रियता की निंदा की जानी चाहिए लेकिन चिंता की बात यह भी है कि वह व्यक्ति एक बार संसद का सदस्य था और पांच बार उत्तर प्रदेश विधानसभा का।
राजनीति को साफ करने की समस्या के दो पक्ष हैं। पहला, आपूर्ति पक्ष और दूसरा है मांग पक्ष। बाद के पक्ष का मतलब है कि मतदाताओं को स्वच्छ उम्मीदवारों को चुनने की जरूरत है। दागी राजनेताओं की मांग कम होनी चाहिए। मतदाताओं को आपराधिक पृष्ठभूमि वाले किसी भी व्यक्ति को दृढ़ता से अस्वीकृत कर देना चाहिए। हालांकि आपूर्ति की समस्या भी है। अक्सर मतदाताओं के पास मतपत्र सूची में कोई 'स्वच्छ विकल्प' नहीं होता।
अगर किसी निर्वाचन क्षेत्र से चुनाव लड़ने वाले सभी उम्मीदवार दागी हैं तो उस स्थिति में क्या होगा? यहां आपूर्ति पक्ष का समाधान आता है। हमें आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवारों के चुनाव लड़ने पर रोक लगाने की जरूरत है। संविधान ने चुनाव लड़ने के अधिकार को मौलिक अधिकार नहीं कहा है। अगर चिंता इस बात की है कि उनके खिलाफ दर्ज मामले झूठे हैं तो अदालतों द्वारा उनके नाम साफ किए जाने चाहिए।
राजनेता प्रतिशोध की राजनीति के बारे में शिकायत करते हैं जहां सत्तारूढ़ दल विपक्षी सदस्यों के खिलाफ झूठे मामले दर्ज करते हैं। न्यायमूर्ति शाह समिति ने 2014 की सुधार संबंधी सिफारिशों में ऐसी संभावना के खिलाफ सुरक्षा उपायों को निर्दिष्ट किया है। अब समय आ गया है कि मतदाताओं को इस बात पर जोर देना चाहिए कि प्रत्याशियों के बारे में केवल आपराधिक मामलों का खुलासा पर्याप्त नहीं है। हमें खुलासे से अयोग्यता की ओर बढ़ने की जरूरत है। हलफनामों के माध्यम से खुलासा देने का कानून 2003 में अस्तित्व में आया था। उस बात को बीस साल हो चुके हैं लेकिन चुनाव में आपराधिक तत्वों की हिस्सेदारी लगातार बढ़ रही है। अब समय आ गया है कि हम विधि आयोग की 2014 की रिपोर्ट की सिफारिश के अनुसार आपराधिक उम्मीदवारों को चुनाव लड़ने से रोकने के लिए एक सख्त कानून पारित करें। इसके अलावा राजनीतिक दलों को मिले धन के बारे में पारदर्शिता, पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र को बढ़ावा देने और राजनीतिक दलों को सूचना के अधिकार कानून के अधीन करने से संबंधित अन्य चुनाव सुधारों की भी आवश्यकता है। लेकिन निश्चित रूप से सबसे तत्काल आवश्यकता यह है कि कम से कम उन लोगों को टिकट पाने से रोका जाए जिनके खिलाफ गंभीर आपराधिक मामले हैं। निश्चित रूप से एक अरब 30 करोड़ लोगों वाला देश कुछ हजार स्वच्छ और गैर-आपराधिक सांसदों और विधायकों को पा सकता है।
(लेखक प्रसिद्ध अर्थशास्त्री हैं। सिंडिकेट : दी बिलियन प्रेस)