शकील अख्तर
कमलनाथ ने तीसरे बेटे के नाम पर पार्टी से सब कुछ लिया मगर जब मौका आया तो कपूत की तरह मां समान पार्टी को छोड़ कर भागने लगे। अब उनका जाना ही पार्टी हित में है। और अगर जैसा कि बीजेपी भी सोच रही है कि आदमी भरोसे के लायक नहीं है लें कि न लें तो फिर कांग्रेस के लिए एक नई मुसीबत खड़ी हो जाएगी। देखना दिलचस्प होगा कि क्या कांग्रेस में इतनी हिम्मत है कि उन्हें निकाल सके!
अब इस बात का कोई महत्व बचा है कि कमलनाथ बीजेपी में जाते हैं या नहीं? या बेटे नकुलनाथ चले जाते हैं और कमलनाथ नहीं जाते! या बीजेपी ने ही अपने नेताओं के विरोध को देखते हुए नकुल को ले लिया और कमलनाथ से कहा कि आप वहीं बने रहकर हमारी मदद करते रहिए!
इन तकनीकी सवालों का कोई मतलब नहीं! कमलनाथ को जितना कांग्रेस का नुकसान करना था कर दिया। यह अभी हम 2018 से 2023 विधानसभा चुनाव तक मध्य प्रदेश में किए नुकसान की बात नहीं कर रहे। इन पिछले दो दिनो में कांग्रेस की मिट्टी पलीद की बात कर रहे हैं। गोदी मीडिया ने क्या क्या नहीं कहा? मगर निर्लज्ज हो गए कांग्रेसियों पर कोई असर नहीं पड़ा।
सुना रविवार शाम को राहुल से कमलनाथ और नकुल को फोन और करवाया गया। क्या कहा क्या नहीं कहा के विस्तार में हम नहीं जा रहे मगर मीडिया को और खेल दे दिया। राहुल के मनाने से भी नहीं रुके कमलमाथ। या रुक गए तो कमल के बिना नहीं चल सकती थी कांग्रेस!
अरे जाने वाला क्या रुकता है? अगर मजबूत आदमी होते तो अभी तक उसी कड़क अंदाज में कह देते जैसे कहा था छोड़ो अखिलेश वखिलेश या जाकर दिग्विजय और उनके लड़के जयवर्धन सिंह के कपड़े फाड़ो या यहां (भोपाल में ) कोई नहीं होगी इंडिया गठबंधन की रैली! दिल्ली आकर कह देते कि नहीं जाऊंगा। कांग्रेस ने ही सब कुछ दिया है! मगर वे तो अपनी चुप्पी से इशारों से मामले को और हवा दे रहे हैं।
राजनीति के बारे में जो ए बी सी भी जानता है वह जानता है कि इनकी तरफ से समर्पण हो गया है। अब यह उनकी मर्जी है कि वे क्या करते हैं। खाली बेटे को लेते हैं। या पिताजी को भी लेते हैं! या नहीं लेते। क्या बयान दिलवाना चाहते हैं। जैसे गुलाम नबी आजाद से सोनिया राहुल के खिलाफ दिलवाया था या उससे भी आगे कुछ कहलवाना चाहते हैं। यह सब उन पर निर्भर है। कमलनाथ तो सिर झुकाए फैसले की प्रतीक्षा कर रहे हैं।
मगर एक कांग्रेस है। वह अभी भी उम्मीद लगाए बैठी है कि नहीं जाएंगे। अरे नहीं जाएंगे तो क्या आप मजबूत हो जाएंगे? 2018 - 19 में मध्य प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष बनाए गए थे। क्यों? उस समय अरुण यादव प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष थे। खूब मेहनत कर रहे थे। दूसरी तरफ दिग्विजय सिंह नर्मदा परिक्रमा कर रहे थे। उन्हें जबर्दस्त समर्थन मिल रहा था। जैसे -जैसे उनकी परिक्रमा पूरी होती जा रही थी वैसे मध्य प्रदेश में कांग्रेस के पक्ष में माहौल बनता चला जा रहा था।
लेकिन अचानक खबर फैली कि राज्य में अध्यक्ष बदला जा रहा है। क्यों का जवाब किसी के पास नहीं था। मगर कौन बनेगा इसे कांग्रेस के हाईकमान के नजदीक के लोग बताने लगे थे। लोगों के अनुमान के विपरीत। अनुमान यह था कि ज्योतिरादित्य बनेंगे। युवा हैं। परिवार के नजदीक हैं और मध्य प्रदेश में सिंधिया परिवार का असर है। लेकिन तय कमलनाथ को हो गया था।
आश्चर्यजनक था। मध्य प्रदेश के कांग्रेस के नेताओं, कार्यकर्ताओं के लिए भी। उनकी मेहनत से फसल तैयार हुई तो काट कर ले जाने के लिए कोई और आ गया। हमने पूछा किसी बड़े नेता से। तो जवाब मिला कि वे पैसा खर्च करेंगे। हम वैसे ही चुप के चुप रह गए। मतलब जो पैसा खर्च करेगा वह बनी बनाई रोटी पर कब्जा कर लेगा। अध्यक्ष बन जाएगा!
मगर ऐसा ही हुआ। 2003 से लगातार तीन चुनाव जीत रही बीजेपी को जनता ने इस बार हराने की ठान रखी थी। कार्यकर्ता भी मुस्तैद था। कांग्रेस जीत गई।
कमलनाथ मुख्यमंत्री बन गए। मगर बनने के साथ ही पहले दिन जो बीजेपी के मुख्यमंत्री सारे निगम बोर्डों में राजनीतिक नियुक्तियां कर देते हैं। कमलनाथ ने 15 महीने में भी नहीं कीं। जिस व्यापम घोटाले के नाम पर जीते थे उसकी जांच तक नहीं करवाई। सैक्स सीडी कांड जिसमें भाजपा के कई नेताओं और उस समय के अफसरों के फंसे होने की बात कहीं जा रही थी, उसकी जांच नहीं करवाई।
किया क्या? ज्योतिरादित्य सिंधिया से कह दिया कि जाओ जो तुमसे बन सके करो! और सिंधिया ने सरकार पलट दी। अपनी सरकार को बचा नहीं सके। मगर पार्टी अध्यक्ष पद नहीं छोड़ा। और खुद को भावी मुख्यमंत्री घोषित कर दिया। बेटे नकुल ने शपथ ग्रहण की ताऱीख बता दी। मगर मुख्यमंत्री बनने के लिए जो मेहनत करनी पड़ती है। गांव-गांव घूमना पड़ता है। कार्यकर्ताओं से मिलना पड़ता है। वह कौन करे। कमलनाथ तो कार्यकर्ताओं को छोड़िए नेताओं से नहीं मिलते थे। 230 विधानसभा सीटे हैं। वे 25 उम्मीदवारों के नाम तक नहीं जानते थे। भारी अहंकार। जिसे मर्जी चाहा टिकट दिया। जिसे नहीं चाहा नहीं दिया।
जीती हुई बाजी हरवा दी। मध्य प्रदेश की हार भारी अप्रत्याशित थी। मगर हार की जिम्मेदारी लेने के बदले वे तो हराने वाले का अभिनंदन वंदन करने जा रहे हैं।
बहुत लोगों ने कांग्रेस छोड़ी। मगर कमलनाथ जैसा और कोई नहीं होगा। क्या नहीं दिया कांग्रेस ने इनको। कभी किसी को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार तक नहीं बताती है। कहती है विधायक तय करेंगे। हाईकमान तय करेगा। मगर यहां तो खुद कमलनाथ ने तय कर लिया कि मैं बनूंगा। और हारने के बाद अध्यक्ष पद बना रहने दो। नहीं तो राज्यसभा दो।
जब से अध्यक्ष बने थे यह जिदें चलती रहीं। कांग्रेस हाईकमान मानता रहा। पांच साल में पांच प्रभारियों को दीपक बावरिया, मोहन प्रकाश, मुकुल वासनिक, जयप्रकाश अग्रवाल, रणदीप सुरजेवाला को हटवाया। पार्टी के प्रखर प्रवक्ता आलोक मेहता को नोटिस दिलवाया। और अब मान लो यह जो कांग्रेसी मान मनौव्वल कर रहे हैं तो रुक गए तो फिर क्या करेंगे?
कांग्रेसियों को तो चाहिए यह कि उन्हें बड़े हार फूल, बाजे गाजे के साथ ले जाकर बीजेपी के दरवाजे तक छोड़ कर आएं। जिसका पार्टी के सिद्धांतों में विश्वास नहीं होता, नेतृत्व में आस्था नहीं होती उसे रोकने से कोई फायदा नहीं। जब उसकी असलियत सामने आ गई है तो वह अंदर रहकर और नुकसान करेगा। लोगों को भड़काएगा। विपक्ष में रहकर राजनीति करना हर किसी के बस की बात नहीं है। कांग्रेस से बहुत गए और बहुत और जाएंगे। मगर क्या इससे पार्टी कमजोर हो जाएगी? 1977 हारने के बाद इन्दिरा गांधी के पास से भी बहुत सारे लोग चले गए थे। मगर 1980 में उन्होंने वापसी की। जाने वालों की राजनीति खत्म हो गई। जगजीवन राम, हेमवती नंदन बहुगुणा जैसे बड़े जनाधार वाले नेता खत्म हो गए। अभी तो जाने वालों में एक के पास भी कोई जनाधार नहीं है।
कांग्रेस को जरूरत अपने वफादार कार्यकर्ताओं को नेताओं को मजबूत करने की है। विश्वासघातियों को मनाने की नहीं। इससे तो और गलत संकेत जाएगा। दूसरे लोग भी तेवर दिखाने लगेंगे। जब राहुल खुद कह चुके हैं कि जिसे जाना हो जाए तो फिर किसी को रोकने मनाने की क्या जरूरत।
कांग्रेस की लड़ाई मुश्किल है। इंडिया गठबंधन के लोग भी छोड़ कर जा रहे हैं। सब डरे हुए हैं। तो इन डरे हुए लोगों को साथ लेकर लड़ने से फायदा है या बाकी हिम्मती लोगों को साथ लेकर लड़ने से? डरे हुए लोग कोई लड़ाई लड़ सकते हैं? वे तो बीच युद्ध में खुद भी भागेंगे और दूसरों को भी डराएंगे।
कमलनाथ ने तीसरे बेटे के नाम पर पार्टी से सब कुछ लिया मगर जब मौका आया तो कपूत की तरह मां समान पार्टी को छोड़ कर भागने लगे। अब उनका जाना ही पार्टी हित में है। और अगर जैसा कि बीजेपी भी सोच रही है कि आदमी भरोसे के लायक नहीं है लें कि न लें तो फिर कांग्रेस के लिए एक नई मुसीबत खड़ी हो जाएगी। देखना दिलचस्प होगा कि क्या कांग्रेस में इतनी हिम्मत है कि उन्हें निकाल सके!
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार है)