- सर्वमित्रा सुरजन
भ्रष्टाचार को देश के लिए सबसे अधिक घातक बताते हुए एक मुहिम छेड़ी गई, जिसके नायक के तौर पर अन्ना हजारे को मंच पर पेश किया गया और सबसे बड़े खलनायक के तौर पर कांग्रेस का चेहरा जनता के सामने लाया गया। भ्रष्टाचार विरोधी इस प्रहसन के निर्माता, निर्देशक, निवेशक, प्रमोटर, कौन लोग थे, अब ये देश के सामने है। इन प्रहसन में विभिन्न किरदार निभाने वाले लोगों के मुखौटे भी अब उतर चुके हैं।
2014 और 2019 के आम चुनावों में कांग्रेस ने भाजपा के हाथों मात खाई। मान लिया गया कि कांग्रेस ने अपना जनाधार खो दिया है। असल में कांग्रेस के साथ-साथ देश ने इस दरम्यान बहुत कुछ खो दिया। संवैधानिक परंपराएं, संसदीय तहजीब, लोकतांत्रिक तकाजे सब इन बरसों में रेत की तरह भारत की बंद मुठ्ठी से फिसलते गए। एक नया भारत इस बीच खड़ा हो गया है, जो किस कदर असहिष्णु, कट्टर, धर्मांध और संस्कारहीन हो चुका है, इसकी अनेक झलकियां रोजाना सोशल मीडिया के जरिए समाज के सामने आती हैं। हिंसा और नफरत आदिम प्रवृत्तियां हैं और इनसे छुटकारा नहीं पाया जा सकता, लेकिन इन्हें पनपने के अवसर न मिलें, इसकी कोशिश करना ही सभ्यता की निशानी है। नए भारत में ऐसी कोई कोशिश नहीं हो रही। कमजोरों के लिए नफरत का इज़हार करने में अब कोई संकोच नहीं होता।
सवर्ण जाति के लोग निचली जातियों का शोषण सरेआम करते हैं। पुरुषवादी समाज में महिलाओं का अपमान मामूली बात हो गई है। धनाढ्य वर्ग गरीबों की मजबूरी का फायदा निसंकोच उठा रहा है। हाशिए के लोगों को मुख्यधारा में लाने की ईमानदार पहलें अब रुक गई हैं और देश पर बहुसंख्यकों का मालिकाना हक घोषित करते हुए अल्पसंख्यकों को दब कर रहने की घुड़कियां दी जा रही हैं। नया भारत बनने की यह प्रक्रिया 2014 से शुरु हुई और अब इसने और तेजी पकड़ ली है। इसके पहले जो पुराना भारत था, उसमें भी कई बुराइयां थीं, लेकिन तब उन बुराइयों के खिलाफ खुलकर बोला जा सके, ऐसा माहौल भी था। अन्ना हजारे का आंदोलन उस माहौल की ही देन थी।
2004 और 2009 दो बार लगातार सत्ता में आकर कांग्रेस ने अपने विरोधियों को न केवल बड़ा झटका दिया था, बल्कि काफी हद तक निराश भी कर दिया था। दोनों ही बार सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री बनने से इंकार करके इस निराशा को और बढ़ा दिया था। क्योंकि अगर वे प्रधानमंत्री का पद लेतीं, तो फिर उनके विदेशी मूल के मुद्दे को आधार बनाकर देश में कांग्रेस के खिलाफ माहौल बनाने में आसानी होती। याद कीजिए किस तरह सुषमा स्वराज ने सिर मुंडाने और जमीन पर सोने का प्रण ले लिया था। भाजपा के समर्थक और गैरसमर्थक बहुत से लोग भी इस बात को बर्दाश्त नहीं कर पा रहे थे कि सत्ता की कमान सोनिया गांधी के हाथ में आए। वे तैयार बैठे थे कि इधर उनकी प्रधानमंत्री बनने को लेकर हामी होती और उधर हंगामा शुरु हो जाता। लेकिन उन्हें निराशा हाथ लगी, जब सोनिया गांधी ने कांग्रेस सांसदों के लाख अनुग्रह के बावजूद इस पद को ठुकरा दिया। इन लोगों को दूसरी बार निराशा तब मिली, जब लाभ का पद मुद्दा उठने के बाद सोनिया गांधी ने संसद सदस्यता छोड़ दी और फिर उपचुनाव में फिर से जीत हासिल कर लौटीं।
सत्ता की कमान सोनिया गांधी ने डॉ.मनमोहन सिंह के हाथों में दी, जिनके कारण 90 के दशक में देश में नयी आर्थिक नीतियों का प्रवेश हुआ था। उम्मीद थी कि एक बार फिर नवउदारवादी, पूंजीवादी नजरिए से सरकार चलेगी। कार्पोरेट सेक्टर किसी भी सरकार से अपने लिए फायदे की उम्मीद ही करता है। लेकिन यहां तीसरी बार निराशा हाथ लगी, क्योंकि डॉ. मनमोहन सिंह, प्रणव मुखर्जी और पी. चिदम्बरम जैसे अर्थशास्त्रियों के बावजूद सोनिया गांधी ने यूपीए सरकार की नीतियों को बनाने के लिए राष्ट्रीय सलाहकार परिषद का गठन कर उससे राय मशविरे लेकर काम किया। मनरेगा, शिक्षा का अधिकार, सूचना का अधिकार, खाद्य सुरक्षा, मध्याह्न भोजन जैसी अनेक योजनाएं देश में सफलतापूर्वक लागू हुईं। इनका लाभ आम जनता को भरपूर हुआ। अंतिम कतार में अंतिम पायदान पर खड़े आदमी के आंसू पूरी तरह तो पोंछे नहीं जा सके, लेकिन फिर भी उसके दुख कम हो सकें, इसका भरपूर प्रयास। कांग्रेस के रामराज्य वाली इन कोशिशों का फल 2009 में फिर से जीत के रूप में मिला। यह सिलसिला आगे जारी रहता तो गरीबों के हाथ में और ताकत आ जाती, और तब पूंजीवाद के लिए खतरे बढ़ जाते। इसलिए कांग्रेस को रोकने का खेल शुरु किया गया।
भ्रष्टाचार को देश के लिए सबसे अधिक घातक बताते हुए एक मुहिम छेड़ी गई, जिसके नायक के तौर पर अन्ना हजारे को मंच पर पेश किया गया और सबसे बड़े खलनायक के तौर पर कांग्रेस का चेहरा जनता के सामने लाया गया। भ्रष्टाचार विरोधी इस प्रहसन के निर्माता, निर्देशक, निवेशक, प्रमोटर, कौन लोग थे, अब ये देश के सामने है। इन प्रहसन में विभिन्न किरदार निभाने वाले लोगों के मुखौटे भी अब उतर चुके हैं। इस प्रहसन से पर्दा भी 2014 में पूरी तरह उठ चुका था, जब यूपीए सत्ता से बेदखल कर दी गई और इसके साथ ही मंच से अन्ना हजारे नाम का कथित दूसरा गांधी भी पृष्ठभूमि में चला गया। बीते आठ बरसों में इस नकली नायक ने एक बार भी कमजोरों पर आए संकटों के वक्त उनके साथ खड़े होने का असली साहस नहीं दिखाया।
अलबत्ता उसके दाएं-बाएं खड़े लोगों ने अपनी राजनैतिक दुकानदारी अलग से शुरु कर दी। उनमें से कुछ को सत्ता का सुख मिल गया है, कुछ उथली कविताओं और खोखली शायरियों के जरिए अपनी भड़ास निकालने में लगे हुए हैं और कुछ ने देश में हो रहे आंदोलनों में फिर से अपना अस्तित्व तलाशने की कोशिश की। हालांकि वहां भी उनकी सच्चाई सामने आई तो उनसे किनारा कर लिया गया। मगर कांग्रेस के आंखों पर शराफत की जो पट्टी बंधी हुई है, तो वह देख ही नहीं पा रही है कि जिन लोगों ने उसे सत्ता से हटाने में पूरा सहयोग दिया, जिन लोगों ने कांग्रेस के मर जाने की इच्छा जाहिर करते हुए एक तरह से कांग्रेस मुक्त भारत के नारे को बुलंद किया, वह फिर उनके ही फंदे में फंसने जा रही है।
7 सितंबर से कांग्रेस भारत जोड़ो यात्रा की शुरुआत कर रही है, जो देश के 12 राज्यों से होते हुए गुजरेगी और लगभग डेढ़ सौ दिन चलेगी। देश के लोगों से सीधे जुड़ने का यह बड़ा महत्वपूर्ण कदम साबित हो सकता है, बशर्ते इसमें कांग्रेस जनभावनाओं को न केवल समझे, बल्कि जनता की नब्ज एक बार में पकड़ पाए। भाजपा को सत्ता के शिखर तक पहुंचाने के लिए एक रथयात्रा लालकृष्ण आडवानी ने की थी, जिसके सफल परिणाम उन्हें मिले।
हालांकि उस यात्रा ने देश में खाई बढ़ाने का काम किया था, जो अब इतनी अधिक बढ़ चुकी है कि देश को बचाने के लिए उसे फिर से जोड़ने की जरूरत महसूस हो रही है। राहुल गांधी इस जरूरत को काफी वक्त से पहचान चुके हैं और वो लगातार इसके लिए आवाज़ उठा रहे हैं। भारत जोड़ो यात्रा भी उनके नेतृत्व में ही होगी। जल्द ही दो राज्यों में विधानसभा चुनाव होंगे और जब तक इस यात्रा का समापन होगा, तब तक कुछ और राज्यों में विधानसभा चुनाव की हलचल शुरु हो जाएगी, इसके साथ ही 2024 के आम चुनाव की तैयारियां भी।
देश का बड़ा हिस्सा इस वक्त भगवा रंग में रंग चुका है, जाहिर है भाजपा के पास चुनाव में जाने के लिए ताकत और संसाधन कांग्रेस से बेहतर होंगे। और चुनाव जीतने की उसकी रणनीतियां कांग्रेस पर भारी पड़ी हैं, इसके कई उदाहरण तो पहले से ही मौजूद हैं। ऐसे में कांग्रेस को इस वक्त इस सवाल का जवाब तलाशना होगा कि भारत जोड़ो यात्रा का मकसद क्या केवल देश में नफरत के खिलाफ आवाज़ उठाना है या फिर इससे वह कोई चुनावी लाभ भी हासिल करना चाहती है।
अगर चुनाव में उसे भाजपा के खिलाफ मजबूती से उतरना है तो फिर उसकी रणनीतियों को टक्कर देने वाली रणनीतियां ही कांग्रेस को बनानी होंगी। अपने कुनबे में कांग्रेस को उन लोगों को शामिल करने की क्या जरूरत है, जिन्होंने पहले कांग्रेस को धक्का देने का काम किया है। अगर कड़वी बादाम मुंह में आ जाए, तो उसे थूकना ही पड़ता है, ये सोचकर उसे गटका नहीं जाता कि वो बादाम है। कांग्रेस को नुकसान पहुंचाने वाले कुछ स्वनामधन्य सामाजिक कार्यकर्ता अगर किसी वजह से सत्ताधारियों से दूरी दिखा रहे हैं, तो क्या उन पर भरोसा करना सही होगा। इससे बेहतर कांग्रेस अपने लोगों, कार्यकर्ताओं और अपनी नीतियों पर भरोसा क्यों नहीं करती कि लोगों को जोड़ने में वो कारगर होंगी। भारत को जोड़ने से पहले कांग्रेस को अपने कुनबे को फिर से जोड़ने की कोशिश करना चाहिए।