• अतिवाद का शिकार भारत

    राष्ट्रीय जांच एजेंसी एनआईए ने पिछले सप्ताह पापुलर फ्रंट ऑफ इंडिया यानी पीएफआई पर बड़ी कार्रवाई की थी

    - सर्वमित्रा सुरजन

    हमारे संविधान को रचा ही इस तरह से गया है कि यहां सभी श्रेणियों के लोगों को बराबरी और सम्मान से जीने का हक मिले और अनेकता में एकता की हमारी खास पहचान अक्षुण्ण रहे। लेकिन इस अनेकता के भाव को मिटाते हुए हर बात में एक को ही सर्वोपरि करने की जो नयी परिपाटी चलाई गई है, उससे अतिवाद को पनपने का मौका मिल रहा है। एक की अति का जवाब दूसरे की अति नहीं हो सकती।

    राष्ट्रीय जांच एजेंसी एनआईए ने पिछले सप्ताह पापुलर फ्रंट ऑफ इंडिया यानी पीएफआई पर बड़ी कार्रवाई की थी। जिसके तहत 15 राज्यों में 96 जगहों पर छापेमारी की गई थी और कई राज्यों के पीएफआई प्रमुख समेत 100 से अधिक सदस्यों को गिरफ्तार किया गया था। एनआईए के नेतृत्व में हुई यह कार्रवाई पिछले कुछ बरसों में की गई सबसे बड़ी कार्रवाइयों में से एक है। टेरर फंडिंग और कई हिंसक कृत्यों में कथित संलिप्तता के लिए पीएफआई, उसके नेताओं और सदस्यों के खिलाफ पिछले कुछ बरसों में विभिन्न राज्यों में बड़ी संख्या में आपराधिक मामले दर्ज किए जा चुके हैं।

    बताया जा रहा है कि यह संगठन कथित 'लव जिहाद', जबरन धर्म परिवर्तन, सीएए के खिलाफ विरोध प्रदर्शनों में सक्रियता, कट्टरपंथी को बढ़ावा देने, धन शोधन और दूसरे प्रतिबंधित समूहों से संपर्क को लेकर जांच एजेंसियों की निगाह में था। इस कार्रवाई के विरोध में पीएफआई ने केरल बंद का आह्वान भी किया था। गिरफ्तारी का यह सिलसिला आगे भी चला और मंगलवार को भी 30 लोगों को दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल ने गिरफ्तार किया है। इनमें अधिकांश गिरफ्तार लोगों ने सीएए विरोधी आंदोलनों में हिस्सा लिया था। गिरफ्तारियों का विरोध रोकने के लिए ओखला इलाके के कुछ हिस्सों में धारा 144 लागू कर दी गई थी। सीएए विरोधी आंदोलन के दौरान गिरफ्तार कई छात्र नेता और राजनीतिक कार्यकर्ता अभी भी जेलों में ही हैं। मंगलवार को कुछ गिरफ्तारियां उत्तरप्रदेश के कुछ इलाकों से भी हुई हैं। जो लोग इन गिरफ्तारियों और धारा 144 लगाने के विरोध में हैं, उन्हें कानून व्यवस्था का हवाला दिया जा रहा है।

    पीएफआई पर इस कार्रवाई के बाद अब केन्द्रीय गृह मंत्रालय ने इस संगठन और इससे जुड़ी अन्य संस्थाओं पर 5 साल का प्रतिबंध लगा दिया है। सरकार का कहना है कि पीएफआई भारत में गुप्त एजेंडा चलाकर एक वर्ग विशेष को कट्टर बना रहा था है। साथ ही उसके संबंध अंतरराष्ट्रीय आतंकी संगठनों से भी हैं। गौरतलब है कि 2006 में पीएफआई की स्थापना हुई थी और धीरे-धीरे इसकी शाखाएं 24 राज्यों और कई केंद्र शासित प्रदेशों में खुल गईं। जांच एजेंसियों का मानना है कि पीएफआई नेशनल डेवलेपमेंट (एनडीएफ) से ही प्रेरित होकर बना है।

    एनडीएफ बाबरी मस्जिद को गिराने के एक साल बाद 1993 में बनाया गया था और यह एक कट्टर इस्लामी संगठन माना जाता है। पीएफआई पर प्रतिबंध के बाद अब इस पर राजनैतिक प्रतिक्रियाएं आने लगी हैं। उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी ने इस फैसले का स्वागत करते हुए लिखा कि यह 'नया भारत' है, यहां आतंकी, आपराधिक और राष्ट्र की एकता व अखंडता तथा सुरक्षा के लिए ख़तरा बने संगठन एवं व्यक्ति स्वीकार्य नहीं। अजमेर दरगाह के दीवान और साध्वी प्राची ने भी इस फैसले की सराहना की है।

    कांग्रेस का बयान है कि हम हर उस विचारधारा और संस्था के खिलाफ़ हैं, जो हमारे समाज का धार्मिक धु्रवीकरण करने के लिए पूर्वाग्रह, नफ़रत, कट्टरता और हिंसा का सहारा लेती है।' जबकि लालू प्रसाद यादव ने दो टूक टिप्पणी करते हुए कहा कि पीएफआई का हौवा बनाया है। आरएसएस पर पाबंदी लगानी चाहिए। ये इससे भी बदतर संगठन है। उन्होंने कहा कि पीएफ़आई, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे सभी संगठनों की जांच की जानी चाहिए और इन पर प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए। देश को हिंदू-मुस्लिम करके तोड़ा जा रहा है। महंगाई और बेरोज़गारी बढ़ रही है और हालात बदतर हो रहे हैं।

    देश के जो हालात हैं, उसका खाका साफ शब्दों में लालू प्रसाद यादव ने खींच दिया है। यह सही है कि देश में आंतरिक और बाह्य सुरक्षा से किसी तरह का समझौता नहीं होना चाहिए। न ही किसी किस्म की कट्टरता या ऐसे वाद को बढ़ावा नहीं मिलना चाहिए जो संविधान की भावनाओं के खिलाफ हो। अतीत की सरकारों ने भी इन्हीं कसौटियों पर कई ऐसे संगठनों को पहले प्रतिबंधित किया है, जो किसी एक वर्ग के हित की बात करते हुए देश के ताने-बाने, संवैधानिक व्यवस्था और सुरक्षा के लिए ही खतरा बन जाते हैं। किसी को तुष्ट करने के लिए उग्रवादी या अलगाववादी विचारधारा को समर्थन नहीं दिया जा सकता, न ही बहुसंख्यकों का दबदबा दिखाकर अल्पसंख्यकों को सहमा कर रखा जा सकता है। इस विशाल विविधता वाले देश में सभी धर्मों, जातियों, भाषाओं, प्रांतों और वर्गों के लोगों के बीच समझदारी के साथ संतुलन बनाए रखने की जरूरत है और हमारा संविधान इस काम को बखूबी करता है। इसलिए अगर किसी संगठन का काम संविधान के खिलाफ दिखाई देता है, तो उस पर कार्रवाई की जानी चाहिए। और इस कार्रवाई में धार्मिक, सांप्रदायिक पूर्वाग्रह आड़े नहीं आएं, यह सुनिश्चित करना सरकार की जवाबदेही है।

    पीएफआई पर एजेंसियों ने जांच-परख कर कार्रवाई की होगी। लेकिन सरकार और जांच एजेंसियों को यही सख्ती उन धर्म संसदों और तथाकथित साधु संतों के खिलाफ भी दिखानी चाहिए, जो सरेआम अल्पसंख्यकों के लिए धमकियां देते हैं, उनके परिवार की महिलाओं के खिलाफ अभद्र टिप्पणियां करते हैं। पिछले महीने ही संघ के प्रचारक रहे यशवंत शिंदे ने अदालत में बाकायदा हलफनामा दाखिल कर बताया था कि 2006 में पटबंधरे नगर बम विस्फोट संघ ने करवाए थे। उन्होंने ये भी कहा था कि भाजपा को फायदा पहुंचाने के लिए आरएसएस ने देशभर में बम धमाके करने की साजिश रची थी।

    ये मामूली आरोप नहीं हैं और इनकी भी उतनी ही गंभीरता से जांच होनी चाहिए, जैसे किसी अन्य कथित आतंकी संगठन की होती है। अफसोस ये है कि कट्टर हिंदुत्व के हिमायती संगठनों और उससे जुड़े नेताओं के अनर्गल बयानों को अब नए भारत में न्यू नार्मल यानी ये सब तो चलता ही है कि तर्ज पर लिया जाने लगा है। अगर इसमें कोई धर्मनिरपेक्षता का हवाला दे, तो उसे तुष्टिकरण की राजनीति करने वाला करार दिया जाता है या फिर उसकी राष्ट्रभक्ति पर संदेह किया जाता है। सत्ता की ओर से भी चुनावों में जीत हासिल करने के लिए ऐसे बयानों पर या तो चुप्पी साध ली जाती है या फिर इन्हें बढ़ावा दिया जाता है। जब एक पक्ष की ओर से अति होती है, तो दूसरा पक्ष भी अतिवाद को सही ठहराता है और आखिर में देश कट्टरता का शिकार होता है।

    यही कारण है कि जो भारत अब तक अपनी गंगा-जमुनी छवि के लिए विश्व विख्यात था, अब उसकी इस छवि को ठेस पहुंच रही है। तीन साल पहले टाइम पत्रिका के कवर पर प्रधानमंत्री मोदी की तस्वीर के साथ डिवाइडर इन चीफ लिखा गया था, जो भारतीय प्रधानमंत्री के लिए नकारात्मक टिप्पणी थी। अब रोसकिल्डे यूनिवर्सिटी में इंटरनेशनल डेवलपमेंट स्टडीज़ के असिस्टेंट प्रोफेसर सोमदीप सेन ने अल जजीरा में प्रकाशित एक लेख में हिंदू राष्ट्रवाद को दुनिया के लिए एक नई समस्या के तौर पर बताया है। साथ ही प्रधानमंत्री मोदी, भाजपा और विश्व हिंदू परिषद को हिंदू दक्षिणपंथ के दुनिया में उभार के लिए जिम्मेदार बताया है। इस लेख में लिखी बातों का जवाब भाजपा के लोग बेहतर तरीके से दे सकते हैं।

    सरकार उन आंकड़ों को भी गलत बता सकती है, जो लोकतंत्र. व्यक्तिगत स्वतंत्रता या उदारता के लिए विभिन्न अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों ने भारत के लिए दिए हैं। अपने ऊपर उठती हर उंगली के लिए कहा जा सकता है कि बाकी की तीन उंगलियां दोष लगाने वाले के ऊपर ही उठ रही हैं। लेकिन सवाल यही है कि इस तरह के आरोप-प्रत्यारोप या सफाई देने की नौबत आ क्यों रही है।

    हमारे संविधान को रचा ही इस तरह से गया है कि यहां सभी श्रेणियों के लोगों को बराबरी और सम्मान से जीने का हक मिले और अनेकता में एकता की हमारी खास पहचान अक्षुण्ण रहे। लेकिन इस अनेकता के भाव को मिटाते हुए हर बात में एक को ही सर्वोपरि करने की जो नयी परिपाटी चलाई गई है, उससे अतिवाद को पनपने का मौका मिल रहा है। एक की अति का जवाब दूसरे की अति नहीं हो सकती। 

     

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