अदूरदर्शिता, अंतरराष्ट्रीय सम्बन्धों की कच्ची समझ, बड़े व ताकतवर देशों के पिछलग्गू बनने तथा देश के बदले वैयक्तिक छवि को तरज़ीह देने वाली वैदेशिक नीति के चलते भारत का एक और पड़ोसी उसके प्रभाव से निकलता हुआ साफ दिख रहा है- बांग्लादेश। भारत के ज्यादातर पड़ोसी देशों के साथ भारत के अब वैसे मधुर सम्बन्ध नहीं रह गये हैं जो एक दशक पूर्व तक हुआ करते थे। जो मुल्क सांस्कृतिक सम्बन्धों के चलते रिश्तों में उतार-चढ़ाव के बावजूद भारत से जुड़े हुए थे, आज वे भी या तो दूर हो रहे हैं अथवा भारत के सबसे बड़े दुश्मन मुल्क चीन के प्रभाव में जा रहे हैं।
चीन बहुत रणनीतिक तरीके से भारत की घेराबन्दी कर रहा है। बांग्लादेश का मामला आश्चर्य के साथ दुखद भी है क्योंकि इसका निर्माण ही भारत की मदद से हुआ था- 1971 में। आज भी वहां से आये लाखों शरणार्थी भारत के नागरिक बनकर सुरक्षित व समृद्ध जीवन जी रहे हैं। भारत सरकार को अपनी कूटनीति पर पुनर्विचार करने की ज़रूरत है। मोदी की व्यक्तिगत पसंदगी, आकांक्षाओं तथा छवि चमकाने का जरिया बनाने की बजाय उसे देश हित में ढाला जाना चाहिये ताकि दक्षिण एशिया में भारत का वह सम्मान तथा प्रतिष्ठा बनी रहे जो उसने 2014 में आई भारतीय जनता पार्टी की बनी केन्द्र सरकार के पहले के 60 वर्षों में अर्जित की थी।
शुरुआत यहां से करें कि पहली बार जब नरेन्द्र मोदी देश के प्रधानमंत्री बने थे तो उन्होंने सभी पड़ोसी मुल्कों के राष्ट्राध्यक्षों को आमंत्रित कर सभी को चौंका दिया था। उनके इस कदम का स्वागत किया गया था और माना गया था कि वे पड़ोसी देशों के साथ अच्छे सम्बन्ध स्थापित करना चाहते हैं। उनके आमंत्रण को स्वीकार करते हुए दक्षेस (सार्क) देशों के सभी राष्ट्रप्रमुख आये थे। इस प्रतिसाद को विनम्रतापूर्वक स्वीकार करने तथा उसका समझदारीपूर्ण लाभ उठाने के बदले भाजपा के आईटी सेल द्वारा यह प्रचारित किया गया कि पहली बार भारत की ताकत को विदेशी स्तर पर स्वीकारा जा रहा है और इसका कारण मोदी हैं। तत्पश्चात भारत लगातार अपनी गुटनिरपेक्षता की नीति से हटता चला गया जिसमें व्यक्ति से बड़ा देश को मानने, सामूहिकता तथा छोटे-बड़े सभी देशों की सम्प्रभुता के सम्मान का भाव था। साथ ही, मोदी ने अपनी ऊर्जा बड़े देशों के पीछे भागने में लगायी। सर्वाधिक देशों का दौरा करने वाले वे पहले पीएम तो बने लेकिन ज्यादातर में उनकी उपस्थिति फोटो सेशन में प्रमुख जगह पर खड़े होने की रही। उनके समर्थक इसी बात में खुश होते रहे कि उनके मोदीजी को तस्वीर लेते समय महत्वपूर्ण स्थान पर खड़ा किया गया है।
कूटनीतिक सम्बन्धों को मोदी ने संकीर्ण नज़रिये से देखा- एक तो खुद को विश्वगुरु साबित करना और दूसरे, अपने मित्र कारोबारियों को व्यवसाय दिलाना। श्रीलंका की संसद में उनके द्वारा गौतम अदानी को दिलाये गये बिजली संयंत्र के ठेके तथा फ्रांस में राफेल लड़ाकू जहाजों के सौदे में अनिल अंबानी को शामिल करने से उनके साथ देश की छवि खराब हुई। जिन भी बड़े देशों से उनके मित्रों को व्यवसायिक लाभ मिलना सम्भव है, मोदी को उनमें जाने में कोई गुरेज़ नहीं रहा, फिर कोई काम हो या न हो। पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने लगभग सवा सौ देशों को मिलाकर तटस्थ देशों का जो समूह बनाया था, वही भारत की असली ताकत थी। मोदी ने खुद को बलशाली साबित करने तथा नेहरू से अपनी अदावत को भुनाने के लिये गुटनिरपेक्ष आंदोलन को एक तरह से खत्म कर दिया। संगठन को, जिसमें 60 फीसदी देश थे, उसके बन्धुत्व भाव तथा मानवीय रूप के लिये जाना जाता था। इसकी बजाये मोदी की अंतरराष्ट्रीय कूटनीति में न अपने ही देश के लोगों को अमेरिका द्वारा हथकड़ी-बेड़ियों में लाये जाने का विरोध करने का साहस है, न ही इज़रायल द्वारा ग़ज़ा में किये जा रहे नरसंहार के खिलाफ आवाज उठाने का माद्दा। अफ़गानिस्तान, म्यांमार, नेपाल में होते घटनाक्रमों पर भी भारत सरकार मौन रहती है जबकि वह पहले खुलकर अपना पक्ष रखा करती थी।
भारत की अपनी छवि अब एक उदार व संवेदनशील देश के बदले घोर साम्प्रदायिक राष्ट्र की हो चुकी है। यहां सरकार साम्प्रदायिकता का नेतृत्व भी करती है। पड़ोसी मुल्कों में अल्पसंख्यकों के कथित जुल्म पर शोर-शराबा करने वाली सत्तारुढ़ पार्टी के समर्थक अपने यहां के अल्पसंख्यकों को प्रताड़ित करने के आरोपियों के रूप में दुनिया भर में जाने जाते हैं। इसके खिलाफ़ कई अंतरराष्ट्रीय मंचों पर आवाजें उठ चुकी हैं। सरकार की इस राष्ट्रीय नीति की छाया अंतरराष्ट्रीय सम्बन्धों पर पड़ी है। मोदी सरकार एवं उनकी पार्टी ने देश में मुस्लिम देशों, खासकर पड़ोस के पाकिस्तान, अफगानिस्तान व बांग्लादेश के खिलाफ घृणा का माहौल बनाया है। यही कारण है कि दूसरी बार अमेरिका के राष्ट्रपति बने डोनाल्ड ट्रम्प ने पद के शपथ ग्रहण समारोह में, जिनके लिये मोदी ने कभी 'अबकी बार ट्रम्प सरकार' का नारा दिया था, उन्हें न बुलाकर चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग को बुलाया था।
अब उसी चीन को पड़ोसी बांग्लादेश की अंतरिम सरकार के मुख्य सलाहकार युनुस मोहम्मद हाल के अपने चार दिवसीय दौरे में सुझाव दे रहे हैं कि 'भारत के 7 पूर्वोत्तर राज्य (जो सेवन सिस्टर्स कहलाते हैं) समुद्र से दूर यानी 'लैंड लॉक्ड' हैं। बांग्लादेश से चीन उनकी घेराबन्दी कर सकता है।' उल्लेखनीय है कि चीन की इस सम्पूर्ण पूर्वोत्तरी हिस्से पर लम्बे अर्से से नज़र है और इनमें से कई राज्यों पर तो वह अपना अधिकार मानता रहा है। बांग्लादेश यदि चीन को इन प्रदेशों में विस्तार करने के लिये मदद देने को तैयार है तो यह भारतीय विदेश नीति की बड़ी असफलता है।