• ऊपरी खोल में समावेशी, अंतर्वस्तु में रूढ़िवादी

    फिलवक्त ब्रिटेन में यही सवाल जेरे बहस है

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    - सुभाष गाताडे

    बाहरी मुल्कों में प्रताड़ित रहे लोगों को - भले ही वह किन्हीं अन्य आस्थाओं के हों- भारत के दरवाजे खुले रखने की बात तो दूर की रही ( जिसे पहले वह अंजाम देता था) अब वह खुद संविधान में ऐसे बदलावों को लाने पर आमादा है कि वहां व्यक्तिविशेष के धर्म को नागरिकता का पैमाना बनाने की कवायद चल रही है।

    कौन बनेगा प्रधानमंत्री?

    फिलवक्त ब्रिटेन में यही सवाल जेरे बहस है। अधिक संभावना यही बताई जा रही है कि लीज ट्रूस - जिनकी टोरी मतदाताओं के बीच लोकप्रियता ज्यादा है - वह पार्टी की नेत्री चुनी जाएंगी ; लेकिन पंजाबी हिन्दू ऋषि सुनक भी - जिनके माता-पिता दक्षिणी पूर्वी अफ्रीका से वहां पहुंचे हैं- अभी भी अपनी कोशिश में मुब्तिला हैं।

    तय बात है कि प्रधानमंत्री जो भी बने, उसे टोरी पार्टी की रूढ़िवादी नीतियों का ही अनुगमन करना पड़ेगा, ब्रिटेन की राजनीति में 'लौह महिला' के तौर पर जानी जाती मार्गरेट थैचर जैसी टोरी पार्टी की प्रधानमंत्री को ही अपनी प्रेरणा बताना पड़ेगा- जिनका कार्यकाल ट्रेड यूनियनों पर हमलों और देश की कल्याणकारी नीतियों में कटौती कर उसे नवउदारवाद के रास्ते पर डालने के लिए जाना जाता है या ब्रिटेन में शरणार्थी बन कर पहुंचे लोगों को- नागरिकत्व प्रदान करने के बजाय - उन्हें रवांडा जैसे अफ्रीकी मुल्क में एक तरफ का टिकट देकर निर्वासित करने की जनविरोधी नीति पर ही अमल करना पड़ेगा, यूरोपीय संघ से ब्रिटेन को अलग करने वाले 'ब्रेक्जिट' जैसे फैसले की ही हिमायत करनी पड़ेगी ; लेकिन एक बात काबिलेगौर है कि इन चुनावों के जरिए कभी श्वेत मर्दों का प्रभुत्व प्रतिबिम्बित करने वाले टोरी पार्टी की एक अलग किस्म की छवि उजागर हुई है कि वहां गैरश्वेेतों को, यहां तक कि दूसरे देशों से आप्रवासी बन कर पहुंचे लोगों को भी स्थान देने में हिचकिचाहट नहीं है।

    निवर्तमान प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन के मंत्रिमंडल में तीन सबसे महत्वपूर्ण पद गैर ब्रिटिश मूल के लोगों को मिले थे-ऋ षि सुनक / पब्लिक एक्सचेकर/, प्रीति पटेल (गृह )और साजिद जाविद / स्वास्थ्य/ और प्रधानमंत्री पद से उनकी विदाई के बाद टोरी पार्टी के नेतृत्व के लिए जिन दस प्रत्याशियों ने अपनी किस्मत आजमाने की कोशिश की जिसमें पांच प्रत्याशी 'नस्लीय अल्पसंख्यक' समुदायों से ताल्लुक रखते थे-फिर चाहे ऋ षि सुनक रहे हों; या पाकिस्तानी मूल के रहमान चिश्ती हों, जो वहां पहली दफा सांसद बने हैं; केमी बाडेनॉक रही हों जिनके माता-पिता नाईजरिया से वहां आए हैं - जो कन्जर्वेटिव पार्टी में भी राजनीतिक तौर पर अधिक दक्षिणपंथी समझी जाती हैं; सुएला ब्रेवरमैन रही हों, जो भारतीय मूल के माता-पिता की संतान हैं, जो केनिया और मॉरिशस से वहां पहुंचे हैं; और कुर्दिश मूल के नादिम जहावी रहे हो, जो बोरिस जॉनसन के प्रधानमंत्री पद के आखिरी दिनों में वित्तमंत्री पद संभाले थे और जिन्होंने महज 48 घंटों में इस्तीफा दिया था।

    वे सभी जो ब्रिटेन के सामाजिक-राजनीतिक वातावरण पर निगाह रखे हुए हैं, बता सकते हैं कि टोरी पार्टी कम से कम अपने बाहरी आवरण में बदलती दिख रही है। ब्रिटेन की सत्ताधारी पार्टी के बाहरी आवरण में आ रहे बदलाव बरबस भारत की सियासत के हालिया सफर पर सोचने के लिए प्रेरित करते हैं - गौरतलब है अपनी नीतियों में बेहद रूढ़िवादी, आप्रवासियों को लेकर भी गैरजरूरी संदेहों से लिप्त या लेबर पार्टी के बरअक्स अधिक अमीरपरस्त समझी जाने वाली टोरी पार्टी के बिल्कुल विपरीत यहां की वर्चस्वशाली पार्टी की सियासत आगे बढ़ रही है। आज का ब्रिटेन- जिसका 'आधिकारिक धर्म ईसाईयत' है, इस बात के लिए तैयार दिखता है वहां कोई गैरईसाई यहां तक ऐसा व्यक्ति जिसकी जड़ें ब्रिटिश साम्राज्य के गुलाम मुल्कों में रही हों - देश के सर्वोच्च पद पर पहुंच सकता है, लेकिन भारत जैसा मुल्क, जो अपने आप को 'विश्वगुरु' मानता है, तथा जिसके कर्णधारों को यह दावा करने में संकोच नहीं होता कि वह 'जनतंत्र की मां' रहा है, वहां इस बात की कल्पना तक नहीं की जा सकती।
    बाहरी मुल्कों में प्रताड़ित रहे लोगों को - भले ही वह किन्हीं अन्य आस्थाओं के हों- भारत के दरवाजे खुले रखने की बात तो दूर की रही ( जिसे पहले वह अंजाम देता था) अब वह खुद संविधान में ऐसे बदलावों को लाने पर आमादा है कि वहां व्यक्तिविशेष के धर्म को नागरिकता का पैमाना बनाने की कवायद चल रही है।

    विविधता और अनेकता को बढ़ावा देने के बजाय इन दिनों यहां यही प्रयास जोरों पर है कि मुल्क की 'सबसे बड़ी धार्मिक अल्पसंख्यक आबादी अर्थात मुसलमानों को / जिनकी आबादी देश की कुल आबादी के 15 फीसदी के करीब है / सामाजिक एवं राजनीतिक जीवन से हाशियों पर डाल दिया जाए। भले ही इसे प्रतीकात्मक कहा जाए, लेकिन क्या यह विचारणीय नहीं है कि सत्ताधारी पार्टी भाजपा के पास देश के अग्रणी सदनों - राज्यसभा या लोकसभा में - कोई चुना हुआ मुस्लिम सदस्य नहीं है।

    लगभग दो दशक पहले देश के प्रधानमंत्री पद के लिए 'विदेशी मूल' का व्यक्तिनहीं होना चाहिए, यह मांग करते हुए इन दक्षिणपंथी जमातों ने जो हंगामा खड़ा किया था, उसे याद किया जा सकता है। ब्रिटेन की तरह विकसित मुल्कों के लोकतंत्र भी कम से कम बाहरी आवरण में बदल रहे हैं, इसे कनाडा और अमेरिका जैसे उदाहरणों से समझा जा सकता है। कनाडा की न्यू डेमोक्रेटिक पार्टी जो देश की हाउस आफ कामन्स की चौथी थी सबसे बड़ी पार्टी है- जिसकी अगुआई जगमीत सिंह नामक सिख करते हैं, यहां तक कि प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो की हुकूमत में कई मंत्री सिख हैं। अमेरिका में भी तमिल भारतीय मूल की मां और अफ्रीकी मूल के पिता की संतान कमला हैरिस इन दिनों उपराष्ट्रपति पद पर हैं, जो फिलवक्त अमेरिकी सरकार की दूसरी सबसे ताकतवर व्यक्ति हैं।

    अन्त में, वे सभी जो ब्रिटेन में नस्लीय अल्पसंख्यकों के उभार को लेकर अधिक गदगद है, ऋ षि सुनक को वजीरे आजम बनते हुए देखना चाहते हैं, उन्हें एक बात के प्रति सचेत होने की भी आवश्यक समझता हूं।

    प्रीति पटेल से लेकर ऋ षि सुनक का ब्रिटेन की राजनीति में बढ़ता बोलबाला एक तरह से 'बॉबी जिन्दल' की याद ताज़ा करता है, जो भारतीय मूल के व्यक्ति थे और एक अमेरिकी राज्य के गवर्नर भी थे। उनके गवर्नर बनने पर पंजाब के उनके पैतृक गांव में जश्न मनाया गया था, भले ही 1970 में भारत छोड़ने पर उन्होंने कभी भारत का रूख नहीं किया, वे वहीं पले-बढ़े, अमेरिका को इस कदर अपनाया कि ईसाइयों के प्रतिगामी हिस्से का प्रतिनिधित्व करने वाली रिपब्लिकन पार्टी को उन्हें उम्मीदवार बनाने से संकोच नहीं हुआ।

    ध्यान रहे कि खुद सनातनी किस्म के ईसाई होने के नाते वे न केवल गर्भपात का विरोध करते थे, डार्विन द्वारा प्रस्तुत मानवता के क्रमविकास के सिद्धान्त के स्थान पर वह 'इण्टेलिजेण्ट डिजाइन' की बात करते हैं जो एक तरह से ईश्वरीय विकास (क्रिएशनिजम) का ही दूसरा नाम है और उन्होंने वहां के स्कूलों में भी 'इण्टेलिजेण्ट डिज़ाइन' सीखाने पर जोर दिया था। अश्वेत तथा अन्य श्वेतेतर समुदायों को बढ़ावा देने के लिए साठ के दशक में वहां बनाई गई एफर्मेटिव एक्शन की नीतियों ( जिन्हें हम यहां सामाजिक तौर पर उत्पीड़ित तबकों के विकास के लिए कायम आरक्षण की नीतियों के समकक्ष देख सकते हैं ) का विरोध करते थे। यही कारण था कि लुइसियाना राज्य की आबादी का एक तिहाई हिस्सा अश्वेतों में से लगभग किसी ने उन्हें वोट नहीं दिया था। इतना ही नहीं, वह अमेरिकी सरकार की जालिमाना नीतियां - जिसने अपनी चौधराहट कायम करने के लिए अफगानिस्तान पर एवं इराक पर हमला किया और लाखों लोगों को मार डाला या अपने यहां की जनता पर अंकुश लगाने के लिए तमाम काले कानून बनाए- जिसके चलते वह दुनिया भर में बदनामी बटोरता रहता है, के कट्टर समर्थक बताये गए थे।

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