- वर्षा भम्भाणी मिर्जा़
हमास (हरकत अल मुकम्मल अल इस्लामिया) एक आतंकवादी संगठन है और इसका मकसद है इज़राइल को ख़त्म कर एक फिलिस्तीन देश बनाना। जो विचार इस आतंकी संगठन को मज़बूती देता है वह यह है कि यहूदियों को उनकी ज़मीन पर ज़बर्दस्ती बसाया गया है और वे धीरे-धीरे उनकी ज़मीन पर कब्ज़ा कर रहे हैं। बदले की इसी भावना का नतीजा है कि सात अक्टूबर को हमास ने इज़राइल पर आतंकी हमला किया।
हैरानी और दुख की बात है कि अभी अस्सी साल भी नहीं बीते कि हिटलर के अत्याचार से पीड़ित एक कौम जो दर्द और मौत के समंदर में डूब रही थी, आज किसी दूसरी कौम को बेघर और बर्बाद करने पर तुल गई है। पूरी दुनिया यहूदियों के जिस दर्द को खुद के सीने में महसूस कर रही थी, अब वही यहूदी इस दर्द को महसूस करने से इंकार करते हैं। यकीन करना मुश्किल है कि वे यहूदी जिनका एक समय अपना कोई मुल्क नहीं था, आज लोगों को उनकी ज़मीन से बेदखल करने में जुटे मालूम होते हैं। उन्होंने उत्तरी ग़ाज़ा के लोगों से कह दिया है कि तुम अपने घर छोड़ दो, फिर हम वहां बमबारी करेंगे। इससे पहले कि जगह खाली होती, एक अस्पताल पर मिसाइल दाग़ दी गई। घायलों और बीमारों को इलाज के बजाय मौत मिली। वहां के घायलों को अब दूसरे अस्पतालों में ले जाया जा रहा है। कोई भरोसा नहीं कि फिर वहां बम न बरसे।
बढ़-चढ़कर दावे करने वाले दोनों पक्ष यानी हमास और इज़राइल अब एक दूसरे पर इलज़ाम लगा रहे हैं कि यह जघन्य हरकत उनकी नहीं है। बताया जाता है कि पहले एक ट्वीट में इस हमले की ज़िम्मेदारी इज़राइली सेना ने ली थी फिर ट्वीट को डिलीट कर दिया गया। दोनों ओर से बच्चों की दहला देने वाली तस्वीरें जारी की जा रही हैं।
अस्पताल पर हमला सबसे बड़े युद्ध अपराध बतौर देखा जाता है। दुनिया के आक़ा माने जाने वाले अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन ने इज़राइल पहुंचकर अपने बयान में कह दिया है कि यह दूसरी टीम का काम है, जैसे ये इंसानी जिंदगियों की बात नहीं बल्कि बास्केटबॉल का कोई मैच हो। एक तरफ़ वे कहते हैं कि ग़ाज़ा के नागरिकों को राहत सामग्री पहुंचाई जाए और फिर यह भी कि हमास का यह हमला अमेरिका पर हुए 9/11 के हमले से भी बड़ा हमला है।
हमास (हरकत अल मुकम्मल अल इस्लामिया) एक आतंकवादी संगठन है और इसका मकसद है इज़राइल को ख़त्म कर एक फिलिस्तीन देश बनाना। जो विचार इस आतंकी संगठन को मज़बूती देता है वह यह है कि यहूदियों को उनकी ज़मीन पर ज़बर्दस्ती बसाया गया है और वे धीरे-धीरे उनकी ज़मीन पर कब्ज़ा कर रहे हैं। बदले की इसी भावना का नतीजा है कि सात अक्टूबर को हमास ने इज़राइल पर आतंकी हमला किया जिसमे पांच सौ से ज़्यादा इज़राइलियों की जानें गईं, जिनमें महिलाएं, बच्चे भी शामिल हैं। कई मासूम नागरिकों को बंधक बना लिया गया। पूरी दुनिया हमास के इस खूनी हमले से दहल गई। नतीज़तन कई देशों के राष्ट्राध्यक्षों ने इज़राइल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू के साथ खुद को खड़ा बताया। जॉर्डन, सीरिया, लेबनान, इजिप्ट जैसे देश जो फिलिस्तीन से थोड़ी हमदर्दी रखते हैं, उन्होंने भी हमास की तीखी भर्त्सना की।
भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी ऐसा ही किया लेकिन हमास के हमले के बाद इज़राइल ने हमास के आतंकवादियों की तलाश में जो भीषण हमले किए उसने दुनिया को फिर सोचने पर मजबूर कर दिया कि यह लड़ाई आख़िर किस दिशा में बढ़ रही है। भारत के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता अरिंदम बागची ने भी कहा- 'अंतरराष्ट्रीय युद्ध नियमों का पालन अनिवार्य है और पूरी दुनिया की ज़िम्मेदारी है कि वह आतंकवाद से उन्हीं घोषणाओं के मुताबिक मुकाबला करे।' फ़िलहाल जो दिख रहा है वह है खेमों में बंटी दुनिया। अस्पताल पर हमले के बाद अरब देशों के साथ अमेरिकी राष्ट्रपति की जॉर्डन में तय बैठक नहीं हुई। इस बैठक में फ़िलिस्तीन के मान्यता प्राप्त हिस्से के राष्ट्रपति महमूद अब्बास भी भाग लेने वाले थे।
तीसरे विश्व युद्ध की आशंका में अब दुनिया भर के नागरिक संगठन नेताओं को याद दिला रहे हैं कि फ़िलिस्तीन लम्बे अर्से से विवादित रहा है और इसके हल के लिए कभी भी ज़िम्मेदार देशों ने नतीजा देने वाले सार्थक प्रयास नहीं किए। अब भी जो बाइडेन इस वक्त जो बातें कह रहे हैं वे भी आग में पानी डालने वाली तो नहीं ही हैं। तेल अवीव में इज़राइल के प्रधानमंत्री को गले लगाकर कहना कि गाज़ा के अस्पताल पर हमला दूसरी टीम का काम है और यह 9/11 से भी बड़ा हमला है। इस बयान ने तटस्थ देशों को भी चौंकाया है।
क्या चाहता है अमेरिका कि हमास को अलकायदा के ओसामा बिन लादेन की तरह किसी देश में घुसकर मारा जाए; लेकिन यहां तो इस तलाश में दोनों ओर के हज़ारों बेगुनाह नागरिक मारे जा रहे हैं। यह कह देना भी किस क़दर अमानवीय है कि, 'आप अपना मुल्क खाली करके निकल जाओ! हम यहां बम बरसाएंगे।' कहां जाया जाए कोई और कितने दिन किसी शरणार्थी कैंप में गुज़ारे जा सकते हैं? यूं पहले से ही जॉर्डन और इजिप्ट की सीमा पर फिलस्तीनियों के कई कैंप हैं। कौन सा देश उन्हें अपनाने को तैयार है? बीबीसी ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि लोग ग़ाज़ा नहीं छोड़ना चाहते। उन्हें मिसाइल का शिकार होना मंज़ूर है, दर-दर की ठोकरें खाना नहीं। पानी-भोजन की किल्लत है।
वे घूम -घूमकर नलों में पानी तलाश रहे हैं। दुश्मनी का आलम यह है कि कोई राहत सामग्री भी उत्तरी ग़ाज़ा तक नहीं पहुंचने दी जा रही है। फिर भी अपनी जान की परवाह में इनमें से कुछ ने अल अहली अल अरब अस्पताल में शरण ली तो मिसाइल ने वहां आकर भी उनका काम तमाम कर दिया। अमेरिकी राष्ट्रपति ने हमास के हमले को 'नाइन-इलेवन' के हमले से भी बड़ा हमला तो बताया है लेकिन अस्पताल के क़ब्रगाह बनने पर उनका कोई तीखा बयान अब तक नहीं आया है। यह पक्षपात ही कहीं पश्चिम एशिया के इस हिस्से की उथल-पुथल का कारण न बन जाए।
यूं हज़ारों सालों का इतिहास बताता है कि यहूदी पूरी दुनिया में सर्वाधिक सताया गया समुदाय है। प्रभु ईसा मसीह स्वयं एक यहूदी (ज्यू ) थे जिन्हें सलीब पर टांग दिया गया और यह मान्यता घर कर गई कि कुछ यहूदी ऐसा ही चाहते थे। ईसाइयों के बीच यहूदियों के लिए यह नफरत बढ़ती गई जो धर्म युद्ध में बदल गई। नफ़रत इस कदर फैली कि यहूदी और ईसाई एक दूसरे के खून के प्यासे हो गए। अफ़वाह फैलाई जाती थी कि यहूदी ईसाई बच्चों का खून पीते हैं या उनका धार्मिक रीति रिवाज़ों के लिए इस्तेमाल करते हैं। अठारहवीं सदी तक यह नफरत एक ख़ास किस्म की नस्लीय या जातीय भेद में बदल गई थी। यहूदी मानने लगे थे कि पूरी दुनिया उनसे नफरत करती है और उन्हें अपना एक देश बनाना ही होगा जो उन्हें मज़बूत सुरक्षा दे। उन्नीसवीं सदी के अंत में 'ज़ायोनिस्म मूवमेंट' की शुरुआत हुई। इस वक्त कुछ यहूदी येरूशलम में आकर बसने लगे। यह उनके लिए पवित्र स्थान था। ठीक वैसे ही येरूशलम ईसाईयों और मुसलमानों के लिए भी आस्था स्थल है। आज यह इज़राइल के पास है। तब वहां कोई ग़ाज़ा नहीं था, न कोई इज़राइल और न कोई वेस्ट बैंक। केवल फिलिस्तीन था, खाली ज़मीन के साथ। तब वहां ओटोमन साम्राज्य था और यहां तीनों यानी मुसलमान, ईसाई और यहूदी अमन से रहते थे।
अमन यह शब्द यहां उस दिन से खो गया जिस दिन हिटलर के बंकर से ख़बर आई कि ख़ुदकुशी के बाद 'तानाशाह मर गया।' इसके बाद दुनिया को शांति से भर जाना चाहिए था कि अब कोई जंग नहीं। आज के हालात देखकर लगता है कि इस दुनिया के हुक्मरान अब भी जंग के प्यासे हैं। उनकी हुकूमत को बड़ा आसरा युद्ध में काम आने वाले हथियार देते हैं। वे इस आग को सुलगाए रखना चाहते हैं। दुनिया का बंटवारा भी मन मुताबिक कर जाते हैं। धरती पर ऐसी आड़ी-तिरछी रेखाएं खींचतें हैं कि मानवता बस रोती ही चली जाती है। हिंदुस्तान अपने सीने पर लगे उस घाव को कैसे भूल सकता है जब शरणार्थियों की बाढ़ आई थी। वह अकेले कहां आई थी साथ नफरत भी लाई थी। फिलिस्तीन में भी यही हुआ। नफ़रत की लड़ाई जारी है। फिलहाल इनके नाम हमास और इजराइल हैं। ख़ात्मा कर दो हमास का लेकिन यह पक्का इरादा दिखना चाहिए। यह लड़ाई इतनी ईमानदार नहीं जितनी राम की रावण के विरुद्ध थी। कोई दुविधा नहीं थी वहां। एक ही लक्ष्य बुराई और आतंक का ख़ात्मा। इस दौर में उम्मीद की जानी चाहिए कि दुनिया के अच्छे नागरिक सड़कों पर निकलकर इन हुक्मरानों को शांति की भाषा बोलने के लिए प्रेरित करें। ठीक ऐसा ही वियतनाम युद्ध के समय भी हुआ था।
रसूल हमजातोव की एक कविता है- 'भाई', जिसका अनुवाद फैज़ अहमद फैज़ ने किया है-
आज से बारह बरस पहले बड़ा भाई मरा
स्तालिनग्राद की युद्धभूमि में काम आया था
मेरी मां अब भी लिए फिरती है पहलू में ये ग़म
जब से अब तक पहने हुए है शोक की चादर
और उस दुख में मेरी आंख का गोशा तर है
अब मेरी उम्र बड़े भाई से कुछ बढ़कर है
(लेखिका स्वतंत्र पत्रकार हैं)