• कैसे जीवनयापन करते हैं बिरहोर

    छत्तीसगढ़ के कोरबा जिले के कुछ गांवों में बिरहोर आदिवासी निवास करते हैं। जंगल ही इनका जीवन है

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    - बाबा मायाराम

    बिरहोर जड़ी-बूटियों से इलाज करना जानते हैं। उन्हें किस बीमारी में कौन सी जड़ी काम आती है, इसकी जानकारी है। धौंरा की छाल को वे चाय पत्ती की तरह डालकर तरोताजा होने के लिए पीते हैं। वे अब भी कुछ छोटी-मोटी बीमारियों का इलाज जड़ी-बूटी से कर लेते हैं। पेड़ पौधों, और जड़ी बूटियों का इतना अच्छा पारंपरिक ज्ञान कम ही देखने को मिलता है।

    छत्तीसगढ़ के कोरबा जिले के कुछ गांवों में बिरहोर आदिवासी निवास करते हैं। जंगल ही इनका जीवन है। वे न सिर्फ जंगल में रहते हैं, उन पर निर्भर हैं, बल्कि जंगल का संरक्षण भी करते हैं। यह उनकी परंपराओं में है, उनकी जीवनशैली में है। आज मैं ऐसे अनूठे आदिवासी समुदाय की कहानी बताना चाहूंगा, जिससे पता चले कि उनका जीवन कैसा है, वे कैसे रहते और जीवनयापन कैसे करते हैं। क्या हम आदिवासियों के जीवन से कुछ सीख सकते हैं?

    बिर का अर्थ जंगल, और होर का अर्थ आदमी होता है। यानी जंगल का आदमी। बिरहोर आदिवासी विशेष रूप से पिछड़ी जनजातियों में से एक हैं। यह घुमंतू जनजाति मानी जाती है। हालांकि उनके पूर्वज सरगुजा जिले से इधर आए थे, लेकिन अब स्थायी रूप से यहीं बस गए।

    कुछ समय पहले मैं इस इलाके में गया था। इस यात्रा में मैंने देखा था कि यहां टेड़ा पद्धति से लोग सिंचाई भी करते हैं। इस पद्धति में कुओं से पानी निकालना आसान है, इसके लिए यहां टेड़ा का इस्तेमाल किया जाता है। टेड़ा और कुछ नहीं बांस की लकड़ी है जिसके एक सिरे पर पत्थर बांध दिया जाता है और दूसरे सिरे पर बाल्टी। पत्थर के वजन के कारण पानी खींचने में ज्यादा ताकत नहीं लगती। बिल्कुल सड़क के बैरियर या रेलवे गेट की तरह। टेड़ा से पानी खींचने में ताकत नहीं लगती, इशारे से बाल्टी ऊपर आ जाती है। पानी के बेजा इस्तेमाल पर रोक लगाने के लिए श्रम आधारित तकनीक बहुत उपयोगी है। आज जो हमने रासायनिक खेती की ऐसी राह पकड़ी है जिसमें श्रम आधारित काम की जगह सभी काम मशीनों व भारी पूंजी की लागत से होता है जबकि मानवश्रम बहुतायत में है। यह बहुत ही प्राचीन पर किफायत से पानी खर्च करने की पद्धति है।

    यहां राजिम प्रेरक संस्था से जुड़े रमाकांत जायसवाल और तिहारूराम बिरहोर ने बताया था कि बिरहोर मुख्यत: पूर्व में शिकार करते थे और वनोपज एकत्र करते थे। अब बिरहोर मुख्यत: बांस के बर्तन बनाते हैं और रस्सी बनाकर बेचते हैं। बांस के बर्तनो में पर्रा, बिजना, टुकनी, झउआ, बोंगी, चुरकी, सात सुपेली,सिखुन, झांपी और झलगी।
    पटुआ और मोगलई की छाल से रस्सी बनती है। खेती-किसानी में काम आनेवाली रस्सियां व मवेशियों को बांधने के लिए रस्सियां बनाते हैं। जोत, गिरबां, सींका, दउरी आदि चीजें इसी रस्सी से बनाते हैं। खेती और पशुपालन साथ-साथ होता है। इसके अलावा सरई पत्तों से दोना-पत्तल बनाकर बेचते भी हैं। इस सबसे ही उनकी आजीविका चलती है।

    बिरहोरों की आबादी कम है। इनकी जीवनशैली अब भी जंगल पर आधारित है। इनमें पढ़े-लिखे बहुत कम हैं। हालांकि अब साक्षर व शिक्षित होने लगे हैं। बांस के बर्तन बनाने, रस्सी बनाने के अलावा बहुत ही कम लोग खेती करते हैं।

    तिहारूराम ने बताया कि 'पहले अनाज खाने नहीं मिलता था। महुआ फूल को पकाकर खाते थे। ज्वार और बाजरा की रोटी खाते थे। लेकिन अब पहले जैसी स्थिति नहीं है।'
    माल्दा गांव, जो तिहारूराम का गांव है, उनके घर ही में रात में ठहरा था। खुले आसमान के नीचे खाट पर सोने का मौका मिला। तिहारूराम ने मुझे बताया थोड़ी देर में भगवान का लाइट आएगा और अधेरा भाग जाएगा। मैं आकाश में जगमगाते तारे और चांद की रोशनी देखते-देखते सो गया। मुझे गहरी नींद आई थी। उनका कुत्ता भी वहीं खटिया के पास सोता रहा था। खुले आसमान के नीचे सोने का मौका बहुत सालों बाद आया था। मुझे गांव में बचपन की याद भी आई जब गर्मी के दिनों में आंगन में खुले आकाश के नीचे ही सोते थे, जहां बुजुर्ग हमें तरैय्यों ( तारों) के बारे में बताते थे, उसी से समय का अनुमान लगाया जाता था। दूसरे दिन सुबह ठंडे तालाब के पानी में स्नान किया। तालाब में कमल के फूल खिले थे। वहां ग्रामीण संस्कृति की मिठास का अनुभव किया। छत्तीसगढ़ की एक पहचान तालाब भी हैं। यहां अधिकांश गांवों में तालाब होते हैं। यहां की पानीदार जल संरक्षण संस्कृति यहां की संस्कृति का हिस्सा है।

    तिहारूराम और रमाकांत जायसवाल ने बताया कि उन्होंने पहले दौर में कुछ गांवों का चयन किया है जिसमें जैविक खेती और किचिन गार्डन का काम किया जा रहा है। इन गांवों में जैविक खेती के लिए 50 किसानों को देसी बीजों का वितरण किए गए हैं। इसके लिए मालदा में बीज बैंक है। बाड़ियों ( किचिन गार्डन) के लिए भी देसी सब्जियों के देसी बीज दिए गए हैं।

    वे आगे बताते हैं कि इन गांवों में जैविक खेती में धान, झुनगा, अरहर, उड़द, हिरवां, बेड़े आदि खेतों में बोया गया है। और बाड़ियों में लौकी, भिंडी, बरबटी, कुम्हड़ा, तोरई, डोडका, मूली, पालक, भटा, करेला, चेंच भाजी, लाल भाजी इत्यादि। इसके अलावा, फलदार वृक्षों में मुनगा, बेर, पपीता, आम, जाम, आंवला, नीम, कटहल आदि का पौधे भी वितरित किए गए हैं।

    इसके अलावा, बिरहोर जड़ी-बूटियों से इलाज करना जानते हैं। उन्हें किस बीमारी में कौन सी जड़ी काम आती है, इसकी जानकारी है। धौंरा की छाल को वे चाय पत्ती की तरह डालकर तरोताजा होने के लिए पीते हैं। वे अब भी कुछ छोटी-मोटी बीमारियों का इलाज जड़ी-बूटी से कर लेते हैं। पेड़ पौधों, और जड़ी बूटियों का इतना अच्छा पारंपरिक ज्ञान कम ही देखने को मिलता है। मुझे कुछ ही समय में उन्होंने जड़ी बूटियों के नाम व उपयोग की काफी जानकारी दी।

    बिरहोर आदिवासियों का मुख्य त्यौहार खरबोज है। ठाकुरदेव, बूढ़ादेव, नागदेवता जंगल में है। माघ पूर्णिमा में यह त्यौहार मनाया जाता है। कर्मा नाचते हैं। नवापानी मनाते हैं। यह नए अनाजों के घर में आने की खुशी में मनाया जाता है, जिसे अन्य जगहों पर नुआखाई भी कहते हैं।

    बिरहोर जंगल से लेते ही नहीं हैं, बल्कि उसको बचाते भी हैं। जंगल के प्रति जवाबदारी भी समझते हैं। उनका जंगल से मां-बेटे का रिश्ता है। वे जंगल से उतना ही लेते हैं जितनी जरूरत है। उन्होंने ऐसे नियम कायदे बनाए हैं कि जिससे जंगल का नुकसान न हो।

    ग्रामीण बताते हैं कि वे कभी भी फलदार वृक्ष जैसे महुआ, चार, आम के पेड़ नहीं काटते। फलदार वृक्षों से कच्चे फलों को नहीं तोड़ते। किसी भी पेड़ की गीली लकड़ी को नहीं काटते। जरूरत पड़ने पर सबसे पहले जंगल में घूमकर सूखी लकड़ी तलाशते हैं, उसे ही काम में लेते हैं। अगर कोई पेड़ को सूरज का प्रकाश नहीं मिल रहा है, तो उसके आसपास साफ सफाई करते हैं, जिससे उसे सूरज की रोशनी मिल सके। पेड़ पौधों का संरक्षण भी बहुत जरूरी हो गया है।

    कुल मिलाकर, यह कहा जा सकता है कि बिरहोरों की जीवनशैली प्रकृति के साथ सहअस्तित्व की है। जंगलों के साथ उनका रिश्ता गहरा है। वे एक दूसरे के पूरक हैं। जंगलों की कमी और जलवायु बदलाव के दौर में जैविक खेती उपयोगी हो गई है। विशेषकर कम पानी वाली और बिना रासायनिक वाली जैविक खेती से भोजन सुरक्षा के साथ मिट्टी, पानी का संरक्षण और संवर्धन होगा। देसी बीज बचेंगे और जैव विविधता बचेगी और पर्यावरण भी बचेगी। बाड़ियों में हरी सब्जियां व फलदार वृक्षों से पोषण मिलेगा। सब्जियों के लिए बाजार पर कम निर्भरता होगी। जो कमी मौसम बदलाव के दौर में जंगलों से कंद-मूल व सब्जियों में आ रही है, उसकी पूर्ति होगी।

    आज दुनिया में पर्यावरण का संकट एक बड़ी समस्या के रूप में उभर रहा है। इसमें हमें प्रकृति के साथ सहअस्तित्व का जो रिश्ता आदिवासियों का है, उसे समझना जरूरी है। उनका नजरिया क्या है, कैसे वे बहुत कम संसाधनों में जीते हैं, कैसे वे पर्यावरण का संरक्षण करते हैं, उनकी श्रम आधारित जीवनशैली से किस तरह पर्यावरण का भी संरक्षण होता है, इस तरह की कहानियों में उसकी झलक मिलती है। क्या हम इस दिशा में आगे बढ़ेंगे?

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