• भविष्य में न्याय की उम्मीद

    भारत में बुधवार का दिन अदालती फैसलों और इन फैसलों के मद्देनजर की गई टिप्पणियों के लिए काफी खास रहा

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    भारत में बुधवार का दिन अदालती फैसलों और इन फैसलों के मद्देनजर की गई टिप्पणियों के लिए काफी खास रहा। टूलकिट मामले में आरोपी और फरार बताई जा रहीं निकिता जैकब को बॉम्बे हाईकोर्ट से जमानत मिल गई है और उनकी गिरफ्तारी पर तीन हफ्ते के लिए रोक भी लगा दी गई है। सरकारी वकील का कहना है कि निकिता के खिलाफ गैर जमानती वारंट इसलिए जारी किया गया था, क्योंकि वह दिन भर पुलिस से बचती रहीं। जबकि निकिता की वकील का तर्क है कि किसी एक चीज के लिए किसी को निशाना बनाना गलत है।

    निकिता ने टूलकिट पर रिसर्च की, केवल जानकारी के लिए। उनका मकसद हिंसा भड़काना नहीं था। इसी मामले में एक अन्य आरोपी शांतनु मुलुक को भी बॉम्बे हाईकोर्ट की औरंगाबाद ने जमानत दे दी है। किसान आंदोलन से ही जुड़े एक और मामले में दिल्ली की एक अदालत ने 15 फरवरी को महत्वपूर्ण टिप्पणी की थी कि उपद्रवियों का मुंह बंद करने के बहाने असंतुष्ट लोगों को खामोश करने के लिए राजद्रोह का कानून नहीं लगाया जा सकता है। यह टिप्पणी इस दौर के लिए बेहद माकूल है, क्योंकि पिछले कुछ वर्षों में अचानक कथित देशद्रोहियों की जमात बढ़ गई है। विरोध या असहमति की आवाज उठाने वाले बहुत से लोग राजद्रोह के आरोपी बनाए गए हैं, हालांकि इनमें से अधिकतर पर आरोप साबित नहीं हो पाया है। इस बार मामला दिल्ली पुलिस द्वारा गिरफ्तार दो व्यक्तियों का था, जिन पर फेसबुक पर फर्जी वीडियो डाल कर अफवाह फैलाने और राजद्रोह का आरोप लगाया गया।

    इनकी जमानत पर सुनवाई करते हुए अदालत ने कहा कि उनके समक्ष आए मामले में आईपीसी की धारा 124ए (राजद्रोह) लगाया जाना 'गंभीर चर्चा का मुद्दा' है। अदालत ने कहा कि समाज में शांति व व्यवस्था कायम रखने के लिए सरकार के हाथ में राजद्रोह का कानून एक शक्तिशाली औजार है। हालांकि, उपद्रवियों का मुंह बंद करने के बहाने असंतुष्टों को खामोश करने के लिए इसे लागू नहीं किया जा सकता। जाहिर तौर पर, कानून ऐसे किसी भी कृत्य का निषेध करता है जिसमें हिंसा के जरिये सार्वजनिक शांति को बिगाड़ने या गड़बड़ी फैलाने की प्रवृत्ति हो।

    बुधवार को एक महत्वपूर्ण फैसला नारी अस्मिता को लेकर आया। मी टू आंदोलन के दौरान देश में वरिष्ठ पत्रकार रहे पूर्व केन्द्रीय मंत्री एम जे अकबर पर भी 20 से ज्यादा महिलाओं ने यौन शोषण के आरोप लगाए थे। वरिष्ठ पत्रकार प्रिया रमानी ऐसे आरोप लगाने वाली पहली महिला थीं। इन आरोपों के बाद ही अकबर ने केन्द्रीय मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया था। 2018 में अकबर ने रमानी के खिलाफ आपराधिक मानहानि का मामला दर्ज किया था। जिस पर आज अदालत ने रमानी को सभी आरोपों से बरी कर दिया। अदालत ने कहा, 'महिलाओं को यौन शोषण के मामलों को उठाने के लिए दंडित नहीं किया जा सकता है।' इसके साथ ही अदालत ने यह भी साफ़ किया कि 'भारतीय संविधान महिलाओं को किसी भी मंच और किसी भी समय अपनी शिकायतों को उठाने की अनुमति देता है।' अदालत की यह टिप्पणी यौन शोषण की शिकार महिलाओं के लिए उम्मीद के नए दरवाजे खोलती है, क्योंकि बहुत से मामले केवल लोकलाज के कारण दबा दिए जाते हैं और बाद में समय की गर्द उन पर चढ़ जाती है। हालांकि इसमें पीड़िता का दर्द कम नहीं होता। अदालत ने रामायण और महाभारत के संदर्भों के साथ अपना फैसला सुनाया, जो यह बताता है कि समाज में नारी के लिए बराबरी का स्थान सारी कोशिशों के बाद भी कायम नहीं हो पाया है।

    संविधान ने सबको समान अधिकार दिए हैं, लेकिन समाज की सोच में अब तक गैरबराबरी हावी है। इसलिए उच्च शिक्षित और उच्च पदस्थ पुरुष भी अपने साथ या मातहत काम करने वाली स्त्री को गलत नजर से देख सकते हैं और इसलिए यौन शोषण के खतरे हमेशा मौजूद होते हैं। प्रिया रमानी मामले में अदालत ने कहा कि यौन शोषण गरिमा और आत्मविश्वास से दूर ले जाता है। प्रतिष्ठा के अधिकार को गरिमा के अधिकार की कीमत पर संरक्षित नहीं किया जा सकता। अदालत ने अपने फ़ैसले में ये भी कहा है कि सामाजिक प्रतिष्ठा वाला व्यक्ति भी यौन शोषण कर सकता है...समाज को समझना ही होगा कि यौन शोषण और उत्पीड़न का पीड़ित पर क्या असर होता है।
    असहमति का अधिकार और स्त्री का सम्मान इन दो ज्वलंत मुद्दों पर अदालती फैसले भविष्य में न्याय की उम्मीद बंधाते हैं।

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