हर्षोल्लास का पर्व होली हमेशा से भारतवासियों को आह्लादित करता रहा है। बेशक, यह देश की बहुसंख्यक आबादी यानी हिन्दुओं का त्यौहार हो लेकिन थोड़े-बहुत परहेज और एहतियात के साथ सभी सम्प्रदायों के लोग इसकी खुशियों में शामिल होते हैं। विशेषकर, मुस्लिमों की बात करें तो उन्हें उनकी मस्जिदों पर रंग लगने से आपत्ति रही है या फिर इसलिये कि वे जब नमाज़ पढ़ने जायें तो उनके अपने धार्मिक नियमों के मुताबिक उन्हें पाक-साफ होकर जाना होता है। इसलिये वे इससे दूर रहते हैं। संविधानसम्मत धर्मनिरपेक्ष एवं लोकतांत्रिक समाज बनने के पहले से ही भारत के बहुसंख्यक उनकी इस भावना का सम्मान करते आए हैं। अपनी मर्जी से और समाज में घुल-मिलकर रहने वाली प्रवृत्ति के चलते सभी सम्प्रदाय कमोबेश एक-दूसरे के त्योहारों में शामिल भी हो जाते हैं। मुसलमानों को होली के रंगों में सराबोर होते या हिन्दुओं को ईद के मौके पर मुसलमानों से गले मिलते या ईसाइयों को क्रिसमस की बधाई हुए आम तौर पर देखा जाता है।
इधर भारत बदल गया है। इसलिये उसके पर्व भी बदल गये हैं। राजनीतिक वर्चस्व व सत्ता कायम करने की इच्छा ने भारत को उस मकाम पर पहुंचा दिया है जहां कपड़ों, फूल-पत्तियों और रंगों का भी धर्म हो गया है तो त्योहारों की भला क्या बिसात? धर्म अब धर्मांधता है। देश के विभाजन के दौरान हिन्दुओं व मुसलिमों के बंटे हुए दिलों को राष्ट्र निर्माताओं ने अपने अथक प्रयासों एवं बलिदानों से फिर मिला दिया था। लोगों को प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की कही उस बात में दम नज़र आया, जिसमें उन्होंने समझाइश दी थी कि, 'एक सम्प्रदाय की कट्टरता दूसरे सम्प्रदाय की कट्टरता को खत्म नहीं करती बल्कि दोनों मिलकर कट्टरता को बढ़ाते हैं।' यही हो रहा है। देश के बंटवारे के समय की कट्टरता अंग्रेजों व कुछ साम्प्रदायिक संगठनों की देन कही जा सकती है जिस पर आम हिन्दुओं या मुसलिमों का वश नहीं था, लेकिन वर्तमान कट्टरता मौजूदा सत्ता की देन है।
सत्ता की चाहत ने देश को इस मोड़ पर ला खड़ा किया है कि हिन्दुओं के त्योहारों पर अल्पसंख्यकों के धार्मिक स्थलों और उनकी रिहायशी बस्तियों में भय का माहौल हो जाता है। ऐसा न होता तो उत्तर प्रदेश में, जो इस नफ़रती राजनीति की सबसे बड़ी प्रयोगशाला और रणभूमि है- सैकड़ों मस्जिदों को ढंककर न रखा जाता। यह किसी भी सभ्य समाज और लोकतांत्रिक देश के लिये शर्म का विषय होना चाहिये कि बहुसंख्यकों के व्यवहार से अल्पसंख्यक खौफ़ खाते हैं, जबकि बहुसंख्यकों का फज़र् बनता है कि वे अल्पसंख्यकों को महफूज़ रखें। पिछले कुछ समय से देश का माहौल देखें तो साफ हो जाता है कि क्यों मस्जिदें ढंकी गयी हैं।
सब को सुरक्षा देना सरकार का काम है, लेकिन जब एक आला पुलिस अधिकारी कहे कि 'जुम्मा साल में 52 बार आता है जबकि होली एक बार ही' और उसे प्रदेश का मुखिया समर्थन दे, तो समझ लेना चाहिये कि स्थिति ठीक नहीं है। पिछले कुछ अर्से से देखें तो हर हिन्दू त्यौहार पर सियासतदान और अनुषांगिक संगठनों के लोग, जिनमें ज्यादातर युवा होते हैं, मस्जिदों के सामने नाचेंगे-गायेंगे। ट्रेनों में कोई मुसलिम मिले तो उसके इर्द-गिर्द हनुमान चालीसा का पाठ शुरू हो जायेगा, जो न तो सामयिक होता है और न ही वांछित। पिछले कुछ समय से रामनवमी हो या हनुमान जयंती या ऐसा ही कोई त्यौहार- मस्जिदों के पास सामने आयोजन होंगे। फिर पत्थर चलेंगे- इस ओर से या उस ओर से। अंतत: पुलिस मामले बनेंगे और कुछ लोगों को पकड़कर ले जाया जायेगा। किन्हें ले जायेगा, यह बताने की ज़रूरत नहीं है। यहां तक कि किसी मुसलमान के घर में घुसकर उसकी छत पर लगा झंडा फेंककर भगवा लगाने के लिये युवाओं की बलि ली जा रही है।
एक ओर भाजपा की केन्द्र सरकार के नागरिकता कानून में बदलाव, जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 का विलोपन, तीन तलाक की समाप्ति, वक्फ़ बोर्ड में बदलाव जैसे कदमों से देश के हर शहर-कस्बे में साम्प्रदायिक तनाव व संघर्ष की जमीन तैयार हो चुकी है, तो वहीं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ लोगों में मुसलिमों के प्रति खौफ़ पैदा करने एवं हिन्दुओं में असुरक्षा की भावना पैदा कर रहा है। इससे अन्य धर्मों के लोगों के प्रति बहुसंख्यकों में हिंसा व घृणा का स्तर इस स्तर पर पहुंच चुका है कि पूरा देश हिन्दू-मुसलिम विमर्श में फंसकर रह गया है। दुर्भाग्य से नफ़रत के इस सैलाब को लाने वाला स्वयं पार्टी का शीर्ष नेतृत्व है। जहां प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी लोगों को कपड़ों से पहचानने का दावा करते हैं तो वहीं उप्र के योगी आदित्यनाथ 80 बनाम 20 की बात करते हैं। रमेश विधूड़ी जैसे लोग लोकसभा में मुसलिम सांसद को साम्प्रदायिक गाली देते हैं, तो उधर अनुराग ठाकुर विरोधी दल वालों को गोली मारने की सिफारिश करते हैं।
भारत में मुसलिम शासकों के काल का बार-बार ज़िक्र कर भाजपा-संघ और उसके सहयोगी संगठनों द्वारा लोगों की धार्मिक भावनाओं को पिछले एक दशक से अधिक समय से भड़काया जा रहा है। इसका अंजाम है कि इन दिनों मस्जिदों पर पथराव या उनमें तोड़-फोड़ करने की घटनाओं में बेतरह इज़ाफ़ा हुआ है। इन दिनों औरंगज़ेब विरोधी अभियान चलाया जा रहा है। सत्ता से नज़दीकी रखने वाले एक कवि ने तो यह सुझाव दिया कि उसके मकबरे को शौचालय बना दिया जाये। ऐसे माहौल में होली देश की धर्मनिरपेक्षता की अग्नि परीक्षा बन गई है। देखना होगा कि इस बार होलिका दहन के साथ धर्मांधता की बुराई समाज जला पाता है या नहीं।