- सर्वमित्रा सुरजन
मोहम्मद जुबैर की पत्रकारिता की पहचान यह है कि वो झूठी खबरों और भ्रामक तथ्यों के साथ चलाए जाने वाले वीडियो या तस्वीरों की पड़ताल करके सच को तथ्यों के साथ सामने लाने की कोशिश करते हैं। पिछले कुछ सालों में सोशल मीडिया और तकनीकी के कमाल के कारण फर्जी खबरों को गढ़ना या खबरों का घालमेल करना आसान हो गया है। इसके जरिए राजनेताओं की छवि बनाने या बिगाड़ने की मुहिम सोशल मीडिया पर चलाई जाती है।
ह,न ,म, न, इन क्रम में अक्षरों को लगाकर जिसके मन में जो मात्रा आए, उसे लगाकर शब्द बना ले। अक्षर कई और भी हैं, जैसे म, द, या न, य, प, ल, क। अब बनाते रहिए मनपसंद मात्राएं लगाकर, नए-नए शब्द या फिर इन अक्षरों को देखकर जो शब्द याद आए, वो लिख कर देखिए। हिंदी वर्णमाला के साथ ऐसा खेल बहुत देर तक खेला जा सकता है। सारा कमाल मात्राओं का है। जैसे ह, न, म, न के साथ 1983 में हृषिकेष मुखर्जी ने अपनी फिल्म किसी से न कहना में एक मजेदार दृश्य तैयार किया था। फिल्म जीवन की हकीकत के साथ लुका-छिपी को बड़े मजेदार तरीके से दिखलाती है।
हृषिकेष मुखर्जी तो साधारण से साधारण बातों में हास्य रस घोलने के अद्भुत निर्देशक थे। 1975 में आई उनकी फिल्म चुपके-चुपके में भी इसी तरह रोजमर्रा की सामान्य बातों, घटनाओं और रिश्तों को लेकर हास्य का ऐसा ताना-बाना उन्होंने बुना कि दशकों बाद भी ये फिल्म उतना ही आनंद देती है। चुपके-चुपके में ड्राइवर बन कर अपने साढ़ू भाई ओमप्रकाश को परेशान करने वाले धर्मेंद्र जबरदस्ती शुद्ध हिंदी का प्रयोग करते हैं और फिल्म में एक जगह ये संवाद भी है कि भाषा का इस तरह मज़ाक बनाना अच्छा नहीं लगता। तब उनकी पत्नी के बड़े भाई का किरदार निभा रहे डेविड उन्हें कहते हैं कि भाषा अपने आप में इतनी महान होती है, कि उसका मज़ाक नहीं उड़ाया जा सकता। लेकिन इस पुरानी बात को नए भारत में कौन समझना चाहता है।
बहरहाल, किसी से न कहना फिल्म में एक दृश्य है, जहां हनुमान होटल का बोर्ड लगा हुआ है, लेकिन ये भी दिखाया गया है कि न और म पर पहले लगी मात्राएं सफेदी लगाकर मिटाई गई है। दरअसल होटल का नाम पहले हनीमून होटल होता है। फिल्म में जरूरत के अनुरूप दृश्य डाला गया है और इसमें न किसी की भावनाएं आहत करने का मकसद दिखा, न किसी का मजाक उड़ाया गया। फिल्म बाकायदा सेंसर बोर्ड से प्रमाणित होकर सिनेमाघरों में भी चली और टीवी पर भी आई।
पिछले 40 सालों में इस फिल्म के इस दृश्य पर कभी कोई आपत्ति नहीं आई। लेकिन अब अचानक इससे हिंदू धर्म के डरपोक ठेकेदारों को डर लगने लगा है। हुआ यूं कि मोहम्मद जुबैर नाम के एक पत्रकार को उनके एक ट्वीट के कारण गिरफ्तार किया गया है। 2018 में श्री जुबैर ने एक ट्वीट किया था, जिसमें होटल साइनबोर्ड की तस्वीर साझा करते हुए पहले नाम को 2014 से पहले का और दूसरे नाम को 2014 के बाद का बताते हुए इसे संस्कारी होटल बताया था। 4 साल तक यह ट्वीट ट्विटर प्लेटफार्म पर बना रहा और इन चार सालों में देश में जो भी फसाद धर्म के नाम पर हुए, उसमें इस ट्वीट की भूमिका कहीं नहीं बताई गई। लेकिन अचानक 2021 में बने एक ट्विटर हैंडल से 19 जून को इस बारे में एक शिकायती ट्वीट किया गया कि इस फोटो से हिंदुओं का अपमान हुआ है और उसके बाद मोहम्मद जुबैर को सोमवार को भारतीय दंड संहिता की धारा 153 (दंगा भड़काने के इरादे से उकसाना) और 295 ((किसी भी वर्ग के धर्म या धार्मिक विश्वासों का अपमान करके उनकी धार्मिक भावनाओं को आहत करने के लिए किया गया जान-बूझकर और दुर्भावनापूर्ण कृत्य) के तहत गिरफ्तार किया गया।
मोहम्मद जुबैर की पत्रकारिता की पहचान यह है कि वो झूठी खबरों और भ्रामक तथ्यों के साथ चलाए जाने वाले वीडियो या तस्वीरों की पड़ताल करके सच को तथ्यों के साथ सामने लाने की कोशिश करते हैं। पिछले कुछ सालों में सोशल मीडिया और तकनीकी के कमाल के कारण फर्जी खबरों को गढ़ना या खबरों का घालमेल करना आसान हो गया है। इसके जरिए राजनेताओं की छवि बनाने या बिगाड़ने की मुहिम सोशल मीडिया पर चलाई जाती है। ऐसा करने वाले जानते हैं कि सोशल मीडिया की पैठ जनता तक बहुत गहरी हो चुकी है और जनता का एक बड़ा तबका किसी खबर पर विश्वास करने के लिए उसकी पड़ताल करना जरूरी नहीं समझता है। जो दिखाया जाता है, उसे ही वह सच मान लेता है और फिर धर्म की रक्षा के वास्ते उसे आगे 10 और लोगों तक पहुंचाने का नेक काम भी कर ही लेता है। जनता के इस सहयोग से नफरती और कट्टरपंथी सोच रखने वालों का काम आसान हो जाता है, फिर उन्हें संविधान की दुहाई जैसी बातों से भी कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन मोहम्मद जुबैर जैसे कुछ लोग फिर भी सच की पड़ताल में लगे रहते हैं। और शायद यही वजह है कि वो कुछ लोगों की निगाह में खटकने लगे।
विश्वसनीयता के भारी संकट से गुजर रही दिल्ली पुलिस मोहम्मद जुबैर की गिरफ्तारी से फिर सवालों के घेरे में है, लेकिन उसके लिए ये घेराबंदी बेमानी है। वो जानती है कि वो किसका हुुकुम बजा रही है, किसके इशारों पर काम कर रही है। संयोग देखिए, जिन आरोपों के साथ श्री जुबैर को गिरफ्तार किया गया, उसी तरह के आरोप नूपुर शर्मा, नवीन कुमार जिंदल, यति नरसिंहानंद जैसे लोगों पर भी दर्ज हैं, लेकिन कानून के हाथ इतने लंबे नहीं हैं कि इन लोगों तक पहुंच सके। कानून को तो इतना बौना बना दिया गया है कि एक मंत्री मंच से गोली मारो वाला नारा लगाता है, एक नेता भीड़ लेकर इसी तरह के नारे के साथ सड़क पर घूमता है और कानून उन तक पहुंच ही नहीं पाता। हृषिकेष मुखर्जी होते तो आज ऐसे कानून पर भी कोई हास्य गढ़ते हुए दृश्य तैयार करते या फिल्म ही बना लेते, लेकिन फिर ये भी तय था कि उन पर भी गिरफ्तारी की तलवार मंडराती।
मोहम्मद जुबैर पर इस तरह की कानूनी कार्रवाई की निंदा देश-विदेश में हो रही है। लेकिन भारत अब इतना महान बन चुका है कि उसे ऐसी आलोचनाओं से कोई फर्क नहीं पड़ता। पिछले आठ सालों में कई अंतरराष्ट्रीय मंचों और संस्थाओं से धार्मिक द्वेष और कट्टरपंथ के बनते माहौल पर चिंता जतलाई जा चुकी है, मगर उस चिंता को दूर करने की कोई पहल नजर नहीं आती। बल्कि अब तो हाल ऐसा दिख रहा है कि भारत की सीमाओं के भीतर जो इस तरह की चिंता दिखलाएगा या पीड़ितों के पक्ष में खड़ा होगा, उसे भी गुनहगार बना दिया जाएगा। अभी पिछले दिनों ही 2002 में गुजरात दंगों की पीड़ित ज़किया जाफरी की याचिका देश के सर्वोच्च न्यायालय से भी खारिज हो गई। ये याचिका उन्होंने तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को विशेष जांच दल यानी एसआईटी की मिली क्लीन चिट के खिलाफ दायर की थी। यानी श्री मोदी पहले ही पाक-साफ घोषित किए जा चुके थे और अब माननीय अदालत ने उस पर अपनी मुहर भी लगा दी। निश्चित ही यह उनके लिए और समूची भाजपा के लिए बड़ी जीत है, क्योंकि तमाम तरह की उपलब्धियां गिनाने के बावजूद गुजरात दंगों का जिन्न कहीं न कहीं से सिर उठा ही लेता था। अब सारे फन कुचले जा चुके हैं।
लेकिन आगे भी कोई सिर न उठाए, इसे गुजरात प्रशासन ने सुनिश्चित कर लिया है। अदालत के फैसले को उद्धृत करते हुए गुजरात एटीएस ने सामाजिक कार्यकर्ता और पिछले 20 सालों से दंगा पीड़ितों की आवाज उठाने का काम कर रही वरिष्ठ वकील तीस्ता सीतलवाड़ और पूर्व डीजीपी आरबी श्रीकुमार को गिरफ्तार कर लिया है। इस गिरफ्तारी पर संयुक्त राष्ट्रसंघ से लेकर पूर्व न्यायाधीश तक हैरानी जतला रहे हैं। लेकिन जब शब्दों की हेर-फेर को इस देश में गहन गंभीर अपराध माना जाने लगा है, तब किसी भी बात पर हैरान नहीं होना चाहिए। अगर कभी ये सुनने मिले कि 2001 के बाद सीधे 2003 आया है और 2002 सरस्वती की धारा की तरह कैलेंडर से विलुप्त है, तब भी हैरान नहीं होना चाहिए।