• लड़कियों के लिए नर्क देश

    राजस्थान में तीन सगी बहनों ने एक साथ आत्महत्या कर ली। उनके साथ दो अबोध और दो अजन्मे बच्चों की भी मौत हो गई

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    - सर्वमित्रा सुरजन

    बेटियों के लिए हर आए दिन नए-नए नारे गढ़ने, साल में दो बार कन्या पूजन करने और देवियों को ऊंचे स्थान पर रखकर उनकी पूजा करने से बेहतर है कि जो जिंदा बेटियां अपने घर, आसपास और समाज में हैं, उन्हें अच्छी शिक्षा और आगे बढ़ने का माहौल दिया जाए। उनकी शारीरिक संरचना के आधार पर भेदभाव न हो और उन्हें हर तरह की प्रताड़ना से बचाया जाए, यही सही मायनों में पूजा होगी।

    राजस्थान में तीन सगी बहनों ने एक साथ आत्महत्या कर ली। उनके साथ दो अबोध और दो अजन्मे बच्चों की भी मौत हो गई। बड़ी बहन के 4 साल और 25 दिन के दो बच्चे थे, जबकि दोनों छोटी बहनें सात और नौ महीने की गर्भवती थीं। एक साथ सात जिंदगियां खत्म हो गईं या खत्म करने पर मजबूर कर दी गईं, ये सवाल अब उलझा हुआ है। लेकिन उसका जवाब मिल भी जाए, तो इस सच्चाई को नहीं बदला जा सकता कि भारत में लाखों लड़कियों के लिए नर्क जैसा माहौल बना हुआ है, तभी वो जीने से बेहतर मर जाना समझती हैं। मृतकों में सबसे छोटी बहन ने यही व्हाट्सअप स्टेटस लगाया हुआ था कि 'जीने से मरना ठीक है, ससुराल से परेशान हैं। घरवाले हमारी चिंता न करें।' इन बहनों के मौसा ने इस स्टेटस को देखा तो सकते में आए।

    उन्होंने बहनों के मायके वालों से संपर्क किया, जिसके बाद मृतकों के रिश्तेदार चंद किमी की दूरी पर उनके ससुराल जाकर पूछताछ करने पूछे। ससुराल वाले भी नहीं जानते थे कि तीनों बहनें गई कहां। इसके बाद पुलिस में मामला दर्ज करने और ढूंढने की कवायद शुरु हुई। आखिरकार तीन दिन बाद तीनों बहनों और उनके साथ अबोध बच्चों का शव एक कुएं से मिला। सभी का अंतिम संस्कार उनके मायके में किया गया। जो व्हाट्सअप स्टेटस है, उससे तो यही प्रतीत होता है कि ससुराल की प्रताड़ना से तंग आकर तीनों बहनों ने मौत को गले लगा लिया। लेकिन मृतक महिलाओं के भाई को शक है कि उन्हें मार डाला गया है। पुलिस ने फिलहाल मृतक महिलाओं के पतियों, उनकी सास और जेठानी को गिरफ्तार किया है। अब जांच का लंबा दौर चलेगा, उसके बाद अगर कोई दोषी ठहराया जाएगा, तो उसे किस तरह की सजा मिलेगी, ये कहा नहीं जा सकता।

    वैसे अब किसी को सजा मिले या कोई अपराध करके बच जाए, हकीकत ये है कि वो सात जिंदगियां अब कभी वापस नहीं आएंगी। तीनों बहनों के साथ उनके बच्चों के साथ हुए अन्याय के दोषी दो-चार लोग नहीं पूरा समाज और हमारी पितृसत्तात्मक व्यवस्था है, जिसे कभी कोई सजा नहीं मिलेगी। बाल विवाह और दहेज प्रथा, इन दो सामाजिक बुराइयों के बारे में देश में दशकों से जागरुकता के कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं। शादी कोई गुड्डे-गुड़ियों का खेल नहीं है, दहेज लेना और देना दोनों अपराध है, ऐसे वाक्य न जाने कितनी बार घिसे जा चुके हैं।

    मगर उनका कोई असर समाज पर नहीं पड़ता। समाज में ये दोनों कुरीतियां अब भी चल ही रही हैं। पीड़िता तीनों बहनें इन दोनों ही कुप्रथाओं का शिकार बनीं। इन तीनों की शादी बचपन में तीन सगे भाइयों के साथ कर दी गई थी। अपनी पढ़ाई इन्होंने शादी के बाद भी जारी रखी और बीच वाली बहन सरकारी नौकरी के लिए परीक्षा भी दे रही थी। जाहिर है खुद के लिए और अपने बच्चों के बेहतर भविष्य के लिए उन्होंने सपने देखे होंगे। विपरीत हालात में भी वे जीने का हौसला जुटा रही थीं। लेकिन शायद इस हौसले पर पुरुष प्रधान समाज की सड़ी-गली मान्यताएं भारी पड़ गईं।

    खबरों के मुताबिक इन बहनों को दहेज के लिए प्रताड़ित किया जाता था। आम हिंदुस्तानी घरों में लड़कियों को पराए धन के टैग के साथ पाला-पोसा जाता है। और उन्हें ये अहसास बार-बार कराया जाता है कि पति का घर ही उनका असली घर है। मायके से डोली और ससुराल से अर्थी जैसी दकियानूसी बातें उन्हें जीवन के सत्य की तरह समझाई जाती हैं। इसका नतीजा ये होता है कि ससुराल में हो रही तकलीफों के बावजूद लड़कियां सब कुछ सहती रहती हैं। लोक-लाज, मां-बाप की बदनामी का डर, रिश्तेदारों के ताने, तलाकशुदा या पति से अलग होने का तमगा इन सबकी वजह से लड़कियां सभी तरह के अन्याय सहती रहती हैं। फिर चाहे दहेज के लिए ताने हों, बेटा पैदा करने का दबाव हो या घरेलू हिंसा, हर जुल्म उन्हें सहन करना पड़ता है। लड़कियां अगर आर्थिक तौर पर आत्मनिर्भर न हों, तब उनके लिए तकलीफें और ज्यादा बढ़ जाती हैं। और जब पानी सिर के ऊपर से गुजरता है तब मरना ही एकमात्र उपाय नजर आने लगता है।

    राजस्थान की इन तीनों बहनों के साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ होगा। चंद दूरी के फासले पर स्थित मायके तक आने की हिम्मत वो नहीं जुटा पाईं, तो ये उनके मां-बाप, भाइयों को सोचना चाहिए कि आखिर उन्होंने अपने घर लौटने की जगह दूसरी दुनिया में जाने का रास्ता क्यों चुना। इस मामले में एक साथ सात जिंदगियां खत्म हुई हैं, इसलिए मामला और भयावह नजर आ रहा है। लेकिन अगर हिंदुस्तान में इस तरह मरने वाली महिलाओं की गिनती की जाए, तो यही नजर आएगा कि किस तरह की घुटन में महिलाएं जीवन बिताती हैं।

    बेटियों के लिए हर आए दिन नए-नए नारे गढ़ने, साल में दो बार कन्या पूजन करने और देवियों को ऊंचे स्थान पर रखकर उनकी पूजा करने से बेहतर है कि जो जिंदा बेटियां अपने घर, आसपास और समाज में हैं, उन्हें अच्छी शिक्षा और आगे बढ़ने का माहौल दिया जाए। उनकी शारीरिक संरचना के आधार पर भेदभाव न हो और उन्हें हर तरह की प्रताड़ना से बचाया जाए, यही सही मायनों में पूजा होगी। वैसे ये संयोग ही है कि जब राजस्थान में तीन बहनों की आत्महत्या की खबर आई, उसके बाद यूपीएससी का रिजल्ट आया, जिसमें पहले तीन स्थान पर लड़कियां ही हैं। इससे पहले निकहत ज़रीन मुक्केबाजी की विश्वचैंपियनशिप जीत चुकी हैं और गीतांजलिश्री ने साहित्य का प्रतिष्ठित बुकर सम्मान अपने उपन्यास के लिए हासिल किया है। लड़कियां बार-बार अपने आप को साबित कर रही हैं, कभी समाज भी तो खुद को साबित करके दिखाए कि वो 21वीं सदी का है।

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