- एल. एस. हरदेनिया
न सिर्फ राष्ट्र के स्तर पर परंतु अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी यह महसूस किया जा रहा है कि पिछले वर्षों में भारत में प्रजातंत्र के स्तर में कमी आई है। प्रजातंत्र के स्तर के पैमाने पर विश्व के स्तर पर देश के 180 देशों में से भारत का स्थान 140वां है। इसी तरह मानवीय आजादी के आधार पर 162 देशों में भारत का स्थान 111वां है। अमेरिकी थिंक टैंक फ्रीडम हाउस के अनुसार भारत 17 से 100 वें स्थान पर आ गया है।
नसिर्फ देश का सर्वोच्च न्यायालय, अनेक उच्च न्यायालय, अनेक समाचार पत्र, संविधान एवं न्यायिक क्षेत्र के अनेक विशेषज्ञ, और यहां तक कि दुनिया के विभिन्न देशों की मानवाधिकार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के प्रति प्रतिबद्ध संस्थाएं यह मानती हैं कि भारत में बोलने और लिखने की आजादी पर पिछले वर्षों से अंकुश लग रहे हैं। इन सबकी यह भी मान्यता है कि केन्द्र में सत्ताधारी राजनीतिक दल के विरोध में बोलने, लिखने या किसी प्रकार का अभियान या आंदोलन चलाने वालों को डराने, धमकाने और आतंकित करने के लिए विभिन्न प्रकार के हथकंडे अपनाए जाते हैं। इन हथकंडों में शामिल हैं आलोचना करने वालों के विरूद्ध आर्थिक मुद्दों को लेकर छापे डालना, ऐसे लोगों के विरूद्ध मनी लांडरिंग के मामले दर्ज कर देना, ऐसे लोगों के विरूद्ध देशद्रोह का आरोप लगा देना, यदि ऐसा व्यक्ति समाचार पत्रों का प्रकाशक है तो उसे सरकारी विज्ञापनों से वंचित कर देना इत्यादि।
ऐसे लोगों के विरूद्ध देशद्रोह का आरोप बिना किसी आधार के लगा दिया जाता है। यह बात मुकुल रोहतगी ने भी स्वीकार की है। रोहतगी नरेन्द्र मोदी की सरकार के एटार्नी जनरल रहे हैं और उन्होंने सरकार की तरफ से तीन तलाक समेत अनेक महत्वपूर्ण मामलों में पैरवी की है। वे अटलबिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्रित्व के समय अतिरिक्त सालीसिटर जनरल भी रहे हैं। इंडियन एक्सप्रेस (1 मार्च) को दिए एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा कि दिशा रवि पर देशद्रोह का आरोप लगाना पूरी तरह गलत था। इस तरह के घटिया हथकंडे अपनाकर असहमति को दबाना पूरी तरह से संविधान विरोधी हरकत है। रोहतगी ने कहा कि देशद्रोह (सेडिशन) संबंधी कानून अंग्रेजी साम्राज्य की देन है। अंग्रेज ऐसे लोगों के विरूद्ध इस कानून का उपयोग करते थे जो हिंसा के सहारे साम्राज्य को उखाड़ फेंकने का प्रयास करते थे। दिशा के मामले में ऐसा कोई सबूत नहीं था कि उसने सरकार को अपदस्थ करने के लिए हिंसा का उपयोग किया था। यह पुलिस का 'ट्रिगर हैप्पी’ कदम था। असहमति और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को दबाने के लिए इस तरह की हरकत करना पूरी तरह से संविधान विरोधी है।
ऐसे ही बेबुनियाद आरोप दलित युवती नवदीप कौर पर भी लगाया गया। वह लंबे समय से औद्योगिक श्रमिकों के अधिकारों के लिए संघर्ष कर रही हैं। उसे न केवल गिरफ्तार किया गया वरन पुलिस ने उसके साथ मारपीट भी की। उसने कहा कि उसे इस बात की उम्मीद नहीं थी कि उसे देश और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इतना समर्थन मिलेगा।
बिना किसी ठोस आधार के गिरफ्तारी की प्रवृत्ति पिछले कुछ वर्षों में द्रुतगति से बढ़ी है। इस प्रवृत्ति पर चिंता प्रकट करते अनेक लेख लिखे गए हैं।
इसी तरह का एक लेख पूर्व केन्द्रीय गृह मंत्री पी. चिदम्बरम ने भी लिखा है। लेख का शीर्षक है-'कोर्ट्स साउंड दि बेल फार लिबर्टी’ अपने लेख में चिदम्बरम वर्षों पहले सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश स्वर्गीय न्यायमूर्ति व्हीएस कृष्णा अय्यर द्वारा दिए गए एक ऐतिहासिक निर्णय का उल्लेख करते हैं। इस निर्णय में अय्यर ने कहा था कि बुनियादी नियम होना चाहिए 'बेल नाट जेल’ (जमानत, जेल नहीं)। इन दिनों इसके ठीक विपरीत हो रहा है। आजकल बिना किसी ठोस कारण के जांच करने वाली एजेन्सी आरोपी की जमानत का विरोध करती है। जिससे अंडर ट्रायल कैदी बेवजह जेलों में सड़ते रहते हैं। अर्नब गोस्वामी को जमानत देते हुए सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश डीवाय चन्द्रचूड़ ने कहा कि किसी की एक दिन की भी लिबर्टी (स्वतंत्रता) को छीनने का मतलब होता है उसे अनेक दिनों की स्वतंत्रता से विमुख करना (Deprivation of liberty even for a single day is one day too many)। चिदम्बरम आगे लिखते हैं कि अब अनेक न्यायाधीश आरोपी पक्ष से सहमत नहीं होते हैं और जमानत दे रहे हैं।
इसी तरह जानी-मानी पत्रकार तवलीन सिंह लिखती हैं कि असहमति से लोकतंत्र मजबूत होता है। वे लिखती हैं कि देशद्रोह संबंधी कानून का उपयोग सत्ता में बैठे लोगों के अहं को संतुष्ट करने के लिए नहीं किया जाना चाहिए। इस संदर्भ में वे न्यायाधीश धर्मेन्द्र राणा की टिप्पणी का उल्लेख करती हैं जो उन्होंने दिशा रवि को जमानत देते हुए की थी। उनकी राय मात्र इसलिए उल्लेखनीय एवं महत्वपूर्ण नहीं है क्योंकि उन्होंने उपयुक्त शब्दों का उपयोग किया बल्कि वह इसलिए भी उल्लेखनीय एवं महत्वपूर्ण करने वाली है क्योंकि उन्होंने ऐसे समय में यह टिप्पणी करने का साहस दिखाया जब कवियों, शायरों, पत्रकारों, व्यंग्यकारों और फिल्म निर्माताओं के विरूद्ध देशद्रोह के कानून का उपयोग किया जा रहा है।
धर्मेन्द्र राणा के निर्णय की प्रशंसा अनेक समाचार पत्रों ने की। जैसे 'इंडियन एक्सप्रेस’ ने 25 फरवरी के अपने संपादकीय में लिखा कि ''राणा का निर्णय अनेक अदालतों के लिए प्रेरणा का आधार हो सकता है। उन्होंने वह किया जो आज न्यायपालिका को करना चाहिए। राणा ने अपने निर्णय में पिछले दिनों उच्चतर अदालतों द्वारा दिए गए निर्णयों का उल्लेख करते हुए यह भी कहा है कि अभिव्यक्ति के अधिकार में अंतरराष्ट्रीय श्रोताओं तक अपनी बात पहुंचाने का अधिकार भी शामिल है।’
चिदंबरम ने अपने एक अन्य लेख में कहा है कि क्या इस बात से इंकार किया जा सकता है कि समाज के विभिन्न वर्गों के लोग अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर दबाव अनुभव कर रहे हैं, मीडिया के एक बड़े भाग को तोता बनने के लिए बाध्य कर दिया गया है, समाज में कुछ ऐसा वातावरण बन गया है कि मुसलमानों, ईसाईयों, दलितों और आदिवासियों के विरूद्ध अपराधों में वृद्धि हो रही है। क्या यह सच नहीं है कि मुसलमानों को आतंक फैलाने के लिए दोषी ठहराया जा रहा है। क्या यह सही नहीं है कि केन्द्रीय सरकार में तानाशाही प्रवृत्तियां बढ़ती जा रही हैं, आपराधिक कानूनों का उपयोग असहमति को दबाने के लिए हो रहा है, टैक्स कानूनों का उपयोग विरोधियों को डराने के लिए किया जा रहा है। पुलिस और जांच एजेन्सियों का उपयोग बिना किसी ठोस आधार के किया जा रहा है। क्या यह सही नहीं है कि आर्थिक नीतियों का उपयोग धनी लोगों के हितों की रक्षा के लिए किया जा रहा है। क्या इससे इंकार किया जा सकता है कि समाज में एक प्रकार का भय का वातावरण निर्मित हो रहा है।’
न सिर्फ राष्ट्र के स्तर पर परंतु अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी यह महसूस किया जा रहा है कि पिछले वर्षों में भारत में प्रजातंत्र के स्तर में कमी आई है। प्रजातंत्र के स्तर के पैमाने पर विश्व के स्तर पर देश के 180 देशों में से भारत का स्थान 140वां है। इसी तरह मानवीय आजादी के आधार पर 162 देशों में भारत का स्थान 111वां है। अमेरिकी थिंक टैंक फ्रीडम हाउस के अनुसार भारत 17 से 100 वें स्थान पर आ गया है।
स्वीडन की एक संस्था के अनुसार भारत में प्रजातंत्र का स्तर दिन ब दिन गिरता जा रहा है। यह बात मीडिया, सिविल सोसायटी और प्रतिपक्ष की पार्टियां भी महसूस कर रही हैं। स्वीडन की यह संस्था सारे विश्व के विभिन्न देशों में प्रजातंत्र के घटते-बढ़ते स्तर पर नजर रखती है। इसका मुख्यालय स्वीडन के गोथेनबर्ग नामक विश्वविद्यालय में है। संस्था ने कहा है कि भारत से प्रेस की आजादी पर दबाव के समाचार पहले की तुलना में काफी अधिक संख्या में सुनने और पढ़ने को मिल रहे हैं। नरेन्द्र मोदी का हिन्दू राष्ट्रवादी शासन इस तरह की प्रवृत्तियों के बढ़ने के लिए जिम्मेदार है।