• भाग्य का खेल

    श्रीलंका के राष्ट्रपति भवन पर जनता ने कब्जा कर लिया और प्रधानमंत्री निवास में आग लगा दी

    Share:

    facebook
    twitter
    google plus

    - सर्वमित्रा सुरजन

    लोकतंत्र में यही दिक्कत है कि यहां सवाल कभी खत्म नहीं होते। न जाने विरोध का अधिकार देकर देवतुल्य शासकों के लिए अड़चन का इंतजाम क्यों किया गया है। खैर सुनो, मौत तो हर जीवन का आखिरी परिणाम है। अब इस परिणाम को कौन पहले भुगतता है, कौन बाद में, इस पर तो केवल भाग्य का जोर है।

    श्रीलंका के राष्ट्रपति भवन पर जनता ने कब्जा कर लिया और प्रधानमंत्री निवास में आग लगा दी।
    हां मैंने भी सुना। लेकिन इस बार किसका अपहरण करके वहां की वाटिका में कैद रखा गया। वैसे मैं कहता था न कि इतिहास खुद को दोहराता है।
    अब इसमें इतिहास कहां से आ गया। श्रीलंका में इससे पहले ऐसा कब हुआ है। और ये अपहरण और वाटिका में रखने की बात कहां से आ गई।
    तुम्हें क्या अपने धर्म, संस्कृति और इतिहास के बारे में कुछ भी नहीं पता। जब सीता मैया को दुष्ट रावण हर के ले गया था, तब हनुमान जी ने ही तो सारी लंका जला डाली थी। पापियों को सबक सिखाना जरूरी होता है।

    अरे भाई, तुम फिर उसी राम राज्य की चर्चा में लग गए। तुम्हें क्या उसके अलावा कुछ सूझता नहीं है। अभी हमारे यहां से किसी का हरण नहीं हुआ, बल्कि श्रीलंका में लोकतंत्र की भावनाओं का क्षरण हुआ है। जिसके बाद जनता की नाराजगी शासकों के आवास पर कहर बन कर टूटी है। जनता के सब्र का प्याला छलका और एक तूफान आ गया, जिससे अब श्रीलंका निपटने में लगा हुआ है। और पापियों को सबक सिखाने जैसी बातें लोकतंत्र में नहीं हो सकती। इसके लिए न्यायपालिका बनी हुई है। अब वो युग नहीं रहा, जब राजा भगवान के समान माने जाते थे और प्रजा को राजा की हर बात सिर झुकाकर माननी होती थी, वर्ना राजद्रोह का दोषी मानकर सजा दी जाती थी। अब जमाना बदल गया है।

    तुम कुछ भी कहो, लेकिन जमाना हमारे लिए तो कभी नहीं बदला। हम पहले भी राम राज्य चाहते थे, हम अब भी उन्हीं को चाहते हैं जो राम को लाने की बात करते हैं। जब जयश्रीराम के नारों से धरती कांप जाएगी, आसमान थर्रा जाएगा, हम तो उन अच्छे दिनों की आस लगाए बैठे हैं। और हमारे लिए तो राजा आज भी भगवान ही है।
    अच्छा अगर राजा भगवान हैं, तो फिर भक्तों को इतने सारे कष्टों में पड़े देख चुप क्यों रहते हैं।

    तुम भी न, बस रहोगे तर्क की बात करने वालों के चेले। जरा सा कुछ इधर-उधर होता नहीं कि बस सवाल पर सवाल दागते हो। रहते हो मूर्तिपूजक देश में और मूर्तियों की खासियत नहीं पहचानते। प्राचीन सभ्यताओं से लेकर आधुनिक काल तक सैकड़ों किस्म की मूर्तियां तुमने प्रत्यक्ष या तस्वीरों में देखी होगी, फिर भी नहीं जानते कि मूर्तियां चुप रहती हैं। भगवान के सामने रोज कितने लोग रोते हैं, गिड़गिड़ाते हैं, अपने कष्टों से मुक्ति की याचना करते हैं। लेकिन क्या कभी भगवान को बोलते या भक्तों को चुप कराते सुना है। वो तो बस जड़वत् सब कुछ सुनते रहते हैं। यही काम अब धरती पर उनके प्रतिनिधि राजा भी करते हैं। वो भी जब से तख्तनशीं हुए हैं, कितने सारे हादसों के गवाह बन चुके हैं। कभी लोग अपने पैसों के लिए लाइन में खड़े-खड़े मर गए, कभी महामारी के दौर में जबरन घरवापसी में मर गए, कभी अपने हक की आवाज़ उठाने में मारे गए, कभी दूसरों के लिए आवाज़ उठाने पर मार दिए गए। अब जब तक जिंदगी है मरने-मारने का सिलसिला तो चलता ही रहेगा। तो क्या तख्त पर बैठा भगवान का दूत, यही काम करता रहेगा कि सबके दुख में शामिल होकर रोता जाए। उसका काम शासन चलाना है, बोलना-बतियाना नहीं। इसलिए भगवान की मूर्ति से प्रेरणा लेकर सब कुछ देखते हुए चुप रहा जाए, यही वक्त की मांग है।

    जो तुम कह रहे हो, उस बात में सच्चाई तो है। अगर शासक प्रजा के कष्टों पर बोलना शुरु कर दें तो फिर सिंहासन पर बैठना मुश्किल होने लगेगा। लगता है श्रीलंका के शासक, भगवान के दूत नहीं रहे होंगे या फिर उन्होंने बोलने की कोशिश की होगी। तभी उन्हें भागना पड़ा। लेकिन एक बात बताओ, हमारे यहां तो बच्चे को भी भगवान का रूप बताया गया है। हम तो भगवानों के जन्म का उत्सव भी ऐसे ही मनाते हैं, जैसे बच्चे का जन्म होने पर, उसके विभिन्न संस्कारों पर और पहले जन्मदिन पर मनाते हैं। फिर अगर कोई बच्चा अपनी मासूम अवस्था में मौत जैसी कड़वी सच्चाई से साक्षात्कार करे, तो क्या तब भी भगवान का हृदय नहीं पसीजता।

    लोकतंत्र में यही दिक्कत है कि यहां सवाल कभी खत्म नहीं होते। न जाने विरोध का अधिकार देकर देवतुल्य शासकों के लिए अड़चन का इंतजाम क्यों किया गया है। खैर सुनो, मौत तो हर जीवन का आखिरी परिणाम है। अब इस परिणाम को कौन पहले भुगतता है, कौन बाद में, इस पर तो केवल भाग्य का जोर है।

    ये सही है, जहां तर्क से जवाब न देते बने, वहां भाग्य पर जिम्मेदारी थोप दो। अच्छा ये बताओ कि सड़क किनारे आठ साल का वो मासूम बच्चा अपने दो साल के भाई की लाश लेकर बैठा है, और उसका पिता एक एंबुलेंस के लिए दर-दर भटक रहा है, उसमें किसका भाग्य दोषी ठहराया जाएगा। उस बच्चे का, जो समय पर इलाज न मिलने के कारण अकाल मौत मर गया या आठ साल के उस भाई का, जो इस अबोध उम्र में लाश का बोझ ढोने को मजबूर कर दिया गया। जिसकी गोद में खिलौने और किताबें होनी चाहिए, वहां लाश क्यों रखी हुई है। जिस बच्चे को बीमारी में इलाज मिलना चाहिए था, उसकी जगह उसे मौत क्यों मिली। एक पिता, जिसके पास अपने बच्चे की मौत पर रोने की फुर्सत न हो, क्योंकि उसकी लाश को श्मशान तक पहुंचाने के लिए उसके पास कोई साधन नहीं है, क्या उसमें भी भाग्य का ही दोष है। अगर सब बातों के लिए भाग्य ही जिम्मेदार है, तो फिर हम सरकार क्यों चुनते हैं, समाज में क्यों रहते हैं। भाग्य को ही सरकार मान लें और समाज के कायदों को मानना छोड़ दें। क्योंकि सरकार तो जवाब देती नहीं है और समाज मदद के लिए आगे बढ़ने की जगह वीडियो और तस्वीरें बनाने में लगा हुआ है।

    डिजीटल देश होने का एक फायदा ये भी है कि दर्द को भी डिजीटल होते देखा जा सकता है। डिजीटल दर्द में दर्द की अनुभूति नहीं होती, लेकिन प्रचार भरपूर हो जाता है। डिजीटल दर्द की सैकड़ों तस्वीरें रोजाना देखने मिल जाएंगी। कभी किसी आदिवासी महिला की अधजली हालत में तस्वीर आती है, कभी प्रेम करने की सजा पाई लड़की की तस्वीर आती है, कभी किसी अल्पसंख्यक को पीटा जाता है, तो वो दर्द भी डिजीटल होकर वायरल हो जाता है। दो साल पहले भी ऐसी एक तस्वीर सामने आई थी, जिसमें बच्चे की मां की लाश रखी हुई थी और उस पर ढंकी चादर को हटाकर बच्चा अपनी मां को उठाने की कोशिश कर रहा था। सरकार की आंखों के सामने, समाज के बीच में वो बच्चा अपनी मां की मौत से बेखबर उसे उठाने में लगा हुआ था। क्या ये भी उस बच्चे के भाग्य का दोष था।

    ओ हो तुम तो भाग्य की खाल उधेड़ने में ही लग गए। भाग्य के खेल तो ज्ञानीजन समझते हैं। हमारे-तुम्हारे जैसे साधारण लोगों की क्या बिसात। तुम तो ये देखो कि हमारे पड़ोसी देशों में जब उथल-पुथल मची है, कहीं सरकार बदल गई, कहीं शासक भाग गए। और हमारे यहां चार शेरों को नयी गर्जना और भाव-भंगिमा के साथ ऊंचाई पर स्थापित कर दिया गया है। अब उनकी जो गरज होगी, तो मजाल है कि कोई हमें विश्व गुरु नहीं मानेगा। और एक बार ऐसा हो गया तो ये तय है कि राम राज्य आ ही जाएगा। लंका के जलने के बाद अयोध्या में रामराज्य ही आया था।
    तो क्या रघुपति राघव राजा राम, हमारा नया गान होगा।

    अरे नहीं, वो तो शांत, सौम्य राजा राम की याद दिलाता है। बदले जमाने में राम भी क्रोध में धनुष-बाण उठाए हुए हैं, हनुमान जी भी गुस्से में हैं और अब शेरों को भी गुस्सा आ गया है। इन क्रोधित मुद्राओं से दुनिया को डरना ही होगा। बाकी जो होगा, उसे भाग्य का खेल मानकर स्वीकार कर लेना।

    Share:

    facebook
    twitter
    google plus

बड़ी ख़बरें

अपनी राय दें