' कुछ दिन पहले सुबह चाय के प्याले के साथ-साथ कोई पत्र-पत्रिका पढ़ते हुए मेरी निगाह एक समाचार पर जाकर ठिठक गई। वह समाचार चाय पर ही था और उसने मुझे चाय के बारे में मन भटकाने के लिए एक बड़ा विस्तार दे दिया। खबर अच्छी है और यह है कि गुवाहाटी के किसी शिक्षण संस्थान ने एक ऐसी डलिया का निर्माण किया है जो चाय बागानों में पत्तियां तोडऩे वाली मजदूर औरतों के लिए ज्यादा आरामदायक है। उससे उनकी पीठ पर और रीढ़ की हड्डी पर कम वजन पड़ेगा। जबकि दूसरी ओर वे डलिया में लगभग ड्योढ़ी मात्रा में पत्तियां संचित कर सकेंगी। यह आविष्कार सुनने में छोटा लगता है लेकिन लाखों मेहनतकश स्त्रियों को इसका जो लाभ होगा, वह बड़ी खुशी की बात है।'
'मैंने जब इस आविष्कार की खबर पढ़ी तो विचार आया कि चाय बागानों में काम करने वाले मजदूरों का जीवन कितना दूभर होता है। असम और बंगाल में इन मजदूरों को टी गार्डन ट्राइबल या चाय बागान आदिवासी की संज्ञा से जाना जाता है। इनमें से अधिकतर मजदूरों के पुरखे छत्तीसगढ़ और झारखंड से ले जाए गए थे। हमारी मिनीमाता के पुरखे भी उन्हीं में से थे। इन लोगों ने बागान मालिकों और मैनेजरों के हर तरह के अत्याचार बर्दाश्त किए। मेहनत का जितना मुआवजा मिल जाए उसी को गनीमत जानो।
लेकिन आज जनतांत्रिक व्यवस्था में इन्हें जिस तरह संदेह की दृष्टि से देखा जाता है और आज भी जब उन पर अत्याचार होता है तो मन को क्लेश पहुंचता ही है। हम सुबह, दोपहर, शाम जब कभी भी चाय का प्याला हाथ में लेते हैं, उसकी खूशबू से मगन होते हैं, एक घूंट पीकर ताजगी का अहसास करते हैं तब शायद कभी भी यह ध्यान नहीं आता कि यह चाय हम तक पहुंची कैसे?'
(देशबन्धु में 09 अप्रैल 2015 को प्रकाशित)
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