तपती रेत पर हरसिंगार शीर्षक ही अपने अटपटेपन के बावजूद बहुत कुछ कहता है। कवि सदैव सुन्दर का स्वप्न देखता है, सुन्दर की रचना करना चाहता है। हरसिंगार उसके कोमल मनोभावों का प्रतीक है, लेकिन तपती रेत जीवन की कठोर झुलसाने वाली वास्तविकताओं को प्रतिबिंबित करती है
कुमार हसन की कविता है जंगल बुक । इस कविता में गहरे राजनीतिक निहितार्थ हैं। कविता की अंतिम पंक्ति व्यवस्था पर तीखा प्रहार करती है-
पता नहीं, जंगल में/जनतंत्र का मतलब क्या होता है?/ स्वतंत्रता तलाशते लोग / फिलहाल विदेश दौरे पर।
उधर गिरिजाकुमार बलियार सिंह की कविता में सदियों से चले आ रहे आर्थिक शोषण और गैरबराबरी का चित्र इन पंक्तियों में है-
नकली बीज से हाय ! भरा है आज तुम्हारा खेत / धान दिखता नहीं... सिर्फ अगाड़े छांट रहा किसान / पूंजी के सर उठाने पर रेंगने लगी है मुनाफे की लट / तुम्हारा यह मजदूर बैठे बांध रहा है मालिक का मचान।
रामकृष्ण साहू संकेतों में अपनी बात कहते हैं। वे जानते हैं कि आज के समय में शब्दों को मूल्यहीन बना दिया गया है और एक तरह से उनकी कविता में प्रोमेथ्युस की वेदना प्रतिध्वनित होती है। जब वे कहते हैं-
मैं तुम्हारी ही बातें कहता हूं / हां हां तुम्हारी ही / वे जो आखिरी पंक्ति में/ सबके पीछे खड़े हैं कुर्सियों के अभाव में /आधे प्रकाश और आधे अंधकार में / क्या पहुंच पा रही उनके पास / मेरे निरर्थक शब्दों की नीरवता?
ज्ञानी देवाशीष की कविताओं का शीर्षक है- दलित कवि। वे कोई आडम्बर नहीं रचते और बहुत खरे शब्दों में एक दलित लेखक के मनोभाव व्यक्त करते हैं-
चूल्हे में लकड़ी की भांति जलता है जो जीवन / उसे कविता बना परोसना होता है / डाइनिंग टेबल पर / वे लोग जल रहे हैं इसीलिए तो / हांडी में उबल रहे हैं शब्द /
(अक्षर पर्व फरवरी 2018 अंक की प्रस्तावना)
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