- सुभाष गाताडे
वैसे महंत के कमरे से कितनी भी नकदी बरामद हुई हो या कितने भी गहने मिले हों, इसके बावजूद यह प्रश्न अप्रासंगिक नहीं होता कि इस पैसे का स्त्रोत क्या था ? क्या कुछ धर्मादायी व्यक्तियो ने आश्रम को यह पैसा सौंपा और क्या इन सभी पैसों के आंकड़ें बहीखाते में दर्ज है ? क्या आश्रम का तथा उसके अंदर संचालित गतिविधियों को कोई सालाना ऑडिट होता था, क्या आश्रम को एक चैरिटेबल संगठन घोषित किया गया था तथा उसे इन प्रक्रियाओं से मुक्ति मिली थी।
कुछ 'अस्वाभाविक मौतें' ऐसी होती हैं कि वह हमेशा के लिए रहस्य बनी रहती हैं। क्या बाघंबरी मठ, प्रयागराज के महंत नरेन्द्र गिरी की पिछले साल हुई मौत - जब वह अपने कमरे में फांसी पर लटके पाए गए थे - इसी दिशा में बढ़ रही है?
औपचारिक तौर पर देखे तो उनके चंद शिष्यों - आनंद गिरी तथा दो अन्य - के खिलाफ महंत को आत्महत्या के लिए उकसाने के लिए आरोपपत्र भी दाखिल किया गया है। चार्जशीट के मुताबिक अभियुक्तों ने किसी महिला के साथ महंत का कोई आपत्तिजनक विडियो तैयार किया था, जो कथित तौर पर संपादित था और उसे सार्वजनिक करने की उनकी योजना थी, जिसके चलते महंत मानसिक तनाव में थे।
इस संबंध में एक नया घटनाक्रम यह भी है कि महंत के दो करीबी सहयोगियों - अमर गिरी और पवन महाराज - ने ट्रायल अदालत के सामने एक नयी अर्जी लगाई है, जिसमें बताया गया है कि उन्होंने जो प्रथम सूचना रिपोर्ट दायर की थी - उसमें न आत्महत्या या हत्या का उल्लेख था और न ही किसी के नाम का जिक्र था। जाहिर है इस अर्जी के बाद मुददे की जटिलता और बढ़ गईै है।
पृष्ठभूमि के तौर इस बात को भी नहीं भूलना चाहिए कि महंत ने सबसे पहले अपने वारिस के तौर पर बलबीर गिरी का नाम तय किया था, जिसके स्थान पर आनंद गिरी का नाम शामिल किया था और फिर बदल कर बलबीर गिरी को बनाया था। गौरतलब है कि महंत नरेंद्र गिरी की अस्वाभाविक मौत को लेकर जारी विवाद पिछले दिनों फिर सूर्खियां बना जब जांच दल ने नरेद्र गिरी के अपने कमरे को उनकी मौत के बाद पहली दफा खोला। जांच दल यह देख कर आश्चर्यचकित था कि उसे कई करोड़ रूपए तथा करोड़ों के गहने और प्रापर्टी के कागजात भी मिले।
इस पूरे प्रसंग के बारे में आखिरी समाचार यही था कि जांच दल ने यह सभी वस्तुएं महंत के नामांकित वारिस बलबीर गिरी को सौंप दी हैं और जिन्होंने इस बात पर जोर दिया है कि जो चीजें महंत के कमरे से बरामद हुईं, वह इतनी अधिक मूल्य की नही थीं। वास्तविक बरामदगी को लेकर जो अपारदर्शिता दिखती है, जो अखबारों मे ही प्रकाशित अलग-अलग किस्म की रिपोर्टों में साफ दिखती है, नए प्रश्न पैदा करती है। आखिर कितनी नगदी बरामद हुई ? क्या उसकी राशि तीन करोड़़़़ रूपए थी या 8 करोड़ थी या 'बहुत कम' थी ?
क्या जांच दल ने इस बरामदगी का कोई पंचनामा किया? और क्या उसे यह अधिकार मिला था कि बिना अदालती आदेश के कमरे में बरामद सामग्री 'वारिस' को सौंप दी जाए? क्या जांच दल का यह जिम्मा नही था कि वह बरामद चीज़ों की ठीक से सूची बनाती और उस पर पंचों से दस्तख़त करवाती और वह सूची अदालत को सौंपती ? इस बात को मद्देनजर रखते हुए कि महंत नरेंद्र गिरी न केवल विश्व हिन्दू परिषद बल्कि राज्य सरकार के करीबियों में थे, याद रहे कि महज एक रात पहले अपने ही आश्रम में उनकी मुलाक़ात सूबाई हुकूमत के एक सीनियर मंत्री से हुई थी, और वह 'अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद पर दुबारा चुने गए थे, क्या इतनी उम्मीद की जा सकती है कि इस पूरे मामले में पारदर्शिता बरती जाएगी।
वैसे महंत के कमरे से कितनी भी नकदी बरामद हुई हो या कितने भी गहने मिले हों, इसके बावजूद यह प्रश्न अप्रासंगिक नहीं होता कि इस पैसे का स्त्रोत क्या था ? क्या कुछ धर्मादायी व्यक्तियो ने आश्रम को यह पैसा सौंपा और क्या इन सभी पैसों के आंकड़ें बहीखाते में दर्ज है ? क्या आश्रम का तथा उसके अंदर संचालित गतिविधियों को कोई सालाना ऑडिट होता था, क्या आश्रम को एक चैरिटेबल संगठन घोषित किया गया था तथा उसे इन प्रक्रियाओं से मुक्ति मिली थी।
वैसे यह सवाल पहली दफा नहीं उठ रहे हैं, अक्सर ऐसे सवाल उठते हैं जब इन आध्यात्मिक गुरूओं को लेकर कुछ विवाद खड़े होते हैं, फिर चाहे मसला संपत्ति हो या ऐसी गतिविधियां जो उनके बाहरी आवरण से प्रतिकूल होती है।
बमुश्किल पांच साल पहले उड़िसा ऐसे कई बाबाओं के खिलाफ एक नयी तरह की सरगर्मी का गवाह बना। यह सिलसिला शुरू हुआ किन्हीं सन्तोष कुमार रौला उर्फ सारथी बाबा के खिलाफ जिनका उड़िसा के केन्द्रप्पा तथा आसपास के इलाकों में काफी प्रभाव रहा है, जब उनके बारे में किसी टीवी चैनल ने यह ख़बर चला दी कि वह हैदराबाद के किसी पांच सितारा होटल में किसी कालेज युवती के साथ रूके हैं। सारथी बाबा को जेल की सलाखों के पीछे पहुंचाने के दौरान हुई जनजागृति ने एक तरह से सुरा बाबा उर्फ सुरेन्द्र मिश्रा नामक बाबा के खिलाफ जनता के आक्रोश को सड़कों पर ला दिया, जिन्हें कुछ साल जेल में बीताने पड़े और जमानत पर रिहाई के कुछ समय बाद ही जिनका इन्तक़ाल हुआ ; उसी किस्म का जनान्दोलन बाना बाबा के खिलाफ सड़कों पर दिखाई दिया और बाना बाबा को भी पुलिस को जेल भेजना पड़ा।
बार-बार यह बात सामने आ चुकी है कि कितने स्वामी/ साध्वियां अक्सर जांच एजेंसियों या खोजी पत्रकारों की रडार पर आते है जब वह काले पैसे को वैध बनाने में तमाम अवैध कामों में लिप्त पाए जाते है। गौरतलब है कि केन्द्र में हिन्दुत्व वर्चस्ववादी हुकूमत के आगमन तथा समाज में भी बहुसंख्यकवादी चिन्तन को मिली स्वीकार्यता के चलते, तथा इन अधिकतर बाबाओं द्वारा मौजूदा हुकूमत के प्रति अपना समर्थन एव वफादारी के ऐलान के बाद विगत कुछ सालों से ऐसी जांच नहीं चलती दिख रही है, लेकिन एक बात तो तय है कि इसके पहले के दशक में प्रकाशित रिपोर्टें और इन आध्यात्मिक गुरूओं पर किए स्टिंग आपरेशन के जरिए जो तथ्य सामने आते हैं, उनसे इन बाबाओं की कार्यप्रणाली पर बखूबी रौशनी पड़ती है।
हम याद कर सकते हैं प्रशांति निलयम, जो पुदुकोटटी स्थित वह आश्रम है, जहां सत्य साईं बाबा का निवास था - जिनका एक जमाने में बेहद जलवा था, लेकिन वह तमाम विवादों में भी ताउम्र घिरे रहे, जिसमें धनशोधन से लेकर हाथ की सफाई से लेकर बाल यौन उत्पीड़न जैसे आरोप भी थे, उनकी मौत के कुछ दिन की बात है जब रिटायर्ड न्यायाधीशों, आयकर विभाग द्वारा नियुक्त किए गए आकलनकर्ता तथा बाबा के विश्वस्तों की मौजूूदगी में सत्य साईं बाबा का निजी कक्ष - जिसे यजुर मंदिर कहा जाता था - खोला गया तब लोग भौचक्के थे कि वहां कितनी अधिक मात्रा में सोना, नकदी और चांदी रखी थी, जिसे ठीक से गिनने में ही जांच टीम को 36 घंटे का वक्त़ लगा। यह राशि 11.56 करोड़ रूपए, 95 किलोग्राम सोना और 307 किलोग्राम चांदी के रूप में थी। आखिर एक आध्यात्मिक गुरू के पास इतनी सारी दौलत कहां से आ गयी? और तमाम सरकारें इसके बारे में क्यों आंखें धरे बैठी रहीं ?
क्या इन बाबाओं को कानून के दायरे में नहीं लाया जा सकता? इतने सारे प्रमाणों के बावजूद उन लोगों पर कार्रवाई क्यों नहीं होती? और क्यों उनका सम्मोहन बना रहता है? अगर मध्यमवर्ग के तनखाशुदा व्यक्ति से यह उम्मीद की जाती है कि वह हर साल आयकर भरेगा, अगर समाजसेवा में लिप्त किसी संस्था के रेकार्ड अक्सर जांचे जाते हैं, उन्हें तमाम औपचारिक कार्रवाइयों से गुजर जाना पड़ता है तो आखिर ऐसे तमाम बाबाओं, आध्यात्मिक गुरूओं को क्यों बक्श दिया जाता है, ऐसे गुरू जिनकी वाणी एवं काम का प्रभाव हजारों, लाखों लोगों तक पहुंचता है ?
आज की तारीख़ में जबकि राज्य खुद संकीर्ण किस्म की सियासत में उलझा हुआ है, धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों के तहत राज्य और धर्म के बीच स्पष्ट अलगाव सुनिश्चित करने के बजाय धर्म और राजनीति के संमिश्रण को वरीयता प्रदान कर रहा है, एक बहुधर्मीय, बहु आस्था वाले देश में एक संख्या के आधार पर एक खास धर्म को, उसके रीतिरिवाजों - परंपराओं को अहमियत प्रदान कर रहा है, ऐसे समय में इस बात की उम्मीद करना भी बेकार है कि वह ऐसे बाबाओं के कारोबार को पारदर्शी बनाने की कोशिश करेगा ।