- डॉ. लखन चौधरी
सरकार नये कृषि कानूनों के जरिये किसानों का भला करना चाहती है। कृषि में आधुनिकता लाना चाहती है। कृषि का व्यावसायिकरण, वाणिज्यिकरण एवं आधुनिकीकरण सरकार की नीतियों से होने वाला नहीं है। कृषि महज एक जरिया, व्यवसाय नहीं है। कृषि जीवन का पर्याय एवं आधार है। कृषि समूची मानव सभ्यता एवं मानव जाति की जनक, पालक, संपोषक, संरक्षक है। कृषि के साथ सरकार का खिलवाड़ केवल किसानों एवं खेतिहर समाज के साथ ही अन्यायपूर्ण एवं अपमानजनक नहीं है?
मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल के प्रमुख एजेण्डों में 2022 तक किसानों की आमदनी दोगुनी करने का मसला एक महत्वपूर्ण एजेण्डा होने के साथ सरकार का एक महत्वाकांक्षी कार्यक्रम भी है, जिसे आए दिन मोदी एवं उनकी सरकार द्वारा दोहराया जा रहा है। कई बार तो यह मामला जुमलेबाजी की तरह लगता है जिसका नाता वास्तविकता से कोसों दूर तक भी दिखलाई नहीं देता है, इसके बावजूद इस मुद्दे पर सरकार एवं मोदी मैदान छोड़ने को तैयार नहीं दिखते हैं। कई बार ऐसा लगता है कि आज कृषि लागतें एवं अन्य महंगाई दरों में जिस हिसाब से बढ़ोतरी हो रही है, उस लिहाज से तो किसानों की आमदनी दोगुनी होने का सपना आने वाले दशकों तक पूरा होने वाला नहीं है। इधर किसानों को सहयोग एवं सम्मान निधि के नाम पर साल में छह हजार रुपये की आर्थिक सहायता किसानों के साथ मजाक से कम नहीं लगता है। हकीकत यह है कि किसानों की दोगुनी आमदनी का एजेण्डा किसानों के लिए महज झुनझुना भर है, जिसमें कहीं से कोई दम नहीं है।
आज देश का एक औसत किसान सालभर में खेती-किसानी एवं इससे जुड़े छोटे-मोटे काम-धंधे से सारे खर्चे काटकर एकाध-सवा लाख रुपये कमा लेता है, यानि महिने की आमदनी आठ-दस हजार रुपये बैठती है। इसमें उसको उसके परिवार का सालभर का सारा खर्च चलाना होता है। अंदाजा लगाया जा सकता है कि आठ-दस हजार रुपये की आमदनी में चार-पांच लोगों के एक परिवार के इन सारे खर्चों को किस तरह से मैनेज किया जाता होगा? तीज-त्यौहार, शादी-ब्याह, खेत-घरों के मरम्मत जैसे बड़े खर्चे अलग हैं, जिनके लिए ऋ ण लेने के अतिरिक्त किसानों के पास कोई विकल्प ही नहीं बचते हैं।
देश की ही सरकारी एजेंसी जैसे एनएसएसओ आदि की विभिन्न रिपोर्टों के मुताबिक देश के किसानों की औसत मासिक आमदनी छह से सात हजार रुपये है। ऐसे में किसानों की दोगुनी आमदनी का मतलब क्या है? इसका क्या अर्थ होगा? आज जिस कदर महंगाई है और जिस तरह से जरूरी वस्तुओं एवं सेवाओं की कीमतें लगातार बढ़ती जा रही हैं, उस लिहाज से छह-सात हजार से दस हजार रुपये तक की आमदनी यदि दोगुनी भी हो जाए तो क्या होगा? कृषि लागतें जिस तरह से बढ़ रहीं हैं, महंगाई जिस तरह से बढ़ रही है, उस हिसाब से तो दोगुनी आमदनी भी किसानों की आर्थिक स्थिति को सुधार नहीं सकती है। भारतीय कृषि के बारे में किसानों के लिए कही गई बात कि 'एक किसान का बच्चा ऋ ण के साथ, ऋ ण का बोझ लेकर पैदा होता है, किसान बनकर ऋण में जीता है, ऋण के सहारे अपने परिवार का भरण-पोषण करता है और अपनी संतानों के लिए ढेर सारा ऋण का बोझ छोड़कर मरता या मर जाता है' आज भी अक्षरश: सही बैठती है। छ: हजार रुपये की आर्थिक सहायता देकर किसानों को उनकी आमदनी दोगुनी करने का सपना दिखाना किसानों के साथ अपमान करने जैसा बर्ताव नहीं है?
कृषि लागतों में बढ़ोतरी आज खेती-किसानी की सबसे बड़ी समस्या है। बीज, खाद, दवाई, श्रम-मजदूरी, डीजल, कृषि उपकरणों की कीमतें इत्यादि इनपुट्स की लागतें जिस अनुपात में बढ़ रहीं हैं, उस अनुपात में कृषि उत्पादों की कीमतें नहीं बढ़ रहीं हैं। यही इस समय कृषि की सबसे बड़ी ज्वलंत समस्या है। स्वामीनाथन कमेटी की सिफारिश में स्पष्ट तौर पर खेती-किसानी से जुड़ी सभी तरह की लागतों एवं खर्चों को जोड़ा गया है। कृषि कार्य में बीज, खाद, दवाई, जुताई, बुवाई-कटाई, मिंजाई, मजदूरी आदि सभी खर्चे जरूरी तो होते हैं जिनका भुगतान किसानों को नकदी के रूप में करना होता है, लेकिन इससे भी अधिक महत्वपूर्ण किसान एवं उसके परिवार के सभी सदस्यों का परिश्रम, धूप-पानी, बरसात में पूरी फसलों एवं खेती की देखरेख एवं उन सबकी कड़ी मेहनत होती है। पूरे परिवार के लोग फसलों के तैयार होते तक लगे रहते हैं। इनका पारिश्रमिक कहां से आयेगा? स्वामीनाथन कमेटी की सिफारिश में इन सभी चिंताओं की ओर ध्यान दिया गया है। सरकार इसे ही लागू कर देती तो किसानों का भला हो जाता।
कृषि एवं खेती-किसानी के संबंध में सरकार द्वारा यह दावा किया जाना सर्वथा निरर्थक एवं बेतुका है कि सरकार नये कृषि कानूनों के जरिये किसानों का भला करना चाहती है। कृषि में आधुनिकता लाना चाहती है। कृषि का व्यावसायिकरण, वाणिज्यिकरण एवं आधुनिकीकरण सरकार की नीतियों से होने वाला नहीं है। कृषि महज एक जरिया, व्यवसाय नहीं है। कृषि जीवन का पर्याय एवं आधार है। कृषि समूची मानव सभ्यता एवं मानव जाति की जनक, पालक, संपोषक, संरक्षक है। कृषि के साथ सरकार का खिलवाड़ केवल किसानों एवं खेतिहर समाज के साथ ही अन्यायपूर्ण एवं अपमानजनक नहीं है, अपितु सरकार का यह रवैया समूची भारतीय सभ्यता, संस्कृति एवं मानवता के लिए भी दुर्भाग्यपूर्ण है। सरकार चलाने वाले जिस दिन इस तथ्य को समझ जायेंगे सही मायने में कृषि, खेती-किसानी एवं किसानों के साथ उस दिन न्याय होगा। इस तरह की सोच, नीयत एवं नैतिकता से किसानों का भला होगा। इन तीनों कृषि कानूनों से तो किसानों का कतई भला होने वाला नहीं है।