- सुभाष गाताडे
दरअसल स्वतंत्र मीडिया की ताकत से मोदी पहले से ही वाकिफ़ थे जिसका परिणाम यही हुआ था कि वर्ष 2002 में उनके मुख्यमंत्री पद काल के दौरान गुजरात में जो जबरदस्त सांप्रदायिक जनसंहार हुआ था- उन्हें लेकर उन पर लगे अकर्मण्यता या कथित संलिप्तता के आरोपों से वह कभी पूरी तह से उबर नहीं पाए थे।
इतिहास में ऐसे मौके शायद ही आते हैं जब बेहद कुशलता से गढ़ी गई कि किसी नेता की छवि अचानक एक मामूली प्रसंग से दरक जाती है और वह अचानक बेहद कमजोर दिखने लगता है।
डॉयशे वेल्ले के प्रमुख संपादक के एक अदद टिवट ने कुछ माह पहले यही काम किया। याद होगा कि जनाब मोदी यूरोप की यात्रा पर निकले थे, जब रूस ने यूक्रेन के खिलाफ जंग छेड़ी थी और अपनी यात्रा का उनका पहला पड़ाव बर्लिन, जर्मनी था। इस टिवट में महज यही ऐलान किया गया था कि जर्मनी के चैन्सेलर शोल्थ्ज और पी एम मोदी साझा प्रेस सम्मेलन करेंगे, दोनों के बीच हुए समझौतों का ऐलान किया जाएगा और हमारे मेहमान के आग्रह पर प्रेस सम्मेलन के अंत में 'सवाल नहीं पूछे जाएंगे।' जर्मनी ही नहीं पश्चिम के पत्रकारों के लिए प्रेस सम्मेलन के बाद 'सवाल न पूछने का निर्देश' न केवल अभूतपूर्व था बल्कि अनपेक्षित था।
निस्संदेह पत्रकार सम्मेलन में किसी भी तरह की बाधा नहीं उत्पन्न हुई, मीडिया के लोगों ने केवल जजमान देश बल्कि मेहमान देश के कर्णधार की इच्छा का सम्मान किया लेकिन इस पूरे प्रसंग ने कहे अनकहे भारत में प्रेस की आज़ादी की स्थिति को अचानक विश्व मीडिया के सामने बेपर्द किया। लोगों के लिए यह स्पष्ट था कि एक सौ तीस करोड़ लोगों के मुखिया- जो अपने देश को 'जनतंत्र की मां' कहलाता है, वह किस तरह मीडिया से संवाद को एकतरफा खामोश कर सकता है और यह कदम कितना अधिनायकवादी है। इसने इस बहस को भी नई हवा मिली कि किस तरह दुनिया का सबसे बड़ा जनतंत्र रफ्ता रफ्ता चुनावी निरंकुशतंत्र में तब्दील हो रहा है।
वैसे वे सभी जो भारतीय सियासी मंज़र पर नज़दीकी निगाह रखते हैं, उनके लिए मीडिया से बचने और उससे दूरी बनाने का प्रधानमंत्री मोदी के निर्णय में कुछ भी आश्चर्यजनक नहीं था क्योंकि विगत साड़े आठ सालों से- जब से मोदी प्रधानमंत्राी बने हैं- यही रवायत चल पड़ी है।
सभी उस प्रसंग से भी वाकि$फ हैं जब वर्ष 2019 में भाजपा के मुख्यालय पर हुई प्रेस वार्ता में पहली दफा मोदी दिखे थे और उन्होंने कुछ बात भी की थी- जिसे सरकार के करीबी चैनलों ने बाकायदा 'ऐतिहासिक अवसर' और मास्टरस्ट्रोक घोषित किया था। जिसमें उन्होंने उन्हें पूछे जाने वाले हर प्रश्न के जवाब के लिए अमित शाह की तरफ इशारा किया था, जो उस वक़्त पार्टी के अध्यक्ष थे। कुल मिला कर यह ऐसा प्रसंग हुआ कि भाजपा की काफी भद्दपीटी थी, जहां अपनी वाकपटुता के लिए काफी ताली बटोरने वाले मोदी ने मौन व्रत धारण करना मुनासिब समझा था।
इस प्रसंग से उपजी झेंप मिटाने के लिए फिर पार्टी की तरफ से यह ऐलान किया गया था कि वह प्रेस सम्मेलन पार्टी अध्यक्ष का ही था, जहां प्रधानमंत्री महज पहुंचे थे। गौरतलब था कि कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष राहुल गांधी ने उनकी पहली प्रेस कांफ्रेंस पर मोदी को 'बधाई दी थी।' और पत्रकारों के सवालों का जवाब न देने के रुख पर चुटकी लेते हुए कहा था 'आप प्रेस सम्मेलन में आते रहेंगे तो भविष्य में अमित शाह आप को बोलने भी दे देंगे।'
इस संदर्भ में एक अग्रणी मीडिया प्रतिष्ठान की तरफ से प्रधानमंत्री कार्यालय के पास सूचना अधिकार के तहत यह आवेदन भी किया गया कि यह पता चल सके कि प्रधानमंत्री मोदी ने कितने साक्षात्कार दिए हैं और कितनी प्रेस कान्फे्रन्स की है, जिसे लेकर उसे बेहद अस्पष्ट सा जवाब मिला जिसका लुब्बेलुआब यही था कि चूंकि मीडिया के साथ प्रधानमंत्राी का संवाद पूरी तरह से सुनियोजित भी होता है और अनियोजित भी होता है, जिसके चलते उसका रेकार्ड उपलब्ध नहीं है।
गौरतलब है मीडिया से खुला संवाद से बचने या प्रेस सम्मेलन में भी प्रश्नों को पूछने पर पाबंदी रखने का तरीका एक अधिनायकवादी रूझान का प्रदर्शन करता है, जिसके चलते न केवल भारत के अंदर बल्कि बाहर भी लोग चिंतित रहते हैं; भारत में जनतंत्र के ढलान पर जाने की पृष्ठभूमि में उसकी चर्चा होती है, इसके बरअक्स ऐसे पत्रकार तथा मीडियाकर्मी भी हैं, जो सत्ताधारी पार्टी के करीबी हैं, उन्हें लगता है कि ऐसी अंतर्क्रिया न चलाना, ऐसे संवाद को बढ़ावा न देना यह किसी किस्म की चिंता की बात नहीं है और इस तरीके पर उनकी राय बिल्कुल अलग दिखती है। उनकी तरफ से यह कहा जा रहा है कि 'सबसे महत्वपूर्ण है कि लोग आप की बात सुन रहे हैं' और चुने हुए नेताओं द्वारा प्रेस सम्मेलनों का आयोजन करने से 'जनतंत्र की प्रक्रिया को कोई मदद नहीं मिलती है' बल्कि ऐसे संवादों का आयोजन न करने को 'संप्रेषण का नया प्रतिमान' कहा जा सकता है।
अगर बारीकी से छानबीन करने की कोशिश करें तब यह पता भी चल सकता है कि प्रधानमंत्री के पद पर आसीन होने के बाद मीडिया से सीधे बात करने को-जहां पत्रकार उनसे सीधे सवाल कर सकें और वह भी जवाब दें- लेकर उनका जो रवैया रहा है, उसकी जड़ें शायद प्रधानमंत्री पद के पहले के मुख्यमंत्रीपद काल के अपने अनुभव में हो सकती हैं, जहां उन्होंने शायद यही अनुभव किया कि ऐसी बातचीत में उनके लिए मुश्किलें हो सकती हैं। अग्रणी पत्रकार करण थापर को साथ उनका अधूरे में छोड़ दिया गया साक्षात्कार शायद इसी बात की ताईद करता दिखता था। मालूम हो इस साक्षात्कार में 2002 के दंगों को लेकर पत्रकार थापर ने पूछे सवालों को लेकर मोदी असहज हो गए थे और प्रेस सम्मेलन वहीं खत्म हो गया था।
दरअसल स्वतंत्र मीडिया की ताकत से मोदी पहले से ही वाकिफ़ थे जिसका परिणाम यही हुआ था कि वर्ष 2002 में उनके मुख्यमंत्री पद काल के दौरान गुजरात में जो जबरदस्त सांप्रदायिक जनसंहार हुआ था- उन्हें लेकर उन पर लगे अकर्मण्यता या कथित संलिप्तता के आरोपों से वह कभी पूरी तह से उबर नहीं पाए थे।
गौरतलब है कि अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति ट्रम्प की तारीफ के पुल बांधने के बावजूद, यहां तक फरवरी 2020 में अहमदाबाद में उनके स्वागत में 'नमस्ते ट्रम्प' जैसा भव्य कार्यक्रम आयोजित करने के बावजूद प्रधानमंत्री मोदी ने ट्रम्प की मीडिया रणनीति का अनुगमन करना तय नहीं किया, जिसका महत्वपूर्ण पक्ष था कि व्हाइट हाउस में तथा बाकी स्थानों पर आयोजित प्रेस सम्मेलनों में पत्रकारों के सवाल-जवाब से कभी-कभी न बचने का उनका प्रयास।
शायद यह कहना मुनासिब होगा कि अपने मित्र चैनलों तक अपनी बात सीमित रखने या चुनिंदा पत्रकारों के साथ अपनी अंतर्क्रिया सीमित रखने, यहां तक कि पत्रकारों के सीधे सवालों के प्रति बिल्कुल मौन बरतने आदि को अलग-अलग देखना ठीक नहीं है, इसे हम एक साथ जोड़ कर या उनकी एक नयी मीडिया रणनीति के तौर पर देखना चाहिए।
हम देख सकते हैं कि 2014 में सत्तारोहण के बाद मोदी का जोर अपने संदेशों को ट्वीट, मन की बात जैसे रेडियो कार्यक्रमों या करीबी पत्रकारों जो दोस्ताना चैनलों में सक्रिय थे उनके साथ पहले से तयशुदा प्रश्नों पर साक्षात्कारों तक मुख्यत: सीमित हो गया। उनकी इस रणनीति में 'टेक्नालॉजी में आ रहे संरचनागत बदलावों', 'सोशल मीडिया के इस्तेमाल में तेजी से बढ़ोतरी' आदि का तथा 'मीडिया मालिकाने में तेजी से आए बदलावों' ने जबरदस्त मदद पहुंचाई- इन बदलावों में अपने संदेश को दूर तक तथा तमाम लोगों तक पहुंचाने, 'अपने आलोचकों को निशाना बनाने', 'जनमत तैयार करने' तथा 'वैकल्पिक नज़रिया रखने वाले लोगों, समूहों पर लांछन लगाना' बेहद आसान हो गया।
यह इस मामले में भी बहुत स्मार्ट रणनीति साबित हुई जिसने उनकी ऐसी छवि बनाने में मदद मिली कि वह प्रभावी कम्युनिकेटर हैं जबकि वह एक तरह से स्वगत वक्तव्यों का सिलसिला जारी रखे थे और एक तरह से 'तमाम मुददों को प्रभावी तथा सचेत ढंग से खामोश कर रहे थे।'
इस संशोधित मीडिया रणनीति को हम एक ऐसे समग्र पैटर्न में अवस्थित कर सकते हैं जहां यह कोशिश निरंतर जारी है जहां कार्यपालिका एक तरह से बेहद दूर तथा आम जनता से बिल्कुल अलग मालूम पड़े।
केन्द्र में मोदी के आगमन ने मीडिया एवं सरकार की अंतर्क्रिया में भी तमाम नए अनौपचारिक नियमों की शुरूआत हुई है।
बीत गया वह दौर जब पत्रकार एवं अन्य मीडियाकर्मी आसानी से नौकरशाहों यहां तक मंत्रियों से भी अनौपचारिक बातचीत के लिए मिलते थे। अब न केवल पत्रकारों एवं अन्य मीडियाकर्मियों पर सरकारी दफ्तरों में प्रवेश को लेकर तमाम बंदिशें लगी हैं, वहीं नौकरशाहों एवं मंत्रियों को भी निर्देश मिले हैं कि वह अधिक न बोलें और उन्हें पूछे जाने वाले प्रश्नों का उत्तर तलाशने के लिए औपचारिक स्रोतों की तरफ पूछने वाले का ध्यान आकर्षित करें।
वह परंपरा भी अब इतिहास हो गई जब वजीरे आज़म अपनी विदेश यात्रा पर अपने साथ ही पत्रकारों, संपादकों के एक दल को ले जाते थे, जिसे प्रधानमंत्री के साथ औपचारिक अनौपचारिक वार्तालाप का मौका मिलता था। ऐसे साक्षात्कार बाद में प्रकाशित भी होते थे।
अब आलम दरअसल यहां तक पहुंचा है कि पत्रकारों के लिए सत्ताधारी पार्टी के दफ्तर में प्रवेश पाना और वहां पर पार्टीजनों से बात करना भी मुश्किल हो गया है।
इस चतुर्दिक वर्चस्व को चुनौती देना एक अनुल्लंघनीय कार्यभार प्रतीत हो सकता है लेकिन कोई इस बात से इन्कार नहीं कर सकता कि उम्मीद की नयी किरणें भी अपनी झलक दिखा रही हैं।
हमारे समक्ष अब ऐसी वैकल्पिक आवाज़ें मौजूद हैं जो उन्हीें सोशल मीडिया प्लेटफार्म्स का इस्तेमाल कर अपनी आवाज़ दूर तक पहुंचा रही हैं।
तीन 'जनविरोधी कानूनों के खिलाफ किसानों का व्यापक जनांदोलन ने दरबारी पूंजीपतियों के वर्चस्व वाले मीडिया द्वारा आंदोलन को लेकर बनाई गलत छवि तोड़ने का लगातार काम किया।
इस पृष्ठभूमि में हम 'भारत जोड़ो यात्रा' जैसी अनोखी पहल को देख सकते हैं- जिसकी पहल भले ही कांग्रेस पार्टी ने ली हो, लेकिन आधिकारिक तौर पर वह कांग्रेस पार्टी तक सीमित नहीं है और उसे 'तमाम जनांदोलनों और संगठनों, जनबुद्धिजीवियों और अग्रणी नागरिकों का समर्थन हासिल है';
गौरतलब है कि प्रेस सम्मेलन में पत्रकारों के हर सवाल का जवाब देने की उनकी तत्परता के बरअक्स हम महान वाकपटु कहलाने वाले जनाब मोदी को देख सकते हैं, जो अपने सामने पूछे गए सवालों का जिम्मा कभी अमित शाह को देते हैं तो कभी विदेशी जमीन पर अपने मेहमान देश को यह कहने के लिए मजबूर करते हैं कि वह प्रेस कॉन्फ्रेंस में सवालों का जवाब नहीं देंगे। और एक तरह से न केवल अपने जजमान देश के कर्णधार को असहज स्थिति में डाल देते हैं और अपने देश की बदनामी भी करते हैं।
यह अब हम सभी के सामने है कि प्रेस सम्मेलन में जब टेलीप्राम्टर अचानक बंद होता है तो अपनी वाकपटुता पर मुग्ध रहने वाले मोदी किस तरह किंकर्तव्य मूढ़ बैठे रह जाते हैं जबकि धुआंधार बरसते पानी के बीच हजारों लोगों के बीच भाषण देती राहुल की छवि लोगों के बीच वायरल हो जाती है।