उत्तराखंड एक बार फिर मानव द्वारा, मानव के लिए खड़े किए गए षड्यंत्र का शिकार हुआ है। चमोली जिले में ग्लेशियर टूटने से भारी तबाही का मंजर खड़ा हो गया है। कम से कम दो सौ लोग लापता हैं, कई लोग मारे जा चुके हैं और कितनी जिंदगियां इस तरह की घटनाओं में तबाह हो जाती हैं उसका सही आंकड़ा तो कभी मिल ही नहीं पाता। मीडिया और सरकार की भाषा में इसे प्राकृतिक आपदा कहा जा रहा है। लेकिन यह विकास के नाम पर खड़ी की जा रही विशाल परियोजनाओं का ही परिणाम है।
इसलिए इसमें प्रकृति पर दोष डालने और अपनी बेबसी पर रोने का कोई फायदा नहीं है। इस तरह की घटनाओं के बाद सरकार मुआवजों की झड़ी लगाती है, सेना बचाव कार्य में जुट जाती है, सामाजिक संगठन आपदा राहत का प्रबंध करते हैं और इन सबके बीच आम आदमी प्रकृति के प्रकोप से बचने की प्रार्थना करता है। जबकि आम आदमी को अब इस बात को समझने की जरूरत है कि पर्यावरणविदों की चेतावनियों के बावजूद सरकारें किसके लाभ के लिए बड़ी परियोजनाएं बना रही हैं और इनमें खर्च होने वाले अरबों रुपए कहां से आ रहे हैं, किसकी जेब में जा रहे हैं। क्या बड़े बांधों, बिजलीघरों, चौड़ी सड़कों की वाकई इतनी जरूरत है कि अपने पहाड़, जंगल और जान की कीमत पर उन्हें खड़ा किया जाए।
क्या दुर्घटना होने के बाद मुआवजा लेने या प्रार्थना करने से बेहतर यह नहीं होगा कि सरकार जब विकासलीला खेले तो उसका संगठित तरीके से विरोध हो, ताकि अपनी जान भी बचे और पर्यावरण की रक्षा भी हो। इस बार जो चमोली जिला दुर्घटना का शिकार हुआ है, इसी जिले में गौरा देवी, सुंदरलाल बहुगुणा, का.गोविंद सिंह रावत और चंडीलाल भट्ट के नेतृत्व में चिपको आंदोलन खड़ा हुआ था। इस आंदोलन का नारा था -क्या हैं जंगल के उपकार, मिट्टी, पानी और बयार। मिट्टी, पानी और बयार, जिंदा रहने के आधार।
कितने अफसोस की बात है कि आज जिंदा रहने के इन तमाम आधारों को आर्थिक प्रगति के नाम पर बिना सोचे समझे इस्तेमाल किया जा रहा है और उसके परिणाम आम आदमी को भुगतने पड़ रहे हैं। अभी तीन दिन पहले सरकार के सर्वोच्च थिंक टैंक नीति आयोग द्वारा तैयार करवाई गई एक रिपोर्ट सामने आई है, जिसमें न्यायिक फैसलों के आर्थिक परिदृश्य पर पड़ने वाले असर का विश्लेषण किया गया है। इसके मुताबिक सर्वोच्च न्यायालय या एनजीटी द्वारा कुछ बड़ी परियोजनाओं के बारे में किए गए नकारात्मक फैसलों में इसके कारण होने वाले आर्थिक नुकसान पर विचार नहीं किया गया है।
आसान शब्दों में कहें तो पर्यावरण हित को ऊपर रखते हुए जो न्यायिक फैसले लिए गए, उन्हें आर्थिक नुकसान का कारण नीति आयोग मान रहा है। मतलब ये कि हरे-भरे जंगलों की जगह कांक्रीट के जंगल खड़े हो जाएं और सांस लेने के लिए शुद्ध हवा की जगह आक्सीजन पार्लर में जाना पड़े, ऐसा विकास देश में आर्थिक तरक्की की कसौटी बनाया जा रहा है।
याद रहे कि केदारनाथ हादसे के बाद कोर्ट ने जब 2013 में सरकार को बांधों के रोल की जांच करने के आदेश दिये तो इसके लिए पर्यावरणविद रवि चोपड़ा की अगुवाई में कमेटी बनाई गई, जिसकी रिपोर्ट उत्तराखंड के बांधों के खिलाफ रही। चोपड़ा कमेटी ने बांधों को $खतरनाक बताते हुए कहा था कि केदारनाथ आपदा में इन बांधों का निश्चित रोल था। वाइल्डलाइफ इंस्टिट्यूट ऑफ इंडिया ने भी बांधों पर सवाल खड़े किये थे। लेकिन इन सवालों और सुझावों को दरकिनार किया गया।
उत्तराखंड में सरकार का एक और ड्रीम प्रोजेक्ट है, जिसमें चारों धामों को जोड़ने वाली सड़क तैयार की जा रही है। इसमें कई जगहों पर बाइपास सड़कें, नए पुल और सुरंगें भी बनाई जाएंगी। इस चारधाम प्रोजेक्ट में भी रवि चोपड़ा और उनके कुछ साथियों ने सड़क की चौड़ाई 12 मीटर रखे जाने पर आपत्ति जताई है। इंडियन रोड कांग्रेस ने भी साल 2018 में पहाड़ों में सड़क की चौड़ाई 7-8 मीटर करने की सिफारिश कर दी थी, लेकिन फिर भी सरकार मान नहीं रही है।
विकास की राह दिखाने के लिए पहाड़ों को काट-काटकर मलबा नदियों में डाला जा रहा है। नदियां मर रही हैं। 12 मीटर चौड़ी रोड की जिद में 100-200 साल पुराने देवदार के पेड़ों को मनमर्जी से काटा जा रहा है। और इसके बाद जब अचानक कहीं ग्लेशियर टूटे तो उसके लिए प्रकृति को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है। बरसाते मौसम में ऐसा होना हिमालयी क्षेत्रों में सामान्य बात है, लेकिन ठंड के दिनों में इस तरह की घटनाओं का मतलब है कि प्रकृति चेतावनी दे रही है कि हम संभल जाएं।