• सबसे बड़े लोकतंत्र में इन्साफ की मांग

    प्रेमचंद प्रसाद युग के कहानीकार सुदर्शन /1896-1967/ की वह कहानी 'हार की जीत' लंबे समय तक विद्यार्थियों को सम्मोहित करती रही है

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    - सुभाष गाताडे

    क्या इंडिया की शोहरत इस वजह से भी हो रही है कि वहां सत्य की बात करने वाले एक के बाद एक जेल में ठूंसे जा रहे है, उन्हें संविधान की हिफाजत के लिए सलाखों के पीछे भेजा जा रहा है। हमें नहीं भूलना चाहिए कि भारत के अंदर जो कुछ भी हो रहा है, उस पर दुनिया की निगाह लगी रहती है।

    प्रेमचंद प्रसाद युग के कहानीकार सुदर्शन /1896-1967/ की वह कहानी 'हार की जीत' लंबे समय तक विद्यार्थियों को सम्मोहित करती रही है।
    बाबा भारती के प्रिय घोड़े सुलतान को डाकू खडग सिंह जिस तरह बीमार होने का बहाना बना कर छीनता है और फिर बाबा भारती की महज एक बात कि- इस घटना को तुम किसी को मत बताना क्योंकि आईंदा फिर कोई बीमार की मदद नहीं करेगा, किस तरह उस डाकू को भी अपनी गलती सुधारने के लिए प्रेरित करती है।
    मनुष्य की बुनियादी अच्छाई पर विश्वास रखने वाली और किस तरह उसका हृदय परिवर्तन हो सकता है, इसे खूबसूरत ढंग से बयान करने वाली इस कहानी पर अपने युग की छाप भी दिखती है।

    पिछले दिनों यह कहानी अचानक याद आई जब आला अदालत की द्विसदस्यीय पीठ ने लगभग तेरह साल पहले छत्तीसगढ़ में हुई एक फर्जी मुठभेड़ की सीबीआई द्वारा जांच की मांग को ठुकरा दिया और याचिकाकर्ता हिमांशु कुमार को सुरक्षा बलों का मनोबल कमजोर करने के आरोप में पांच लाख रुपए का जुर्माना सुना दिया और जुर्माना न देने की स्थिति में उन्हें कारावास की सज़ा सुना दी, इतना ही नहीं राज्य सरकार से यह कहा है कि वह चाहे तो धारा 211 के तहत उनके खिलाफ मुकदमा भी कायम कर सकती है।

    मामला सितम्बर और अक्टूबर 2009 के दौरान छत्तीसगढ़ में हुई 17 आदिवासियों की फर्जी मुठभेड़ में हुई हत्या का है जिसमें 12 साल की एक छोटी बच्ची भी मारी गई थी और तमाम लोग घायल हुए थे। ख़बरों के मुताबिक आदिवासियों के मकानों को आग भी लगाई गई थी और उन्हें ध्वस्त भी किया गया था। तत्कालीन दंतेवाड़ा और अब सुकमा जिले में हुई इन हत्याओं को लेकर उन दिनों काफी हंगामा हुआ था। न केवल मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने बल्कि स्वतंत्र मीडिया की तरफ से भी इन हत्याओं पर सवाल उठाए गए थे, जिसमें माओवाद के दमन के नाम पर सुरक्षाबलों की विवादास्पद भूमिका को प्रश्नांकित किया गया था। दूसरी तरफ सरकार का यह दावा था कि इन हत्याओं को माओवादियों ने अंजाम दिया था।

    गौरतलब है कि इन हत्याओं के बाद हिमांशु कुमार ने जो लंबे समय तक आदिवासी अधिकारों की हिमायत के लिए छत्तीसगढ़ में ही सक्रिय रहे हैं और वर्चस्वशाली ताकतों के निशाने पर भी रहते आए हैं, इन पीड़ितों के परिवारों से जाकर बात की थी, जिसमें यह पीड़ित कथित तौर पर इन हत्याओं के पीछे सुरक्षा बलों की भूमिका को रेखांकित करते नज़र आए थे। हिमांशु कुमार ने उनके इन साक्षात्कार तथा अन्य प्रमाणों के आधार पर सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर की थी कि इस मामले की सीबीआई जांच हो ताकि सच्चाई सामने आ सके।

    आला अदालत ने न केवल जांच की मांग को सिरे से खारिज किया बल्कि एक तरह से माओवादियों को ही इन हत्याओं का दोषी करार दिया तथा याचिकाकर्ता पर ही जुर्माना लगा दिया।
    उपरोक्त मामला लंबे समय तक सर्वोच्च न्यायालय के सामने पड़ा रहा और इस मामले में कुछ माह पहले अदालत ने अपना फैसला सुरक्षित रखा था और अब फैसला सामने है।

    प्रश्न उठता है कि क्या यह कार्रवाई एक तरह से आने वाले दिनों का संकेत है कि अब सत्य की मांग करना भी कुफ्र समझा जाएगा।
    क्या हिमांशु कुमार को सुनाया गया जुर्माना एक तरह से उस बदलते 'न्यायिक पैटर्न' को प्रतिबिम्बित करता है, जिसकी झलक हम पिछले ही माह तीस्ता सीतलवाड और पी बी श्रीकुमार के मामले में देख चुके हैं।

    हम याद कर सकते हैं कि देश के कई रिटायर्ड नौकरशाहों और न्यायविदों की तरफ से तीस्ता सीतलवाड और पी बी श्रीकुमार की गुजरात एसआईटी द्वारा की गई गिरफतारी को प्रश्नांकित करते हुए सर्वोच्च न्यायालय को याचिका भेजी गयी थी।
    इस याचिका में साफ पूछा गया था कि 'क्या अदालत का दरवाजा खटखटाने के संवैधानिक अधिकार को इस तरह हल्के में और बदले की भावना के साथ देखा जाए कि न्याय मांगने वाले ही जेल भेजे जाएं?'

    इसमें कोई दो राय नहीं कि न्यायपालिका खुद अपने ही बीते फैसलों को विस्मृति के गर्त में धकेल रही है।
    याद रहे जनहित याचिका का सिलसिला खुद सर्वोच्च न्यायालय के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश पी एन भगवती की पहल पर शुरू किया गया था, जिसे अब प्रश्नांकित किया जा रहा है। जनहित याचिका के पीछे यह धारणा थी कि सामाजिक तौर पर वंचित तबके के लोगों को - जिन्हें स्थापित न्याय प्रणाली में न्याय नहीं मिलता - उन्हें न्याय मिले।

    कानून के जानकारों के मुताबिक जनहित याचिका एक तरह से न्याय की पारंपारिक प्रणाली के नियमों में थोड़ा ढील देती है। 1980 के पहले न्यायपालिका महज उन लोगों की याचिका स्वीकारती थी जो बचाव पक्ष से सीधे या परोक्ष रूप में प्रभावित रहते थे। जनहित याचिका के तहत उन लोगों को भी किसी मामले में अदालत के सामने गुहार लगाने की सुविधा थी जो मामले से सीधे जुड़ नहीं हों, ऐसे लोग जनहित के मामले को अदालत के सामने ला सकते थे।

    वर्ष 2011 में खुद सुप्रीम कोर्ट ने ही छत्तीसगढ़ सरकार के कथित समर्थन एवं सहयोग से चल रहे 'सलवा जुडुमÓ मिलिशिया को गैरकानूनी घोषित किया था, जिनका गठन नक्सलविरोधी अभियान के तहत किया गया था। मालूम हो स्थानीय आदिवासी युवकों से बने इस मिलिशिया को मिल रहे राज्य संरक्षण एवं प्रशिक्षण तथा इनके द्वारा मानवाधिकारों के हनन के तमाम मामलों को लेकर प्रोफेसर नंदिनी सुंदर तथा अन्य बुद्धिजीवी एवं सामाजिक कार्यकर्ताओं ने आला अदालत का दरवाज़ा खटखटाया था। जाहिर सी बात है कि आला अदालत ने इन याचिकाकर्ताओं को सुरक्षा बलों का मनोबल कम करने आदि के आरोप नहीं लगाए थे बल्कि अपनी निष्पक्ष जांच में सलवा जुडुम पर लगे आरोपों को सही पाया था।

    ऐसे तमाम मौके आए हैं जब सर्वोच्च न्यायालय ने अपनी स्वतंत्रता एवं स्वायत्तता को बनाए रखते हुए कार्यपालिका के मनमाने कदमों पर अंकुश लगाने की कोशिश की है, लेकिन अब हवा का रूख अब शायद बदल रहा है।

    अक्सर हमारे हुक्मरान हमसे एक नए इंडिया के आगमन की बात करते है। हमें बताया जा रहा है कि मौजूदा हुकूमत के तहत देश का नाम और रौशन हुआ है।
    क्या इंडिया की शोहरत इस वजह से भी हो रही है कि वहां सत्य की बात करने वाले एक के बाद एक जेल में ठूंसे जा रहे है, उन्हें संविधान की हिफाजत के लिए सलाखों के पीछे भेजा जा रहा है।

    हमें नहीं भूलना चाहिए कि भारत के अंदर जो कुछ भी हो रहा है, उस पर दुनिया की निगाह लगी रहती है।
    इन पंक्तियों के लिखे जाते वक्त ख़बर आई है कि उन्हें सुनाई गई सज़ा के खिलाफ हिमांशु कुमार आला अदालत में ही पुनर्विचार याचिका दायर करेेंगे, लेकिन उसकी चर्चा फिर कभी।

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