- सर्वमित्रा सुरजन
चीन के अलावा सभी देशों की जनसंख्या भारत से कम है, प्रति व्यक्ति आय और गरीबी में भी अंतर है। इन देशों में घर के आसपास के सरकारी विद्यालयों में बच्चों के लिए आसानी से शिक्षा उपलब्ध है। अमीरों के लिए एक तरह की शिक्षा, गरीबों के लिए दूसरी तरह की शिक्षा, ऐसा दुचित्तापन इन देशों में नहीं है। परीक्षा प्रणाली, शिक्षण पद्धति, मनपसंद विषयों को पढ़ने की आजादी, ये सारी बातें इन देशों की शिक्षा व्यवस्था को बेहतर बनाती हैं।
आजादी का अमृत महोत्सव, आत्मगौरव, राष्ट्र का पुनर्निर्माण और राष्ट्रभक्ति के नाम पर कई अजीबोगरीब प्रयोग देश में जारी हैं, जिनके कारण पुरानी स्थापित और प्रचलित परंपराओं को खराब बताते हुए खत्म किया जा रहा है। ये प्रयोग एकबारगी आमूलचूल परिवर्तन करने वाले क्रांतिकारी कदम लग सकते हैं, लेकिन बेहतर होगा कि देश इनके सभी पहलुओं के बारे में गौर करे और फिर सही-गलत का फैसला ले। राष्ट्रभक्ति के आवेग में उठाया गया हर कदम सही हो, यह कतई जरूर नहीं है। ऐसा एक प्रयोग हाल ही में चिकित्सा शिक्षा में हुआ और इसकी शुरुआत मध्यप्रदेश से हुई। भाजपा शासित यह राज्य देश की हिंदी पट्टी का एक प्रमुख राज्य है। कई मूर्धन्य साहित्यकार इस राज्य ने दिए हैं। देश के साहित्यिक और सांस्कृतिक नक्शे में मध्यप्रदेश को अलग से पहचाना जा सकता है।
लेकिन अब भाजपा शासन में इसकी पहचान चिकित्साशास्त्र की हिंदी में पढ़ाई कराने वाले पहले राज्य के तौर पर होने जा रही है। रविवार को देश के गृहमंत्री अमित शाह ने औषध व शल्य चिकित्सा के स्नातक स्तर के पाठ्यक्रम की हिंदी में तीन पुस्तकों का विमोचन किया। जिसकी खबर अधिकतर अखबारों में चैनलों पर यह बतलाकर दिखाई गई कि गृहमंत्री ने एमबीबीएस की तीन पुस्तकों का विमोचन किया। जब एमबीबीएस के लिए उपयुक्त हिंदी शब्द ढूंढने में इतनी उलझन हो रही है, तब यह अनुमान लगाना कठिन नहीं है कि इन पुस्तकों की हिंदी कैसी होगी। वैसे जानकारी ये दी गई है कि 97 चिकित्सकों के दल ने प्रचलित अंग्रेजी पुस्तकों का हिंदी रूपांतरण किया है। श्री शाह ने एनाटॉमी, फिजियोलॉजी एवं बायो केमिस्ट्री इन तीन पुस्तकों का विमोचन किया है। इन नामों से जाहिर होता है कि अंग्रेजी शब्दों को केवल देवनागरी लिपि में लिखा गया है। और अनुमान है कि पुस्तकों के भीतर भी यही प्रयोग किया गया होगा। तो क्या देवनागरी में अंग्रेजी लिख लेने को हिंदी में पढ़ाई करना मान लिया जाएगा। गौर कीजिए कि आजकल युवा पीढ़ी के अधिकतर लोग अपने मोबाइल में बातचीत के लिए हिंदी को रोमन लिपि में लिखते हैं। यानी संवाद हिंदी में हो रहा है, लेकिन लेखन रोमन लिपि में।
युवा पीढ़ी की आदत रोमन लिपि में लिखने की इसलिए हो रही है क्योंकि स्कूलों में हिंदी केवल एक विषय मात्र रहता है और अधिकतर विषयों की पढ़ाई अंग्रेजी में होती है। निजी स्कूल तो पूरी तरह अंग्रेजी को ही बढ़ावा देते हैं। अब सरकारी स्कूलों में भी यही चलन होता जा रहा है। कई स्कूलों में सामाजिक विज्ञान और विज्ञान की पढ़ाई हिंदी में करने का विकल्प रहता है, महाविद्यालयों में भी यह सुविधा होती है। मगर अधिकतर बच्चे अंग्रेजी की ओर जाते हैं। शहरों में तो मां-बाप मजबूरी में बच्चों को हिंदी में पढ़ाते हैं और गांवों में अभी हिंदी में ही कई विषयों की पढ़ाई होती है। जब ये बच्चे आगे की पढ़ाई के लिए शहरों में आते हैं, तो उन्हें हिंदी और अंग्रेजी के बीच तालमेल बिठाने में तकलीफ होती है। लेकिन बेहतर भविष्य और अपने साथियों की रफ्तार के साथ चलने के लिए उन्हें अंग्रेजी को तरजीह देनी पड़ती है। यह निश्चित ही गंभीर समस्या है, लेकिन इसका उपाय देवनागरी लिपि में अंग्रेजी माध्यम से मेडिकल या इंजीनियरिंग की शिक्षा देना नहीं हो सकता।
अंग्रेजी और हिंदी के बीच की उलझन दशकों की है और इसके भाषायी, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक आयाम हैं। इन सारे पहलुओं पर समग्रता से विचार करके ही कोई फैसला लिया जाना चाहिए था। मगर अभी ऐसा लग रहा है कि राष्ट्रभक्ति में अपने अंक अधिक करवाने के लिए हड़बड़ी में फैसला लिया गया। नीति निर्धारकों को विचार करना चाहिए था कि हमारे विद्यालयों में हिंदी की पढ़ाई का क्या स्तर है। संधि, समास, अलंकार छोड़िए, स्वर और व्यंजन की बारहखड़ी को भी अधिकतर बच्चे प्राथमिक कक्षा के बाद भूल ही जाते हैं। हिंदी में गणना भी बहुत से बच्चों को नहीं आती है। बोलचाल के लिए आम हिंदुस्तानी और संस्कृतनिष्ठ हिंदी में बहुत फर्क होता है। और जब से भाषा का संबंध धर्म से जोड़ा जाने लगा है, तब से हिंदुत्ववादियों का आग्रह क्लिष्ट हिंदी पर ही रहता है। इसके अलावा खड़ी हिंदी और बोलियों के बीच का फर्क भी ध्यान रखना होगा।
हिंदी माध्यम में पढ़े बच्चों को अक्सर अंग्रेजी माध्यम में पढ़े बच्चों के सामने हीनभावना से ग्रस्त देखा गया है। यह हीनता का भाव बच्चों में अपने आप नहीं आता, समाज उसे इसका शिकार बनाता है। तो क्या नीति निर्धारकों ने समाज की इस दुष्प्रवृत्ति को दूर करने का कोई उपाय सोचा है। क्या जब ये बच्चे मेडिकल की पढ़ाई भी हिंदी में करेंगे और फिर अंग्रेजी पढ़े डाक्टरों से उनका सामना होगा, तो क्या हीनभावना और प्रबल नहीं होगी या फिर सरकार की नीति हिंदी माध्यम से डॉक्टर बने लोगों को केवल गांवों-कस्बों में तैनात करने की होगी, जहां उनका वास्ता अंग्रेजी बोलने वालों से कम पड़ेगा। लेकिन क्या गांवों में वो हिंदी समझ में आएगी, जो इन डॉक्टरों की होगी। वैसे अब भी माइग्रेन को अधकपारी या डायबिटीज़ के लिए शक्कर की बीमारी बोलने का चलन है, आगे यह चलन और किन नए शब्दों का ईजाद करेगा, यह देखना होगा। सवाल ये भी है कि क्या ये डॉक्टर केवल हिंदी पट्टी के गांवों में ही जाएंगे, या गैरहिंदी भाषी क्षेत्रों में भी जाएंगे और तब वहां ये किस तरह से काम करेंगे। अगर ऐसे सवालों के जवाब सरकार के पास हैं, तो वो सार्वजनिक जरूर होने चाहिए।
वैसे गृहमंत्री ने ये कहा है कि ''स्वभाषा के विकास एवं उपयोग से भारत अनुसंधान के क्षेत्र में विश्व में बहुत आगे जाएगा।'' अब सवाल ये है कि क्या अनुसंधान के लिए किताबें भी हिंदी में उपलब्ध हैं। क्या अनुसंधान के लिए अन्य देशों में किए जा रहे प्रयोगों, शोध आलेखों का अध्ययन जरूरी नहीं होगा। क्या ये सब भी हिंदी में उपलब्ध हो पाएंगे। अनुसंधान तो सतत चलने वाली प्रक्रिया है, और इसे सीमित दायरे में नहीं किया जा सकता। फिर चिकित्सा के शोधार्थी किस तरह केवल हिंदी के बूते अनुसंधान कर पाएंगे, ये देखना होगा। अमित शाह ने ये भी कहा कि प्रधानमंत्री मोदी ने हिंदी, तमिल, तेलुगू, मलयालम, गुजराती, बंगाली आदि सभी क्षेत्रीय भाषाओं में मेडिकल और इंजीनियरिंग की शिक्षा उपलब्ध कराने का आह्वान किया था और मध्यप्रदेश के शिवराज सिंह चौहान सरकार ने सबसे पहले प्रधानमंत्री की यह इच्छा पूरी की है। मातृभाषा में शिक्षा की सदिच्छा प्रधानमंत्री ने जतलाई ये अच्छी बात है। देश का मुखिया होने के नाते उनकी ऐसी बहुत सी और इच्छाएं होंगी। किंतु क्या प्रधानमंत्री की इच्छा मात्र पूरी करने के लिए इतना बड़ा फैसला लिया गया।
मप्र के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने इस मौके पर कहा कि हमें अंग्रेजी भाषा का गुलाम क्यों बनना है? अगर चीनी, जापानी, जर्मन, रूसी और फ्रेंच अपनी-अपनी भाषाओं में अपनी प्रतिभा का अध्ययन और अभिव्यक्ति कर सकते हैं और उच्च पदों पर पहुंच सकते हैं तो हमारे बच्चे ऐसा क्यों नहीं कर सकते। यह सवाल बिल्कुल वाजिब है, लेकिन गौरतलब बात ये है कि चीन, जापान, रूस, फ्रांस या जर्मनी ने औपनिवेशिक दासता का लंबा दौर नहीं देखा। और बात केवल अपनी भाषा में पढ़ाई की नहीं है, इन तमाम देशों की शिक्षा प्रणाली और बच्चों को उपलब्ध सेवाओं पर भी गौर फ़रमाना चाहिए।
चीन के अलावा सभी देशों की जनसंख्या भारत से कम है, प्रति व्यक्ति आय और गरीबी में भी अंतर है। इन देशों में घर के आसपास के सरकारी विद्यालयों में बच्चों के लिए आसानी से शिक्षा उपलब्ध है। अमीरों के लिए एक तरह की शिक्षा, गरीबों के लिए दूसरी तरह की शिक्षा, ऐसा दुचित्तापन इन देशों में नहीं है। परीक्षा प्रणाली, शिक्षण पद्धति, मनपसंद विषयों को पढ़ने की आजादी, ये सारी बातें इन देशों की शिक्षा व्यवस्था को बेहतर बनाती हैं। क्या सरकार भारत में सभी बच्चों के लिए सभी तरह के भेदभाव से मुक्त ऐसा माहौल बना सकती है। अगर हां, तो फिर किसी भी भाषा में पढ़ाई हो, बच्चों को कोई दिक्कत नहीं आएगी। रहा सवाल हमारे बच्चे ऐसा क्यों नहीं कर सकते। तो माननीय मुख्यमंत्री जी को यह बात समाज की क्रीमी लेयर से करना चाहिए।
क्योंकि अधिकतर नेताओं, अफसरों, मंत्रियों, व्यापारियों यानी धनाढ्य वर्ग के बच्चे पहले देश में महंगे अंग्रेजी स्कूलों में पढ़ते हैं, फिर उच्च शिक्षा के लिए विदेश चले जाते हैं और यह क्रम पीढ़ी दर पीढ़ी चलता रहता है। संपन्न तबके के बच्चे उच्च पदों पर पहुंच ही जाते हैं। शिक्षा हासिल करने की दिक्कतें हमेशा से समाज के वंचित, शोषित वर्ग के लिए रही हैं। अब हिंदी में मेडिकल की पढ़ाई से यह दिक्कत और बढ़ेगी, ऐसी आशंका उपजती है। सरकार इसे स्वर्णाक्षरों में लिखे जाने वाला निर्णय करार दे रही है, लेकिन यह तो भविष्य तय करेगा कि यह फैसला किन शब्दों में लिखा जाएगा।