बीते एक साल में देश लॉकडाउन के कारण आर्थिक तौर पर पिछड़ा ही, लाखों लोगों के लिए जीवनयापन का संकट खड़ा हो गया। लाखों प्रवासी मजदूर तो घर में खिच-खिच का अनुभव ही नहीं कर पाए, क्योंकि वे बेरोजगार होने के साथ-साथ बेघर भी हो गए। इस वक्त देश की अर्थव्यवस्था को थोड़ा-बहुत सहारा कृषि क्षेत्र से मिला। लेकिन अब देश के हजारों किसान ढाई महीनों से राजधानी की सीमाओं पर जमा हैं। सरकार ने उनसे एकालाप को संवाद नाम दिया और इस तरह 12 दौर की वार्ता हुई, ऐसा देश को बताया गया।
संसद और अपने पद दोनों की गरिमा का ध्यान न रखते हुए सदन में निम्नस्तरीय चुटकुलेबाजी, बयानबाजी का सिलसिला मौजूदा प्रधानमंत्री नरेन्द्र दामोदार दास मोदी ने इस बार भी जारी रखा।
पाठक याद करें कि प्रधानमंत्री ने सदन के भीतर रामायण सीरियल जैसी हंसी, रेनकोट पहन कर नहाने जैसी बातें कहीं है। बहरहाल 8 फरवरी 2021, सोमवार, को उन्होंने संसद के उच्च सदन राज्यसभा में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद भाषण दिया। लेकिन उसमें बड़े कुटिल अंदाज में देश के सारे जरूरी मुद्दे या तो गायब कर दिए गए या फिर उन्हें गैरजरूरी साबित करने की कोशिश की गई।
संसद में अब तक हुई चर्चाओं की कोई झलक, उन पर कोई विचार उस भाषण में नहीं दिखा। बल्कि वह स्कूल-कालेज की वाद-विवाद प्रतियोगिता के लिए तैयार किया गया भाषण नजर आया। जिसमें प्रतियोगियों के पास पहले से विषय रहते हैं और वे उसी अनुसार अपना भाषण तैयार कर लेते हैं। इनमें से कुछ वक्ता टेबल पर हाथ ठोंक कर, हाथ नचा-नचा कर, आवाज में उतार-चढ़ाव लाकर श्रोताओं-निर्णायकों को प्रभावित करने की कोशिश करते हैं। उनकी कही बातों में दम हो या न हो, उनका मसखरापन ही कई बार काम कर जाता है।
लेकिन इन प्रतियोगिताओं में भी विषय से भटकने वाले या विपक्षियों पर अनर्गल आरोप लगाने वाले वक्ताओं के अंक कट जाते हैं। संसद में इस वक्त ऐसी कोई गुंजाइश नहीं दिख रही है।
मोदीजी के भाषण के चुटीले अंदाज के कसीदे कई लोग पढ़ रहे हैं।
संसद में तो उनकी पार्टी के सांसदों ने मेज थपथपाकर, ठहाके लगाकर उनकी बातों का मजा लिया ही, मीडिया के बहुत से लोग उनकी भाषण शैली के कायल हो रहे हैं। इशारों-इशारों में विपक्ष की खिंचाई मोदीजी ने कैसे की, इसकी चर्चा हो रही है। इसमें यह बात भुलाई जा रही है कि देश में पिछले एक साल से कैसा माहौल है और इस वक्त राजधानी के हालात कितने संगीन हैं। क्या ऐसे में देश के प्रधानमंत्री को गंभीर चर्चा छोड़कर हंसी-मजाक से अंक बटोरने की कोशिश करना चाहिए।
राज्यसभा में प्रधानमंत्री ने अपने भाषण के अंत में कहा कि- सदन में जिस तरह चर्चा हुई... और मैं सच बताता हूं। चर्चा का स्तर भी अच्छा था। 'मुझ पर भी कितना हमला हुआ। लेकिन मुझे बहुत आनंद हुआ कि मैं कम से कम आपके काम तो आया।' एक तो कोरोना के कारण ज्यादा जाना-आना होता नहीं होगा... फंसे रहते होंगे... और घर में भी खिच-खिच चलती होगी।
अब इतना गुस्सा यहां निकाल दिया तो आपका मन कितना हल्का हो गया। आप घर के अंदर कितनी खुशी-चैन से समय बिताते होंगे। तो ये आनंद जो आपको मिला है... इसके लिए मैं काम आया ये भी मैं अपना सौभाग्य मानता हूं। और मैं चाहूंगा कि ये आनंद लगातार लेते रहिए। चर्चा करते रहिए.... सदन को जीवंत बनाकर रखिए। मोदी है मौका लीजिए...।
क्या ये शब्द एक लोकतांत्रिक देश के प्रधानमंत्री के होने चाहिए। घर की खिच-खिच का गुस्सा जनप्रतिनिधि संसद के भीतर निकाल लें, क्या हमारा लोकतंत्र इतना नीचे गिर चुका है। क्या सत्तापक्ष का विरोध इसलिए विपक्षी सांसद करते हैं, क्योंकि वे घर के माहौल से परेशान हैं। संसद के एक सत्र के संचालन में एक मिनट का खर्च लगभग ढाई लाख रुपए होता है, यानी पूरे सत्र के संचालन में करोड़ों रुपए जनता की गाढ़ी कमाई से लग जाते हैं।
यह खर्च क्या इसलिए होता है कि सांसद अपने मन की भड़ास निकाल लें, क्या संसद का वक्त देशहित के फैसले लेने में नहीं होना चाहिए।
मोदी है मौका लीजिए, ये किस किस्म की शब्दावली है। सदन में नाम नहीं पद का सम्मान है, पद की मर्यादा है। और प्रधानमंत्री पद पर बैठे व्यक्ति का दायित्व सांसदों के मूड स्विंग्स संभालने का नहीं है, बल्कि देश संभालने का है। जिसमें फिलहाल मोदीजी और उनकी सरकार पूरी तरह नाकाम नजर आ रही है। इसलिए मसखरी का सहारा लिया जा रहा है।
बीते एक साल में देश लॉकडाउन के कारण आर्थिक तौर पर पिछड़ा ही, लाखों लोगों के लिए जीवनयापन का संकट खड़ा हो गया। लाखों प्रवासी मजदूर तो घर में खिच-खिच का अनुभव ही नहीं कर पाए, क्योंकि वे बेरोजगार होने के साथ-साथ बेघर भी हो गए। इस वक्त देश की अर्थव्यवस्था को थोड़ा-बहुत सहारा कृषि क्षेत्र से मिला। लेकिन अब देश के हजारों किसान ढाई महीनों से राजधानी की सीमाओं पर जमा हैं।
सरकार ने उनसे एकालाप को संवाद नाम दिया और इस तरह 12 दौर की वार्ता हुई, ऐसा देश को बताया गया। हालांकि इन वार्ताओं से कोई नतीजा नहीं निकला और अब अगली वार्ता का कोई ठिकाना नहीं है।
अब मोदीजी ने सदन से फिर बातचीत की बात कही, लेकिन साथ ही ये कह दिया कि आंदोलन खत्म कीजिए। यानी सरकार ने साफ कर दिया है कि वो कृषि कानून वापस नहीं लेगी। कृषि कानून संसद में जिस तरह के पारित हुए, उस पर शिकायत करने वालों की तुलना मोदीजी ने शादी में रूठी फूफी से कर दी और ये कहा कि इतना बड़ा परिवार है, तो ये रहता ही है।
क्या संसद में बिना चर्चा के, मतदान के केवल ध्वनिमत के सहारे कानून पारित करवाना, जिससे करोड़ों लोगों की जीविका जुड़ी है, इतना हल्का मामला है, कि उसकी तुलना पितृसत्तात्मक समाज में चली आ रही शादी की परंपराओं और रिवाजों से की जाए। मोदीजी किसी नुक्कड़ पर नहीं, सदन में चर्चा कर रहे थे।
उस सदन में जहां भारत की विराट विविधता के जनप्रतिनिधि पहुंचते हैं। लेकिन मोदीजी उस विविधता को अब तक समझ ही नहीं पाए हैं। इसी तरह से भारत की या लोकतंत्र की खासियतों से भी नावाकिफ हैं। हालांकि बुधवार को लोकसभा में अपने धन्यवाद भाषण में प्रधानमंत्री ने यह दावा किया कि हमारे हर प्रयास में लोकतंत्र का भाव है। उन्होंने लोकतंत्र को हमारी रगों और सांसों में बुना हुआ बताया। लेकिन लोकतंत्र की एक खास पहचान अभिव्यक्ति की आजादी को मोदी सरकार में अक्सर देशद्रोह का नाम मिल रहा है।
सरकार विरोध का सुर सुनना नहीं चाहती और लोग अगर अपनी मांग को लेकर आंदोलन करने लगें, तो अब उसे भी अपराध की तरह देखा जा रहा है। प्रधानमंत्री नरेन्द मोदी ने सदन में आंदोलकारियों को आंदोलनजीवी नाम दिया। उन्हें परजीवी बताया। गृहमंत्री अमित शाह ने एक बार घुसपैठियों के लिए दीमक शब्द का इस्तेमाल किया था, अब प्रधानमंत्री विरोधियों को परजीवी कह रहे हैं। हमें समझ लेना चाहिए कि लोकतांत्रिक मूल्य देश में कितने नीचे पहुंच गए हैं।
आंदोलनजीवी शब्द से नाराजगी स्वाभाविक थी और इसके बाद सोशल मीडिया पर इस बयान की निंदा, खिंचाई और जवाब देने का सिलसिला शुरु हो गया। किसी ने खुद को गर्व से आंदोलनजीवी बताया, किसी ने गांधीजी के आंदोलनों की याद दिलाई, किसी ने माफीजीवी, दंगाजीवी जैसे शब्द ईजाद किए। सारा खेल दरअसल यही था।
भाजपा यही चाहती है कि वह एक दांव चले और सब उसमें किसी न किसी तरह उलझते चले जाएं। इससे पहले अवार्ड वापसी गैंग, टुकड़े-टुकड़े गैंग, अर्बन नक्सल, एंटी नेशनल, जैसे कितने दांव इसी तरह उसने चले और लोग उनका जवाब देने में ऐसे उलझे कि असल मुद्दों से ध्यान ही भटक गया।
सरकार अपने से सवाल पूछने वालों को चाहे जिस नाम से पुकार ले, संविधान ने सवाल पूछने का, विरोध करने का हक हरेक हिंदुस्तानी को दिया है और यह हक तभी छीना जा सकेगा, जब देश में लोकतंत्र खत्म हो जाए। सरकार अपनी मर्जी का संविधान बना ले, और उसे जबरन लोगों पर थोप दे। तो इस वक्त लोकतंत्र में यकीन रखने वालों का सारा ध्यान इसे बचाने पर होना चाहिए। आंदोलनजीवी जैसे शब्दों का जवाब तभी सरकार को मिल जाएगा।
हबीब जालिब ने कहा है-
वही हालात हैं फकीरों के
दिन फिरे हैं फकत वजीरों के
साज़िशें हैं वही खिलाफ-ए-अवाम
मशवरे हैं वही मुशीरों के।
- सर्वमित्रा सुरजन