- डॉ.अजीत रानाडे
यह उपभोक्ता और निवेश खर्च में वृद्धि की निरंतरता पर निर्भर करता है कि मध्यम से दीर्घावधि में 7 या 7.5 प्रतिशत की वृद्धि दर बनी रह सकती है या नहीं। भारत बड़े निवेश प्रवाह को आकर्षित कर रहा है तथा कई क्षेत्रों में बहुत सकारात्मक विकास दृष्टिकोण है। इसलिए विकास को बनाए रखने के लिए केवल मूल्य व नीतिगत स्थिरता और राजकोषीय विवेक की आवश्यकता होती है।
सरकार ने इस साल 30 नवंबर को जुलाई से सितंबर तक की अवधि यानी दूसरी तिमाही के आर्थिक आंकड़े प्रकाशित किए। इन्हें राष्ट्रीय आर्थिक उत्पादन का त्वरित अनुमान कहा जाता है। वे आउटपुट संख्याओं के दो व्यापक सेट अर्थात सकल मूल्य वर्धित (जीवीए) और सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के लिए प्रदान किए जाते हैं। पहला सेट प्रत्येक व्यक्तिगत उत्पादक या क्षेत्र अथवा उद्योग द्वारा अर्थव्यवस्था में जोड़े गए मूल्य का एक उपाय है। यह निश्चित रूप से सभी उत्पादकों में मापा जाता है, चाहे वे किसान हों, छोटे उद्यमी हों या बड़ी कंपनियां। जीवीए इस प्रकार इनपुट को आउटपुट में परिवर्तित करने में जोड़े गए मूल्य को मापता है। उत्तरार्द्ध यानी जीडीपी एक निश्चित अवधि के भीतर उत्पादित वस्तुओं और सेवाओं का मूल्य है जो वार्षिक जीडीपी या त्रैमासिक जीडीपी हो सकता है। इसे तीन अलग-अलग तरीकों से मापा जाता है- या तो सभी उत्पादन के मूल्य के रूप में अथवा सभी व्यय के या सभी आय के। तीनों एक ही परिणाम देते हैं क्योंकि जो बेचा जाता है उसका कुल मूल्य उन लोगों की आय का भी प्रतिनिधित्व करता है जो बेचे जाते हैं। जीवीए और जीडीपी के बीच एकमात्र अंतर भुगतान किए गए करों या प्राप्त सब्सिडी का है। आम तौर पर जीडीपी हमेशा जीवीए से अधिक होती है क्योंकि सरकार वास्तविक कर लगाती है जिसका संग्रह सब्सिडी से अधिक होता है।
चालू मूल्य पर जुलाई से सितंबर की अवधि के लिए मापी गई जीडीपी 72 लाख करोड़ रुपये रही जो पिछले साल की समान अवधि में 66 लाख करोड़ रुपये थी। इस ओर पिछले वर्ष की समान दो तिमाहियों के लिए जीवीए क्रमश: 64 और 59 लाख करोड़ था। इस तिमाही दर पर चालू कीमतों पर वार्षिक जीडीपी चालू वित्त वर्ष के दौरान 300 लाख करोड़ तक पहुंचने की संभावना है। यह दस साल पहले 2012 की तुलना में तीन गुना या 200 प्रतिशत अधिक होगा।
जीडीपी और जीवीए के लिए बढ़ती कीमतों के असर को हटाकर इन्हीं आंकड़ों की जांच करने की जरूरत है। ऐसे में जब पिछले चार साल से मुद्रास्फीति औसतन पांच प्रतिशत के करीब है, मौजूदा कीमतों पर मापा जाने वाला जीडीपी या जीवीए में वृद्धि 'वास्तविकÓ तस्वीर नहीं है क्योंकि इसमें 'बढ़ा-चढ़ाकरÓ बताया जाना वाला घटक भी है। मुद्रास्फीति के प्रभाव को हटा दें तो दूसरी तिमाही के दौरान जीडीपी की वास्तविक वृद्धि दर 7.6 प्रतिशत रही जो पिछले साल की 6.2 फीसदी से ज्यादा है। यह काफी प्रसन्नता की बात है।
अगर हम इस साल की दोनों तिमाहियों यानी अप्रैल से सितंबर की अवधि को एक साथ जोड़ लेते हैं तो जीडीपी में वास्तविक रूप से 7.7 प्रश की वृद्धि हुई है। इस दर से पूरे वर्ष के लिए जीडीपी वृद्धि निश्चित रूप से 7 प्रति सैकड़ा को पार कर जाएगी और भारत को दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में से एक बना देगी। युद्ध, मुद्रास्फीति, आपूर्ति श्रृंखला में व्यवधान, जियो पोलिटिकल तनाव और अनिश्चितता के कारण उथल-पुथल के कठिन समय में जीडीपी वृद्धि प्राप्त करना एक बहुत ही शानदार उपलब्धि है।
इसलिए हमें तीन चीजों की जांच करने की जरूरत है। सबसे पहले तो इस सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि को कौन से घटक प्रेरित कर रहे हैं। दूसरा, क्या यह मध्यम से लंबी अवधि में टिकाऊ है और तीसरा, सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि के लाभ लोगों के विभिन्न वर्गों, उनकी आजीविका, आय और रोजगार के संदर्भ में लाभ के रूप में क्या बदलाव आ रहे हैं।
पहले सवाल का जवाब यह है कि उपभोक्ता खर्च की तुलना में सरकार का खर्च और निवेश खर्च बहुत तेजी से बढ़ा है। ध्यान रखें कि सरकारी खर्च 10 प्रश और निवेश खर्च (जिसे पूंजी निर्माण भी कहा जाता है) 30 फीसदी बढ़ा है। बाकी का खर्च उपभोग खर्च है जो खर्च का सबसे बड़ा हिस्सा है। वर्तमान में शुद्ध निर्यात मुश्किल से 1 या 1.5 प्रतिशत है। गत वर्ष की तुलना में जुलाई से सितंबर की नवीनतम तिमाही के दौरान सरकारी खर्च 19 फीसदी की दर से बढ़ा। इस तिमाही में यह 7 लाख करोड़ रहा जबकि पिछले साल की समान अवधि में यह 5.9 लाख करोड़ था। इसी तरह, निवेश खर्च पिछले साल की तुलना में 13 प्रति सैकड़ा बढ़कर 21.5 लाख करोड़ हो गया जो पिछले साल 19.1 लाख करोड़ था। स्पष्ट रूप से ये दोनों एक शानदार गति से विकास दर को चला रहे हैं। दूसरी ओर, उपभोक्ता खर्च पिछले साल की तुलना में इस तिमाही में सिर्फ 8 प्रति सैकड़ा बढ़ा। ये सभी नाममात्र के आंकड़े हैं जिन्हें मुद्रास्फीति और बढ़ती कीमतों के प्रभाव के लिए समायोजित नहीं किया गया है।
यदि आप मुद्रास्फीति के लिए सही आंकलन करते हैं तो उपभोक्ता खर्च केवल 3 प्रतिशत के आसपास बढ़ रहा है और यह सकल घरेलू उत्पाद का 60 प्रतिशत बनाता है। यदि मध्यम अवधि में वास्तविक जीडीपी वृद्धि की गति को 7 फीसदी बनाए रखना है तो उपभोक्ता खर्च घटक को 6 या 7 प्रतिशत के करीब बढ़ना होगा। इसका मतलब है कि जुलाई से सितंबर की नवीनतम तिमाही के दौरान यह (वास्तविक रूप में) जिस दर से बढ़ी है, उसे दोगुना करना। यदि रोजगार, मजदूरी और खुदरा ऋ णों में अनुरूप वृद्धि होती है तो उपभोक्ता खर्च की गति को बनाए रखा जा सकता है।
खुदरा ऋणों में आवास ऋ ण शामिल हैं जो विकास में महत्वपूर्ण सहयोगी हो सकते हैं। उच्च मुद्रास्फीति उपभोक्ता भावना पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकती है क्योंकि लोग विवेकाधीन वस्तुओं पर खर्च में कटौती करते हैं। निवेश खर्च बढ़ रहा है जो एक बहुत अच्छा संकेत है। इसमें निजी पूंजीगत खर्च का एक बढ़ता हुआ घटक होना चाहिए और इसे केवल बुनियादी ढांचे पर सरकारी खर्च पर निर्भर नहीं होना चाहिए। राजकोषीय प्रोत्साहन प्रदान करने वाली सरकार घाटे की स्थिति से बाधित है इसलिए इसे नियंत्रित करने की जरूरत होगी। छमाही आधार पर वर्तमान कीमतों पर जीडीपी का सरकारी घटक 9 प्रतिशत बढ़ा जो उपभोक्ता खर्च घटक की तुलना में थोड़ा अधिक है। फिर भी, हम 2024 के राष्ट्रीय चुनावों के करीब आ रहे हैं इसलिए इस वित्तीय वर्ष के दौरान सरकार के पूंजीगत व्यय को बढ़ावा देने की संभावना है जो जीडीपी विकास को अतिरिक्त ताकत प्रदान करेगा।
यह उपभोक्ता और निवेश खर्च में वृद्धि की निरंतरता पर निर्भर करता है कि मध्यम से दीर्घावधि में 7 या 7.5 प्रतिशत की वृद्धि दर बनी रह सकती है या नहीं। भारत बड़े निवेश प्रवाह को आकर्षित कर रहा है तथा कई क्षेत्रों में बहुत सकारात्मक विकास दृष्टिकोण है। इसलिए विकास को बनाए रखने के लिए केवल मूल्य व नीतिगत स्थिरता और राजकोषीय विवेक की आवश्यकता होती है। जहां तक तीसरे सवाल की बात है कि विकास के लाभ समाज के विभिन्न वर्गों तक कैसे पहुंच रहे हैं, हमें सर्वेक्षणों के माध्यम से अधिक सूक्ष्म आर्थिक आंकड़ों की आवश्यकता होगी। आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण (पीएलएफएस) पुरुषों और महिलाओं दोनों द्वारा बढ़ती रोजगार संख्या और उच्च श्रम बल भागीदारी दर का संकेत दे रहा है। वास्तविक मजदूरी दरों में वृद्धि की पुष्टि करने की आवश्यकता है।
चूंकि उपभोक्ता खर्च में वृद्धि की वर्तमान दर कम है, तो इसका अर्थ है कि भले ही मजदूरी बढ़ रही हो किन्तु श्रमिकों की आय पर्याप्त तेजी से नहीं बढ़ रही है। आरबीआई उपभोक्ता भावना सर्वेक्षण भी एक उपयोगी गाइड है। यहां भी मुद्रास्फीति की उम्मीद कम होने से उपभोक्ताओं का भरोसा बढ़ाने में मदद मिलेगी। आम तौर पर उच्च आय वाले परिवारों में बचत का अनुपात बहुत अधिक होता है इसलिए उपभोक्ता खर्च में निरंतर वृद्धि के लिए सभी आय श्रेणियों में विकास के लाभ की आवश्यकता होती है। यह कुछ ऐसा मुद्दा है जिसे हमें देखने की जरूरत है। अर्थव्यवस्था के बारे में आ रहे समाचार बेहतर हो रहे हैं और यह जरूरी है कि आर्थिक नीति यह सुनिश्चित करे कि विकास प्रक्रिया वास्तव में समावेशी हो।
(लेखक प्रसिद्ध अर्थशास्त्री हैं। सिंडिकेट: द बिलियन प्रेस)