• एफआरबीएम एक्ट- 2003 का अनुपालन बड़ी चुनौती

    वर्ष 2021-22 में राजस्व संग्रह में सुधार होने एवं राजस्व व्यय नियंत्रित करने के कारण राजकोषीय घाटा जीडीपी का 6.8 प्रतिशत अनुमानित है

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    - डॉ. हनुमन्त यादव

    वर्ष 2021-22 में राजस्व संग्रह में सुधार होने एवं राजस्व व्यय नियंत्रित करने के कारण राजकोषीय घाटा जीडीपी का 6.8 प्रतिशत अनुमानित है। वर्ष 2022-23 में राजकोषीय घाटा जीडीपी के 5 प्रतिशत तक लाया जा सकता है। राज्यों का राजकोषीय घाटा उनकी जीएसडीपी का 7 प्रतिशत तक पहुंच गया है। सरकार  एफआरबीएम एक्ट- 2003 में संशोधन करके राजकोषीय घाटा का प्रावधान 3.0 से बढ़कर 5.0 प्रतिशत करना चाहती है। राज्यों की भी यही मांग है। फिलहाल वर्तमान प्रावधानों को देखते हुए आगे आनेवाले तीन सालों तक एफआरबीएम एक्ट-2003 के प्रावधानों का पालन करना केन्द्र व राज्यों के लिए बड़ी चुनौती बनी रहने वाली है।

    भारत को 1990 के आर्थिक संकट के समय  अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष आईएमएफ से विदेशी मुद्रा में कर्ज लेने की नौबत आने पर  भारत ने मजबूरी में उसके द्वारा सुझाए गए आर्थिक सुधारों को  लागू करने का निर्णय लेना पड़ा।  अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष आईएमएफ द्वारा विदेशी मुद्रा में कर्ज देने की अनेक शर्तों में एक शर्त यह भी थी कि भारत को अपनी जीडीपी को ध्यान में रखते हुए विदेशी कर्ज और राजकोषीय घाटा की अधिकतम सीमा तय करना चाहिए। आईएमएफ की दूसरी शर्त यह थी कि भारत को मुद्रा स्फीति पर नियंत्रण रखने के लिए उसकी भी अधिकतम सीमा तय करती चाहिए। आईएमएफ के सुझाव को ध्यान में रखते हुए भारत सरकार ने राजकोषीय उत्तरदायित्व व बजटरी प्रबंधन अधिनियम-2003 की संसद से मंजूरी लेकर 4 जुलाई 2004 से प्रभावशील किया ।  आईएमएफ की मुद्रास्फीति नियंत्रित करने की शर्त को लागू करने के लिए मुद्रा स्फीति को मौद्रिक नीति के क्षेत्र में दायरे में मानकर इसको नियंत्रित करने की जिम्मेदारी भारतीय रिजर्व बैंक को सौंपी। रिजर्व बैंक ने मुद्रा स्फीति को नियंत्रित करने के लिए मौद्रिक नीति खासकर ब्याज दरों का सहारा लिया।

    राजकोषीय उत्तरदायित्व व बजटरी प्रबंधन अधिनियम एफआरबीएम एक्ट- 2003 के अनुसार केन्द्र  सरकार का राजकोषीय घाटा उसकी जीडीपी के 3 प्रतिशत से अधिक नहीं होना चाहिए तथा बाण्डों के निर्गमन व संस्थागत  बाजार कर्ज  की कुल राशि जीडीपी का 40 प्रतिशत से अधिक नहीं होना चाहिए। उसी प्रकार राज्यों का राजकोषीय घाटा राज्य की जीएसडीपी से 3 प्रतिशत तथा बाण्डों व संस्थागत कर्ज की  कुल राशि का 20 प्रतिशत से अधिक नहीं होना चाहिए। दुर्भाग्य से अर्थशास्त्री डॉ. मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री और प्रणव मुखर्जी और पी. चिदम्बरम सरीखे वित्तमंत्रियों के राजकोषीय प्रबंधन के बावजूद एफआरबीएम एक्ट-2003 के प्रभावशील होने के बाद से 2013 तक राजकोषीय घाटा जीडीपी के 5 प्रतिशत से नीचे नहीं लाया जा सका। 2014 में केन्द्र में एनडीए के सत्तारूढ़ होने पर अरुण जेटली द्वारा वित्त मंत्रालय संभालने के बाद 2015 से कुशल राजकोषीय प्रबंधन के फलस्वरूप घाटा में हर वर्ष कमी लाते हुए 2017 में जीडीपी के 3.5 प्रतिशत तक लाने में सफलता प्राप्त की जा सकी।

    केन्द्र सरकार के विपरीत भारत के अधिकांश राज्यों ने वर्ष  2006 में ही राजकोषीय घाटा को राज्य की जीएसडीपी के 3 प्रतिशत तक लाने में सफलता प्राप्त की। राज्यों के बजट जब प्रस्तुत किए जाते थे तो उसमें राजस्व घाटा की बजाय राजस्व अतिरेक दर्शाया जाता था और राजकोषीय घाटा राज्य की  जीएसडीपी के 3 से 3.5 प्रतिशत के बीच दर्शाया जाता था। इन राज्यों में पश्चिम बंगाल अपवाद बना रहा जहां वाम मोर्चा सरकार ने 2010 तक राजकोषीय उत्तरदायित्व व बजटरी प्रबंधन अधिनियम एफआरबीएम एक्ट-2003 को विधानसभा में अनुमोदन हेतु पटल पर रखा ही नहीं था। वाम मोर्चा सरकार की उदासीनता के कारण पश्चिम बंगाल का राजकोषीय घाटा उसकी जीएसडीपी के 7 प्रतिशत से अधिक बना रहा। राज्य में ममता बनर्जी की अगुवाई में तृणमूल कांग्रेस के वर्ष 2011 में सत्तारूढ़ होने के बाद ममता बनर्जी ने फिक्की के महासचिव अर्थशास्त्री डॉ. अमित मित्रा को राज्य का वित्तमंत्री नियुक्त किया। अमित मित्रा के कुशल राजकोषीय प्रबंधन से राज्य का राजकोषीय घाटा राज्य की जीएसडीपी से 3 प्रतिशत से भी नीचे 2.5 प्रतिशत तक लाने में सफलता प्राप्त की गई।  

    पश्चिम बंगाल से ठीक विपरीत छत्तीसगढ़ राज्य का उसकी स्थापना के बाद से ही राजकोषीय प्रबंधन प्रशंसनीय रहा है। मध्यप्रदेश के विभाजन से जन्मे छत्तीसगढ़ को कमजोर राजकोष की स्थिति मध्यप्रदेश से विरासत में मिली थी। राज्य के वित्तमंत्री रामचन्द्रसिंह सिंहदेव के लिए आर्थिक-सामाजिक रूप से पिछड़े राज्य छत्तीसगढ़ के लिए राजस्व जुटाना बहुत कठिन था इसलिए उन्होंने राज्य के राजस्व व्यय में भारी कटौती की। उन्होंने राज्य के वैधानिक संस्थानों को छोड़कर अन्य सभी निगमों, प्राधिकरणों, मंडलों एवं अन्य संस्थानों को भंग  कर दिया। राज्य स्तरीय वैधानिक संस्थानों में विभाग के मंत्री और अन्य संस्थानों में विभाग के सचिव को अध्यक्ष का भार सौंपा गया। उसी प्रकार एक वर्ष के लिए अत्यावश्यक जरूरतोंं को छोड़कर नई खरीदी पर रोक लगा दी। नतीजा यह हुआ कि वर्ष 2002-03 में राजकोषीय घाटा राज्य की जीएसडीपी का 3 प्रतिशत रह गया। रामचंद्रसिह सिंहदेव द्वारा कुशल राजकोषीय प्रबंधन की परम्परा अगले 15 वर्षों तक कायम  रही।

    सामान्य ही नहीं प्रबुद्ध नागरिक भी राज्य की आर्थिक स्थिति का अनुमान उत्पादन, रोजगार और महंगाई से लगाते हैं। उन्हें राज्य की वित्तीय स्थिति समझने का समय ही नहीं रहता है। कोरोना के भयंकर संक्रमण ने मात्र कुछ महीनों में ही केन्द्र और राज्य सरकारों के राजकोषीय प्रबंधन को बुरी तरह तहस नहस कर दिया। आर्थिक गतिविधियों में हुई रुकावट के कारण एक ओर तो राजस्व संग्रह में भारी कमी रही तो दूसरी ओर कोरोना चिकित्सा, कमजोर लोगों व छोटे व्यवसायियों पर अतिरिक्त व्यय भार ने कुल व्यय को बढ़ाया। संसाधनों की बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए, वित्तीय वर्ष 2020-21 के लिए केंद्र सरकार के 780 हजार करोड़  रुपये के बाजार से कर्ज लेने के बजट आकलन लक्ष्य वास्तविकता में 12 लाख करोड़ रुपये अर्थात 50 प्रतिशत से अधिक तक चला गया। यद्यपि पिछले कुछ महीनों में अर्थव्यवस्था की वसूली के कारण, मासिक राजस्व संग्रह में सुधार हुआ है, किंतु वर्ष  2020-21 के लिए व्यय नीति आर्थिक विकास को बढ़ावा देने के लिए पूंजीगत व्यय घटक पर जोर देने के कारण राजकोषीय घाटा बढ़ गया है। केन्द्र सरकार पर कर्ज जीडीपी के 70 प्रतिशत तक चला गया है। राज्यों पर भी कर्ज उनकी जीएसडीपी के 40 प्रतिशत तक पहुंच गया है।

    वर्ष 2020-21 में राजकोषीय घाटा मूल अनुमान 4 प्रतिशत की तुलना में जीडीपी का 9.5 प्रतिशत तक चला गया है। वर्ष 2021-22 में राजस्व संग्रह में सुधार होने एवं राजस्व व्यय नियंत्रित करने के कारण राजकोषीय घाटा जीडीपी का 6.8 प्रतिशत अनुमानित है। वर्ष 2022-23 में राजकोषीय घाटा जीडीपी के 5 प्रतिशत तक लाया जा सकता है। राज्यों का राजकोषीय घाटा उनकी जीएसडीपी का 7 प्रतिशत तक पहुंच गया है। सरकार  एफआरबीएम एक्ट- 2003 में संशोधन करके राजकोषीय घाटा का प्रावधान 3.0 से बढ़कर 5.0 प्रतिशत करना चाहती है। राज्यों की भी यही मांग है। फिलहाल वर्तमान प्रावधानों को देखते हुए आगे आनेवाले तीन सालों तक एफआरबीएम एक्ट-2003 के प्रावधानों का पालन करना केन्द्र व राज्यों के लिए बड़ी चुनौती बनी रहने वाली है।

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