- शकील अख्तर
विपक्ष के 197 नेताओं के मामले ईडी ने कोर्ट में पेश किए। यह कोर्ट में जाने वाले मामले हैं। छापे कितने विपक्ष के नेताओं के मारे, परेशान कितने लोगों को किया, यह तो बहुत बड़ी संख्या है। मगर जो कोर्ट में गए मामले उनमें से केवल तीन में सज़ा हुई। डेढ़ परसेंट! और यह माना है खुद मोदी सरकार ने संसद में। तो अपनी छवि बनाने, बचाने का एक तरीका यह है एक कि दूसरे पर आरोप पर आरोप लगाओ।
देश की न्यायपालिका को अब अपनी इज्जत बचाना मुश्किल पड़ रही है। सुप्रीम कोर्ट ने उसी कोशिश में खुद दिल्ली हाईकोर्ट के जज यशवंत वर्मा के घर के जलते हुए नोटों का वीडियो जारी किया। कोशिश है कि सब नहीं पूरा ज्यूडीशरी सिस्टम नहीं इक्का-दुक्का हैं और हम खुद उन्हें छोड़ेंगे नहीं।
अच्छा वैरी गुड! तो सोमवार को सुप्रीम कोर्ट में जज यशंवत वर्मा को बुला लीजिए! सारे दाग धुल जाएंगे। बर्खास्तगी की प्रक्रिया लंबी है। जटिल है। वह संसद के द्वारा होने दीजिए। हालांकि वहां भी मुश्किल है। सत्ता पक्ष क्यों साथ देगा। मोदी सरकार ने बचाने की पूरी कोशिश की। फायर ब्रिगेड जो हमेशा विवादों से दूर रही। केवल सराहना की ही पात्र रही। आग से लड़कर लोगों को बचाने वाली बहादुरी और साहस का प्रतीक। उससे झूठ कहलवा दिया कि
हमने कोई नोट नहीं देखे। सुप्रीम कोर्ट द्वारा जारी वीडियो में फायर ब्रिगेड के कर्मी हतप्रभ, नोटों को बचाते हटाते दिख रहे हैं।
अपनी छवि बचाने के लिए सबकी छवि दांव पर लगा दी। देश की भी। पहले यह बोलकर कि न कोई आया है न कोई है कहकर। चीन के बचाव में। हमारे बहादुर सैनिकों की शहादत को झुठलाकर।
फिर अभी अमेरिका द्वारा भारतीयों को एक के बाद एक तीन जहाज में वह भी सैनिक जहाज में हथकड़ी-बेड़ियों के साथ वापस भेजने के शर्मनाक मामले में चुप रहकर। फिर एक के बाद वीडियो जारी करके भारत को खरी-खोटी सुनाने। ट्रंप के सामने मोदी के मौन बैठे रहने के वीडियो ने। यह कहना कि भारत को एक्सपोज कर दिया (डरा दिया) तो उसने टेरिफ (सीधा मतलब कि भारत से जो भी सामान अमेरिका जाएगा वह वहां सस्ते रेटों पर देना होगा) कम कर दिया।
भारत की एक डरी हुई छवि! चीन के सामने अमेरिका के सामने। मगर उसकी कोई चिन्ता नहीं। अपनी व्यक्तिगत छवि चमकाने के लिए। शेरों से मिलने पहुंच गए। बीच में शीशा। इस पार मोदी जी उस पार शेर। मीडिया और भक्त लहालोट हो गए। हमारा शेर शेरों के बीच। फिर शावक को बोतल से दूध पिलाते हुए।
फिर भक्तों को पता नहीं क्या याद आया पन्ना धाय कि उस जैसा मातृत्व या फिर कोई बहादुरी का प्रतीक! लोगों को मजबूरी में नेहरू और इन्दिरा के वह फोटो डालना पड़े जिसमें वे शेरों के साथ खेल रहे हैं। हमने लिखा मजबूरी में। क्योंकि यह कोई स्वाभाविक बहादुरी का प्रतीक नहीं है। वीरता होती है अमेरिका को सामने-सामने सुनाने की। उसका हाथ पाकिस्तान की पीठ पर और इन्दिरा पाकिस्तान के दो टुकड़े करते हुए। उससे पहले जब विकासशील देश सब अमेरिका की कृपा पाने के लिए उसके साथ खड़े होने की घोषणा करते थे। नेहरू कहते थे नहीं हम किसी के खेमे में नहीं जाएंगे। हम तीसरी दुनिया बनाएंगे।
गुट निरपेक्ष। और उन्होंने एक गुट निरपेक्ष आन्दोलन खड़ा कर दिया। मिस्र के नासिर, युगोस्लाविया के टीटो, इंडोनेशिया के सुकर्णों के साथ मिलकर। यूएन के दो तिहाई राष्ट्रों का प्रतिनिधित्व किया। 120 देश साथ थे। वह बहादुरी, साहस, अन्तरराष्ट्रीय ताकत। शेरों के साथ फोटो खिंचाने में क्या है? अभी गुगल पर डालिए हजारों लोगों के फोटो आ जाएंगे। शेरों के साथ। जंगल में। अपने लोगों को इसी तरह बेवकूफ बनाया जा रहा है। और सब तो नहीं
मगर भक्त और मीडिया तो बन रहा है। बीजेपी के लोग भी सब नहीं बन रहे। हंसते हैं। मगर डर है तो थोड़ा छुपकर।
तो यह जज साहब का मामला भी छवि बचाने का है। भ्रष्टाचार तो खतम हो गया। जो है वह विपक्ष के नेताओं के यहां है। काला धन भी खतम हो गया। जिसका हम प्रचार करते हैं वह भी विपक्ष के नेताओं के यहां मिला कहकर बताते हैं
मगर वह मिलता और दिखता नहीं। मीडिया में कह देते हैं कि पूर्व मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के यहां नोट गिनने की मशीनें पहुंचाई गई हैं। अच्छा कितना करोड़ मिला। नहीं वह केवल कुछ लाख है। खेती किसानी वाले हैं, विधायकी की तनखा है। और कुछ लाख! केवल 35 लाख। मगर प्रचार तंत्र है।
विपक्ष के 197 नेताओं के मामले ईडी ने कोर्ट में पेश किए। यह कोर्ट में जाने वाले मामले हैं। छापे कितने विपक्ष के नेताओं के मारे, परेशान कितने लोगों को किया, यह तो बहुत बड़ी संख्या है। मगर जो कोर्ट में गए मामले उनमें से केवल तीन में सज़ा हुई। डेढ़ परसेंट! और यह माना है खुद मोदी सरकार ने संसद में।
तो अपनी छवि बनाने, बचाने का एक तरीका यह है एक कि दूसरे पर आरोप पर आरोप लगाओ। नेहरू-गांधी पर आरोप लगाने से काम नहीं चल रहा तो मुगलों तक पहुंच जाओ। बस अपनी कमीज दूसरों की कमीज से ज्यादा साफ दिखना चाहिए। भक्तों और मीडिया की नजर में। हो या न हो!
इसलिए यह जज साहब का लगाया दाग थोड़ा मुश्किल हो गया। पुरानी घटना है। होली की। दबा दी थी। मगर अख़बार में खबर छप गई। अख़बार को मालूम नहीं था कि इतना बवाल हो जाएगा। जनता जाग जाएगी। नहीं तो नहीं छापता। जाने कितनी खबरें दबा दी गईं। मगर गलती हो गई। और फिर यह हुआ कि इसी दिन राज्यसभा में मामला उठ गया। उससे भी कुछ नहीं होता बहुत हल्के से उठा था। सुबह अखबार में नोटों का पहाड़ मिला खबर छपने के बाद लग रहा था कि विपक्ष संसद में हंगामा कर देगा। मगर तत्काल और तेज प्रतिक्रिया देना इसे आता नहीं है। जब सरकार में थे तब भी 2011 -12 से अन्ना हजारे और उनके साथ जुड़े भाजपा संघ, केजरीवाल और सिविल सोसायटी का एक फ्राड टर्म बनाकर जुड़े लोग यूपीए सरकार पर झूठे आरोप लगाते रहे और यह उसका जवाब नहीं दे पाए। सरकार गंवा दी। आज तक वापस इसीलिए नहीं ले पाए कि सही मौके पर अपनी बात कहना अभी भी नहीं सीख पाए।
लेकिन उस दिन राज्यसभा के सभापित जगदीप धनखड़ जो मोदी सरकार को बचाने में सबसे आगे आगे रहते हैं वह भी नहीं समझ पाए कि मामला तूल पकड़ने वाला है। उन्होंने भी कांग्रेस के जयराम रमेश के मामला उठाए जाने पर लंबी टिप्पणी कर दी। कहा चर्चा करवाएंगे।
बस यहीं से धुआं निकलना शुरू हो गया। वह आग जो एक हफ्ते पहले फायर ब्रिगेड बुझा आया था मगर सारी जानकारी पुलिस और सरकार को दे दी थी। जलते हुए नोटों के वीडियो भी। जिसे सरकार ने दबा दिया था। धुआं उठता देखकर सब फिर ताजा हो गया। सबसे बड़ी टिप्पणी इलाहाबाद से आई जहां आनन-फानन में जज वर्मा को वापस भेजा जा रहा था। हाई कोर्ट बार ऐसोसिएशन ने कहा कि कूड़ादान समझ रखा है हमें? इतने बड़े आरोप के बाद हमारे यहां पहुंचा रहे हो।
सब खेल बिगड़ गया। जनता में जो नफरत के नशे में ओंधी पड़ी है कुछ सुगबुगाहट हुई। सुप्रीम कोर्ट को अपनी छवि बचाने की चिंता हुई। न्यायपालिका एक ऐसी चीज है जिसकी अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चा समीक्षा होती है। अकादमिक बहसें होती हैं। हमारे यहां की टीवी डिबेटों की तरह नहीं कि मोदी ही सत्य है बाकी सब पाप अनाचार। तो उसे तीन जजों की एक कमेटी बनाना पड़ी। जज वर्मा को कामकाज से अलग करना पड़ा। लाइन हाजिर। बहुत सारे शब्द हैं आम कर्मचारी के लिए तो लूप लाइन में डालना। और भी बहुत कुछ। मगर जज साहब शायद अभी भी आनरेबल (माननीय) हैं।
अब देखना है क्या होता है? सारे संविधानिक इन्स्टिट्यूशन (संस्थाएं) ढह गए हैं। क्या फिर से खुद को बचाने की कवायद शुरू करते हैं? हिम्मत लाते हैं? न्यायपालिका ने तो कुछ शुरूआत की है। हिचकते हुए। यू टर्न लेते हुए। मगर की है। बाकी संस्थाएं देखते हैं कितनी उनकी आत्माएं बची हुई हैं!
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार है)