- सुभाष गाताडे
क्या हम कह सकते हैं कि उसकी जड़े ''हिन्दुत्व के अगणी विचारक' कहे गए सावरकर के लेखन और चिंतन में मिलती हैं जिन्होंने 'बदले की राजनीति' की समझदारी, यहां तक कि हिन्दु राष्ट्र की परियोजना को आगे बढ़ाने के लिए बलात्कार को भी एक राजनीतिक हथियार के तौर पर इस्तेमाल करने की चर्चा अपने चर्चित ग्रंथ 'भारतीय इतिहासातील सहा सोनेरी पाने' में की।
किसे मिलता है 'अमृत; और किसे 'विष' ? हिन्दुओं के विष्णु पुराण में क्षीरसागर के समुद्र मंथन के बाद देवों को 'अमृत ' मिलने और दानवों को विष मिलने की कहानी बताई गयी है।
वैसे आज़ादी के अमृत काल में - जैसा कि हुक्मरान इस दौर को संबोधित करते हैं - बिल्कुल उलटा नज़ारा उपस्थित है, जहां 41 साल की बिल्किस बानो के अत्याचारी आज खुलेआम सड़कों पर घुम रहे हैं - क्योंकि सूबाई सरकार ने उनकी उम्र कैद की सज़ा घटा कर उन्हें रिहा किया है - जगह जगह सम्मानित हो रहे हैं, और खुद बिलकिस बिना किसी डर के जीने के अपने अधिकार के लिए, शांति के साथ अपनी जिन्दगी बीताने के लिए फिर एक बार संघर्षरत होने के लिए अभिशप्त है।
जिस बेशर्मी के साथ गुजरात सरकार इस मामले में आगे बढ़ी है, इसे इस बात से भी समझा जा सकता है कि इन दोषसिद्ध अपराधियों की उम्र कैद की सज़ा वह घटाने जा रही है, इसके बारे में उसने कोई भी भनक बिल्किस या उनके पति याकूब रसूल को नहीं दी थी।
अब राज्य सरकार जो भी दावे करे यह स्पष्ट है कि इतने बड़े फैसले को - जिस मसले की चर्चा देश और दुनिया के मीडिया में काफी हुई है - बिना केन्द्र सरकार की लिखित/अलिखित सहमति के बिना या उनकी तरफ से मिले संकेत के बिना नहीं लिया जा सकता था। कानून के जानकार बताते हैं कि राज्य सरकार ने इन दोषसिद्धों की सज़ा घटाने का निर्णय केन्द्र सरकार द्वारा इस मसले पर बने तमाम दिशानिर्देशों का उल्लंघन करते हुए लिया है । गौरतलब है कि कैदियों को रिहा करने या उन्हें सज़ा में छूट देने के जो नियम बने हैं, उनमें साफ तौर पर लिखा गया है कि बलात्कार और हत्या के मुज़रिमों को सज़ा में छूट नहीं मिलेगी।
कहा जाता है कि सत्य में यह संभावना छिपी होती है कि उसे कितना भी दबाने की कोशिश करें, वह अचानक उभर आता है। बिलकिस के अत्याचारियों की रिहाई के बहाने भी यही सत्य सामने आया है कि प्रधानमंत्री की बातें कितनी खोखली होती हैं, जहां उनके अपने मातहत भी उन पर चलने से तौबा करते हैं।
कानूनी प्रक्रियाओं, नियमों का उल्लंघन करते तथा सार्वजनिक नैतिकता के बुनियादी उसूलों को भी ताक पर रख कर लिए गए इस निर्णय ने सिविल समाज के एक तबके में जबरदस्त आक्रोश पैदा किया है और यह मांग जोरदार तरीके से उठी है कि उम्र कैद की सज़ा घटा कर रिहा किए इन अपराधियों को फिर एक बार जेल की सलाखों के पीछे भेजा जाए और सुप्रीम कोर्ट से यह मांग की गयी है कि न्याय के इस खिलवाड़ को वह रोके।
इस पूरे प्रसंग में विचलित करने वाली बात यह भी है कि इस निर्णय को लेकर गुस्सा उतना व्यापक नहीं हो सका है जैसा कि निर्भया मामले में (2011) में या पूर्ववर्ती अन्य मामलों में हम लोगों ने देखा था।
क्या इसका मतलब अब लोगों का गुस्सा भी पीड़िता /उत्तरजीवी/ सर्वावर की आस्था तक सीमित होता जा रहा है ? क्या यह दोषसिद्ध लोग - जिनकी सज़ा घटा दी गयी है - जो सामूहिक बलात्कार एवं मासूमों के कतलेआम के दोषी पाए गए हैं, फिर एक बार सलाखों के पीछे चले जाएंगे ?
एक बात तो तय है कि आने वाले दिनों हिन्दुत्व परिवार के तमाम आनुषंगिक संगठनों के सदस्य, कार्यकर्ता इन दोषसिद्धों से मिलते रहेंगे और मुमकिन यह भी है जेल में इतना समय बीताए इन लोगों का सम्मान भी हो, ताकि यह दबाव बनाया जा सके कि उनकी रिहाई के प्रश्न पर पुनर्विचार का मामला जोर न पकड़े।
वैसे जिस तरह से इन सभी दोषसिद्धों का जेल के बाहर ही स्वागत हुआ, उन्हें मालाएं पहनाई गयीं, मिठाइयां खिलाई गई, कुछ लोगों की तो बाकायदा आरती उतारी गयी गोया किसी रणभूमि से लौट रहे हैं, दरअसल इसी बात की ताईद करता है कि मानवता के खिलाफ तरह तरह के अपराधों को अंजाम देने वालों के बारे में हिन्दुत्व के दायरों में क्या सोचा जाता है ?
गोधरा जिले की जिस समीक्षा कमेटी ने इन दंगाइयों को रिहा करने का निर्णय लिया था, इनमें से एक भाजपा विधायक रिहाई के बाद यह कहते पाए गए हैं कि यह सभी अभियुक्त 'ब्राहमण हैं और अच्छे संस्कारों वाले हैं।'सामूहिक बलात्कार के लिए जिम्मेदार दोषसिद्ध अपराधियों का ऐसा महिमामंडन और सैनिटायजेशन / साफ सुथराकरण आप ने किसी दूसरे समाज या मुल्क में नहीं देखा होगा।
फिलवक्त़ यह कहना मुश्किल है कि हिन्दुत्व के जिन जमाती संगठनों ने इन अभियुक्तों को फुलमालाएं पहनायीं, उन्होंने किस वजह से यह सम्मान देना जरूरी समझा ! क्या वह उन्हें उनके द्वारा अंजाम दिए गए सामूहिक बलात्कार को लेकर सम्मानित करना चाह रहे थे या उन्होंने जिन हत्याओं को अंजाम दिया, उस पर उनके 'शौर्य' पर उनका खैर मकदम करना चाह रहे थे या कथित तौर पर हिन्दु राष्ट्र के विचार के लिए जो साल उन्होंने जेलों में बीताए थे, उस पर उनकी हौसलाआफजाई करना चाह रहे थे।
वैसे कोई भी सभ्य समाज ऐसे मानव द्रोही कारनामों को अंजाम देने वालों का, जिन्होंने मासूमों को मार डाला, किसी बच्चे की पत्थर पर पटक कर हत्या की या किसी स्त्री के शरीर पर अपना 'पराक्रम' उतारा, उनका सम्मान नहीं कर सकता, अलबत्ता यह 'न्यू इंडिया' है, जहां अब सम्मान के शायद नए नियम बने हैं।
बच्चियों पर, किशोरियों पर बलात्कार की घटनाएं सामने आती रहती हैं और उन्हें न्याय दिलाने की लड़ाई बार बार मृगमरीचिका बन जाती दिखती है।
आठ साल की वह बच्ची आसिफा - जो बक्करवाल समुदाय से थी - उसका अपहरण करके उसके साथ किस तरह कई दिनों तक बलात्कार किया जाता रहा और जिसके लिए किसी मंदिर परिसर का इस्तेमाल किया गया, वह सिहरन करने वाली कहानी सभी ने पढ़ी होगी और जब बलात्कारियों को पकड़ा गया तब आलम यह बना कि उनकी रिहाई के लिए खुद भाजपा के कई मंत्री हाथों में तिरंगा लिए जुलूसों में शामिल हुए थे
यह मसला विचारणीय लग सकता है कि बलात्कार, यौन हिंसा या 'गैर' कहे जाने वाले लोगों की हिंसा पर हिन्दुत्व वर्चस्ववादी जमातों में दंडहीनता की मानसिकता कैसे व्याप्त है।
क्या हम कह सकते हैं कि उसकी जड़े ''हिन्दुत्व के अगणी विचारक' कहे गए सावरकर के लेखन और चिंतन में मिलती हैं जिन्होंने 'बदले की राजनीति' की समझदारी, यहां तक कि हिन्दु राष्ट्र की परियोजना को आगे बढ़ाने के लिए बलात्कार को भी एक राजनीतिक हथियार के तौर पर इस्तेमाल करने की चर्चा अपने चर्चित ग्रंथ 'भारतीय इतिहासातील सहा सोनेरी पाने' में की।
सावरकर की जिन्दगी का बहुत कम ज्ञान अलबत्ता बेहद निंदनीय पहलू है कि वह शिवाजी महाराज द्वारा कल्याण के नवाब की बहू के साथ बरती शिष्टता को लेकर उनकी बहुत आलोचना करते हैं। बताया जाता है कि कल्याण के नवाब की बहू को गिरफतार करके शिवाजी महाराज के सामने किसी ने पेश किया था। इस बहू को नज़राना के तौर पर पेश करने के लिए न केवल शिवाजी महाराज ने अपने उस सेनापति की निंदा की बल्कि उस युवती को ससम्मान अपने घर भेज दिया। सावरकर इस कार्रवाई को विकृत सदाचार की कार्रवाई कहते हैं / भारतीय इतिहासातील सहा सोनेरी पाने, खंड 4 और 5, पेज 147, 174।