- सर्वमित्रा सुरजन
बिहार की राजनीति में इस सप्ताह हुए बड़े उलटफेर से क्या अब देश की राजनीति में किसी बड़े बदलाव की उम्मीद की जा सकती है। पाठक जानते हैं कि नीतीश कुमार के नेतृत्व में जदयू और भाजपा की गठबंधन सरकार 2020 के बिहार विधानसभा चुनावों में बनी थी। इन चुनावों में सबसे अधिक सीटें राजद को मिली थीं, उसके बाद भाजपा और तीसरे स्थान पर जदयू थी। नीतीश कुमार के लिए इस तरह तीसरे स्थान पर खिसक जाना एक बड़ा झटका था।
बिहार की राजनीति की पृष्ठभूमि पर आधारित वेब सीरीज महारानी में एक संवाद है कि बिहार एक स्टेट नहीं है, स्टेट ऑफ माइंड है। इस संवाद का अभिप्राय लोग अपने-अपने तरीके से निकाल सकते हैं। इसका एक अर्थ ये भी हो सकता है कि बिहार की जनता के साथ-साथ राजनेताओं के मन में क्या चल रहा है, जिसने इस बात को समझ लिया, वो बिहार पर राज कर सकता है। फिलहाल लोगों और नेताओं की नब्ज़ पकड़ने में नीतीश कुमार चैंपियन बन चुके हैं और यही वजह है कि बुधवार को उन्होंने आठवीं बार बिहार के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। इस बार उनके साथ फिर से तेजस्वी यादव उपमुख्यमंत्री बने हैं। उपमुख्यमंत्री या उपप्रधानमंत्री पद जैसी कोई व्यवस्था संविधान में नहीं बनाई गई है, लेकिन गठबंधन की राजनीति में दलों और नेताओं की सुविधा के हिसाब से यह पद गढ़ लिया गया है और अब कई राज्यों में उपमुख्यमंत्री बनने लगे हैं। बिहार में पिछली सरकार में नीतीश कुमार के साथ दो उपमुख्यमंत्री थे। उप्र में भी दो मुख्यमंत्री हैं और आंध्रप्रदेश में पांच।
बहरहाल, यहां मुद्दा ये नहीं है कि नीतीश कुमार आठवीं बार मुख्यमंत्री बने हैं और तेजस्वी यादव दूसरी बार उपमुख्यमंत्री। मुद्दा ये है कि बिहार की राजनीति में इस सप्ताह हुए बड़े उलटफेर से क्या अब देश की राजनीति में किसी बड़े बदलाव की उम्मीद की जा सकती है। पाठक जानते हैं कि नीतीश कुमार के नेतृत्व में जदयू और भाजपा की गठबंधन सरकार 2020 के बिहार विधानसभा चुनावों में बनी थी। इन चुनावों में सबसे अधिक सीटें राजद को मिली थीं, उसके बाद भाजपा और तीसरे स्थान पर जदयू थी। नीतीश कुमार के लिए इस तरह तीसरे स्थान पर खिसक जाना एक बड़ा झटका था। लेकिन फिर भी बिहार में उनकी पकड़ देखते हुए भाजपा ने उन्हें ही मुख्यमंत्री का चेहरा बनाया और महाराष्ट्र के विपरीत यहां अपने साथी से किया वादा निभाया। हालांकि भाजपा के नेताओं की कसक बार-बार जाहिर हो जाती थी कि उनमें से कोई मुख्यमंत्री नहीं बना। नीतीश कुमार भी अपने ही राज्य में छोटे भाई की भूमिका में आने पर कई बार अपमानित महसूस करते रहे। नतीजा ये रहा कि भाजपा और जदयू के बीच तनाव पनपने लगा। वैसे भी राजनीति में रिश्ते मतलब साधे जाने तक ही निभाए जाते हैं। 2015 में लालू प्रसाद के साथ मिलकर चुनाव जीतने वाले नीतीश कुमार को 2017 में भाजपा के साथ अधिक फायदा नजर आया, तो वे तेजस्वी यादव के भ्रष्टाचार की शिकायतें लेकर अलग हो गए। अब उन्हें तेजस्वी यादव के साथ जाने से राजनैतिक सुरक्षा महसूस हुई तो उन्होंने फिर पाला बदल लिया।
नीतीश कुमार ने बड़ी सावधानी से कदम उठाते हुए पहले खुद ही मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया और कुछ ही घंटों में राजद, कांग्रेस, हम और वामदलों के साथ मिलकर सरकार गठन की पेशकश राज्यपाल के सामने रख दी। उनका आरोप है कि भाजपा उनके विधायकों को खरीदने की कोशिश कर रही थी। इस आरोप की सत्यता की जांच हो सकती है, लेकिन इसमें कुछ आश्चर्यजनक नहीं है। भाजपा ने कई राज्यों में जीत हासिल न करने के बावजूद सत्ता हासिल की है, तो यह कमाल किन तरीकों से हो सकता है, यह सब जानते हैं। अभी कुछ दिनों पहले झारखंड के कांग्रेस विधायकों को बड़ी रकम के साथ कोलकाता में गिरफ्तार किया गया और तब यह खुलासा हुआ कि झारखंड में भी सत्ता गिराने की रणनीति बनाई जा रही थी। महाराष्ट्र में तो शिवसेना को तोड़कर भाजपा ने सरकार बना ही ली। बिहार में भी ऐसा ही कुछ हो सकता था, लेकिन इससे पहले नीतीश कुमार ने बाजी फिर से अपने नाम कर ली।
उन्होंने भाजपा को मौका ही नहीं दिया कि वह जदयू को तोड़े या राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाए। चीते जैसी फुर्ती से नीतीश कुमार ने पलटवार किया. इससे उनके विरोधी बौखलाए हुए हैं। भाजपा याद दिला रही है कि 2020 में जनादेश किसे मिला था। नीतीश के कुछ पुराने वचन याद दिलाए जा रहे हैं, जैसे मर जाऊंगा, लेकिन भाजपा के साथ नहीं जाऊंगा। हालांकि मौजूदा राजनीति में कसमें-वादे, करार, वफा सब जुमले हैं, जुमलों का क्या, ऐसा हाल चल रहा है। अगर नीतीश कुमार ने भाजपा के विरोध में कुछ कहा था तो श्री मोदी ने उनके डीएनए की बात की थी। इस तरह की बातों को राजनीति में दिल पर लगाते रहेंगे तो फिर राजपाट त्याग कर संन्यास लेने का ही रास्ता बचेगा। और नीतीश कुमार फिलहाल संन्यास लेने के नहीं, बल्कि अपना कद और बड़ा करने की तैयारी में दिख रहे हैं।
पिछले दिनों नीतीश कुमार और सोनिया गांधी के बीच जो बातचीत हुई है, उसका खुलासा तो अब तक नहीं हुआ है। मगर कयास यही हैं कि नीतीश कुमार भाजपा के खिलाफ संयुक्त विपक्ष का नेतृत्व कर सकते हैं। विपक्षी एकता की तमाम कोशिशों को बार-बार झटका इसी वजह से लगता है कि नेतृत्व को लेकर आम सहमति नहीं बन पाती। शरद पवार, ममता बनर्जी, केसीआर सबकी अपनी महत्वाकांक्षाएं हैं। कांग्रेस के भीतर अब तक अध्यक्ष पद को लेकर ही फैसला नहीं हो पाया है और राहुल गांधी की तमाम खूबियों के बावजूद उन्हें क्षेत्रीय दलों के दिग्गज अपना नेता बनाने में हिचक रहे हैं। इस लिहाज से नीतीश कुमार का नाम विपक्षी गठबंधन के नेता के तौर पर आगे बढ़ाया जा सकता है। इसे ऐसे भी कह सकते हैं कि 2024 में मोदीजी की सत्ता को चुनौती देने के लिए नीतीश कुमार प्रधानमंत्री पद के दावेदार विपक्ष की ओर से हो सकते हैं। उनके नाम पर सहमति बनाने का एक कारण ये भी हो सकता है कि उन्होंने ऐसे वक्त में भाजपा के हाथ से सरकार छीनने का कमाल दिखाया है, जब बाकी जगहों पर लोग या तो भाजपा के आगे आत्मसमर्पण कर रहे हैं, या जांच एजेंसियों के दबाव में अपने विरोध की धार को खुद ही कुंद कर रहे हैं।
नीतीश कुमार केंद्र की राजनीति में आगे बढ़ेंगे तो राज्य की सत्ता में तेजस्वी यादव के लिए जगह सुरक्षित हो जाएगी। चाचा नीतीश कुमार को पिछले पांच सालों में तेजस्वी यादव ने कई बार खरी-खोटी सुनाई है। लेकिन जब वो कह रहे हैं कि 'हम तो चचा-भतीजा हैं, लड़े भी हैं, आरोप भी लगाए हैं। लेकिन हम तो समाजवादी लोग हैं हमारी जो पुरखों की विरासत है कोई और ले जाएगा क्या?', तो उनकी इस बात में यह संदेश साफ दिख रहा है कि राज्य में समाजवादी विरासत की राजनीति को आगे बढ़ाने के लिए अब वो पूरी तरह तैयार हैं। वैसे भी अपने परिजनों और करीबियों पर भ्रष्टाचार के लगते आरोप, जांच एजेंसियों की कार्रवाइयों, पिता के नरम-गरम स्वास्थ्य, भाई से अनबन, और पार्टी में कुछ दिग्गज नेताओं से खटपट के बावजूद तेजस्वी यादव ने नेता प्रतिपक्ष की भूमिका बखूबी निभाई और इसके साथ ही ये ध्यान रखा कि राजद की राजनीति लोगों के जेहन में जिंदा रहे।
उन्होंने पार्टी को लगातार सक्रिय रखा, कार्यकर्ताओं का जोश वे अलग-अलग कार्यक्रमों के जरिए बढ़ाते रहे और एआईएमआईएम के कुछ विधायकों को अपने साथ मिलाकर राजनैतिक चतुराई का परिचय भी दिया। क्रिकेट की बारीकियां जानने वाले तेजस्वी यादव ने राजनीति की फील्ड में सटीक खेल दिखाया है। इसलिए इस बार सेहरा भले नीतीश कुमार के माथे पर सजा हो, लेकिन दूल्हे वाली ठसक तेजस्वी यादव में ही दिख रही है। कुछ लोगों का मानना है कि तेजस्वी यदि जदयू की जगह भाजपा के साथ जाते तो उनका राजनैतिक फायदा अधिक होता। सत्ता भी मिलती, जांच एजेंसियों से मुक्तिभी। लेकिन ये याद रखने की जरूरत है कि तेजस्वी उन लालू प्रसाद के बेटे हैं, जिन्होंने आडवानी जी का रथ रोकने की हिम्मत दिखाई थी।
भाजपा को चुनौती तब भी बिहार से मिली थी, भाजपा को चुनौती अब भी बिहार से ही मिली है। देखना ये है कि बिहार का स्टेट ऑफ माइंड भाजपा कभी समझ पाएगी या नहीं।