- पुष्परंजन
सीआईए क्या फिर से तिब्बत मामले में सक्रिय हो रही है? हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला में तिब्बत की निर्वासित सरकार (टीजीआईई) की एक इकाई है, सोशल एंड रिसोर्स डेवलपमेंट फंड (एसएआरडीएफ)। ख़बर आई कि यूएसएड के माध्यम से नौ लाख 97 हजार 124 डॉलर 'एसएआरडीएफ' को ट्रांसफर किये गये। इसे मीडिया को जानकारी 13 जुलाई को दी गई, मगर डॉलर ट्रांसफर वाला काम 23 जून, 2020 को हो चुका था। जो कुछ लद्दाख के पेंगोग, देपसांग, दौलतबेग ओल्डी में चल रहा है, उसे कांउटर करने के वास्ते तिब्बत में क्या कोई छेड़छाड़ अमेरिका चाह रहा है? भारत सरकार इस प्रश्न का उत्तर आधिकारिक तौर पर देना आवश्यक नहीं समझती। मगर, जब रशियन कंपनियां लद्दाख की सौर ऊर्जा परियोजनाओं में दिलचस्पी दिखाने लगीं, तब लगता है कि महाशक्तियां हिमालय में कुछ नई रणनीति के साथ बड़े खेल करना चाहती हैं।
6 सितंबर, 2019 को प्रधानमंत्री मोदी रूस के व्लादीवोस्तोक में पांचवे इस्टर्न इकोनॉमिक फोरम में बतौर मुख्य अतिथि पधारे थे, वहां यह प्रस्ताव दिया गया कि रूस लद्दाख में सोलर प्लांट लगाना चाहता है। मगर पीएमओ की ओर से इसपर चुप्पी साध ली गई। रूस की तरफ से जो लोग इसमें बिचौलिये थे, यह समझाने की कोशिश की थी, कि लद्दाख में हमारे आने से चीनी हरक़तों पर अंकुश लगा पाने में आसानी होगी। रूसी सत्ताधारियों की दिलचस्पी इस इलाके में कितनी रही है, उस वास्ते इतिहास के पुराने पन्नों को पलटना होगा।
विश्व प्रसिद्ध पेंटर, फिलॉसफर निकोलाई रेरिख़ 1923 में लंदन से मुंबई आये। पहले वे दार्जिलिंग और सिक्किम गये। फिर पांच सदस्यीय टीम के साथ पंजाब, कश्मीर, लद्दाख, कारोकोरम पर्वत श्रृंखला होते हुए खोतान, काशगर, क़ारा-शार, उरूमशी, इरतिश, अताई माउंटेन, मंगोलिया का ओयरत, सेंट्रल गोबी से साइबेरिया होते हुए मास्को 1926 में ये लोग पहुंचे। लगभग चार हजार किलोमीटर की इस कठिन यात्रा से सेंट्रल एशिया के उस दुर्गम मार्ग की तस्दीक हुई, जिसे पहले भी यायावरों ने समय-समय पर खोज निकाला था।
निकोलाई रेरिख ने अपने संस्मरण में लिखा था कि खोजी टीम के पांचों सदस्य इस दुर्गम यात्रा के दौरान मौत के मुंह में जा चुके थे। निकोलाई रेरिख तीन वर्षों तक की उस यात्रा में पर्वत श्रृंखलाओं को कैनवास में उतारकर अमर कृति छोड़ गये। मगर, क्या वो तमाम पेंटिंग, अबूझ रास्ते के लिए निर्मित नक्शे, 1920 में बनी रूसी खुफिया एजेंसी 'एसवीआर-आरएफ', और 1954 में अस्तित्व में आई केजीबी के लिए काम की साबित हुई? इस सवाल को कला वीथिकाओं से बाहर, बहस के केंद्र में लाने की चेष्टा कभी नहीं हुई। 1874 में सेंटपीटर्सबर्ग में जन्मे और 13 दिसंबर 1947 को हिमाचल के कुल्लू जिले के नग्गर में देह त्याग चुके महान चित्रकार निकोलाई रेरिख के साथ यह रहस्य भी इतिहास के पन्नों में कहीं दफन हो चुका है।
हिमालय में रूसी दिलचस्पी के ये दो उदाहरण हैं। साइबेरिया से हिमालय तक 'ग्रेट गेम' की जब चर्चा होती है, सेंट्रल एशिया के रास्ते लेह लद्दाख तक पहुंचने की बात इसी मार्ग से की जाती है। 20 अगस्त 2000 को सीआईए ने कुछ दस्तावेज गोपनीय सूची से हटाकर 'डिक्लासिफाई' किये, उससे पता चला कि 29 अप्रैल, 1954 को भारत-चीन के बीच जो संधि हुई थी, उस समय यातुंग, ग्यांत्से, गारतोक तक भारतीय सेना की टुकड़ी तैनात थी। भारतीय सैनिक ल्हासा तक जाने वाले व्यापारियों की रक्षा करते थे। उस समय तिब्बत में टेलीफोन, टेलीग्राफ और पोस्टल सेवाएं भारत दे रहा था। 1954 के समझौते के बाद ये सारी व्यवस्थाएं भंग कर दी गईं, भारतीय सैनिक भी पोस्ट से हटा लिये गये।ठीक है, अक्साई चीन के मामले में देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की चूक थी, मगर जो कुछ 23 जून, 2003 को अटल जी के कर कमलों द्वारा पेइचिंग में हुआ, क्या उसे कूटनीतिक दूरदर्शिता कहेंगे? 23 जून, 2003 को जो उभयपक्षीय समझौते हुए, उसमें तिब्बत पर भारत के रूख को बदल दिया गया था। उससे पहले भारत की कूटनीतिक शब्दावली में 'तिब्बत स्वायत क्षेत्र (तिब्बत ऑटोनोमस रीजन)' था। उसमें रद्दोबदल कर समझौते में लिखा गया-'भारतीय पक्ष 'तिब्बत स्वायत क्षेत्र' को पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना का हिस्सा मानता है, और दोहराता है कि तिब्बतियों को चीन-विरोधी राजनीतिक गतिविधियों के वास्ते भारत में अनुमति नहीं मिलेगी।'निजाम बदले। भारत-चीन के साझा बयान 11 अप्रैल 2005, 21 नवंबर 2006, 16 दिसंबर 2010 और मई 2014 के बाद भी आये, उनमें इन्हीं लाइनों को दोहराया गया। काश, 23 जून, 2003 के समझौते में अरूणाचल को भारत का हिस्सा स्वीकार कराया होता, तो कह सकते थे कि बराबर की सौदेबाजी उस समय हुई थी। चीन दलाई लामा के हर अरूणाचल दौरे पर 1914 के शिमला कन्वेंशन की वजह से चिल्लम-चिल्ली करता है। कन्वेंशन के हवाले से तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने माना था कि दक्षिणी तिब्बत के पड़ोस में बसा तवांग और संपूर्ण अरूणाचल भारत का हिस्सा है। चीन 1914 के शिमला कन्वेंशन को मानने से इंकार करता रहा है।
सीआईए की दिलचस्पी लगातार तिब्बत पर रही है। शिन्चियांग के लोप नूर में चीनी परमाणु परीक्षण इसका बड़ा कारण रहा है। सीआईए की एक टीम 1965 में नंदादेवी पर्वत श्रृंखला में चार पाउंड प्लूटोनियम से संचालित ट्रांसमीटर छोड़ी गई। उसका पता 1978 में होवार्ड कोन की आउटसाइड मैगजीन में प्रकाशित एक लेख के जरिये चला। उस समय के प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई को संसद में वक्तव्य देना पड़ा कि नंदादेवी में लापता ट्रांसमीटर से स्वास्थ्य को कोई खतरा नहीं है। मगर, 2005 में नंदादेवी की धारा में प्लूटोनियम-235 के अंश मिले, तो लोग सकते में थे।
एक आम फहम है कि तिब्बत की निर्वासित सरकार की स्थापना पंडित नेहरू की वजह से हुई। मगर, सच यह है कि इस पूरे खेल को सीआईए के 'स्पेशल एक्टिविटी डिवीजन' ने अंजाम दिया था। सीआईए अभिलेखागार में डिक्लासिफाइड दस्तावेज बताते हैं कि 'स्पेशल एक्टिविटी डिवीजन'(एसएडी) ने 14 वें दलाई लामा का तिब्बत से पलायन का इंतजाम किया था। उस समय के अमेरिकी राष्ट्रपति आइजनहॉवर संभवत: पंडित नेहरू को समझा पाने में सफल हुए थे कि तिब्बत की निर्वासित सरकार भविष्य में चीन पर अंकुश का काम करेगी।
उन दिनों तिब्बत को केंद्र में रखकर सीआईए जो कुछ कर रही थी, उसे रूसी एजेंसियां 'काउंटर' तो नहीं कर पा रही थीं, मगर समय-समय पर उन गतिविधियों पर से पर्दा उठाने का काम क्रेमलिन की तरफ से होता रहा। रूसी इतिहासकार दिमित्रि बर्खोतुरोव ने कई सारे दस्तावेजों के आधार पर खुलासा किया कि यूएस कांग्रेस ने 1 लाख 80 हजार डॉलर 1964 के ड्राफ्ट बजट में आबंटित किया था। तिब्बत आंदोलन में सीआईए की कितनी गहरी दिलचस्पी रही है, उसका सबसे बड़ा उदाहरण पश्चिमी नेपाल सीमा से लगा तिब्बत का खाम प्रदेश है, जहां 1959 में खंफा युद्ध हुआ था। इसके लिए अमेरिका के कोलराडो स्थित कैंप हाले में 2100 खंफा लड़ाके लाये गये और उन्हें गुरिल्ला युद्ध की ट्रेनिंग देकर नेपाल के बरास्ते वापिस खाम भेजा गया। इस पूरे कार्यक्रम में नौ लाख डॉलर के खर्चे की मंजू़री अमेरिकी कांग्रेस से ली गई थी। जिसमें चार लाख डॉलर कैंप हाले में व्यय किया गया था।
कई उपलब्ध दस्तावेज बताते हैं कि स्वयं परम पावन दलाई लामा सीआईए के पे-रोल पर थे। 1950 से 1974 तक उन्हें हर महीने 15 हजार डॉलर भेजा जाता था। इस सूचना के बारे में परम पावन से न तो किसी ने पूछा न उन्होंने अपनी ओर से किसी इंटरव्यू में इस बात का जिक्र किया। सेंट्रल तिब्बतन एडमिनिस्ट्रेशन (सीटीए) की स्थापना दलाई लामा के महाभिनिष्क्रमण के बाद, 29 अप्रैल, 1959 को धर्मशाला में हुआ था। दक्षिण एशिया के विभिन्न ठिकानों पर रहने वाले तिब्बतियों की सहायता के वास्ते सोशल एंड रिसोर्स डेवलपमेंट फंड (एसएआरडीएफ) की स्थापना, 1997 में हुई थी।
एसएआरडीएफ के आर्थिक मददगारों में यूरोपीय संघ, नार्वेजियन चर्च एड, स्वीडिश आर्गेनाइज़ेशन फॉर इंडीविज़ुअल हेल्प, इसडेल फांउडेशन, अमेरिकी गृह मंत्रालय के भी नाम दिखते हैं। चीन मानता है कि 'एसएआरडीएफ' में आने वाले कई लाख करोड़ चीन विरोधी गतिविधियां जारी रखने के वास्ते है। भारतीय गृह मंत्रालय की ओर से एसएआरडीएफ में आने वाली राशि पर कोई रोक नहीं है। 2020-21 के लिए तिब्बत की निर्वासित सरकार का सालाना बजट था, 2 अरब 75 करोड़ 44 लाख 87 हजार रुपये। इसकी पूर्ति का एकमात्र साधन फॉरेन फंडिंग है।
बदलते वक्त के साथ तिब्बतियों को सीआईए का सहयोग धीरे-धीरे कम होता गया। 1968 में सूचना मिली कि सीआईए के जरिये तिब्बतियों को बजटीय सहयोग कम करके 11 लाख, 65 हजार डॉलर कर दिया गया था। दूसरी ओर तिब्बत में चीनी अलग खेल चल रहे थे। उन्होंने मार्च 2019 में एक श्वेत पत्र के जरिये घोषणा कर दी कि तिब्बत में धार्मिक स्वतंत्रता है, जहां लामाओं की संख्या 46 हजार है, और बुद्ध के 358 जीवित अवतार हैं। आधिकारिक जानकारी में यह भी बताया, 'तिब्बत में चार मस्जिदें और 12 हजार मुसलमान हैं, एक कैथलिक चर्च है, और 700 ईसाई।'कम लोगों को पता है कि अमेरिकी डेमोक्रेट नेता नैंसी पलोसी के ल्हासा जाने का इंतजाम नवंबर, 2015 के पहले हफ्ते में चीनी प्रशासन ने किया था। तब नैंसी पलोसी ने 'तिब्बत में सब चंगा सी' बोलकर उन्हें तुष्ट तो कर दिया, मगर दो साल बाद 9 मई, 2017 को जब वो दलाई लामा से मिलने धर्मशाला पहुंच गईं, तो चीनियों के कान खड़े हुए। तिब्बत एक ऐसा त्रिकोण है, जहां राष्ट्रपति ट्रंप और डेमोक्रेट नेता नैंसी पलोसी एक मंच पर आ जाते हैं। आख़िरी बार 7 फरवरी, 2020 को दोनों नेता तिब्बतियों के लिए प्रेयर मीटिंग में एक साथ मंच पर नमूदार थे। भारत में सत्ता व प्रतिपक्ष को क्या नैंसी पलोसी और ट्रंप से सबक नहीं लेना चाहिए, जो सारी तल्खी के बावज़ूद तिब्बत के सवाल पर एक पेज पर दिखते हैं?
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