- सर्वमित्रा सुरजन
जिस वक्त अलग-अलग धर्मों के शासक दिल्ली पर कब्जे के लिए लड़ रहे थे, साथ ही बाहरी आक्रमण भी हो रहे थे, जिनमें लूटपाट के बाद बड़ी संख्या में लोग कत्ल किए जा रहे थे, तब भी एक समाज के तौर पर उस वक्त के हिंदुस्तान में लोगों में प्रेम का भाव था। सिंहासन का धर्म कुछ भी हो, समाज में इंसानियत का धर्म निभाया जाता रहा होगा। अगर ऐसा नहीं होता, तो इस्लाम को मानने वाला एक व्यक्ति हिंदू धर्म पर खुशियां मनाने की बात क्यों कहता। और होली तो मोहब्बत और भाईचारे का ही त्योहार है।
मुहय्या सब है अब अस्बाब-ए-होली
उठो यारो भरो रंगों से झोली।
शायर शैख़ ज़हूरूद्दीन हातिम ने होली के मुबारक मौके पर रंगों से झोली भरने की बात को अपने तरीके से शायराना अंदाज में कहा। ऐसा करने वाले वे अकेले नहीं थे, अनगिनत शायरों ने सदियों से होली, दीवाली, जन्माष्टमी, ईद ऐसे तमाम मौकों के लिए रचनाएं लिखीं और समाज ने उनका आनंद भी लिया। नज़ीर अकबराबादी की मशहूर रचना है-
जब फागुन रंग झमकते हों,
तब देख बहारें होली की।
आज भी ऐसी रचनाएं लिखी जा रही हैं, लेकिन अब उन्हें देखने-सुनने और समझने का नजरिया शायद बदल गया है। अब त्योहार समाज के न होकर धर्मविशेष के दायरे में सीमित किए जा रहे हैं और वही बर्ताव भाषा के साथ भी हो रहा है। इंडिया या हिंदुस्तान की जगह भारत कहने पर जोर दिया जा रहा है। हालांकि इस भारत में भी देश की जो मूल भावना है उसे ठेस पहुंचाई जा रही है। अभी संसद में इसका उदाहरण सामने आया, जिसमें भाषा विवाद पर सही तरीके से अपनी बात रखने की जगह केन्द्रीय मंत्री धर्मेन्द्र प्रधान ने अपमानजनक शब्दों का उपयोग किया, जिसे बाद में कार्रवाई से हटाना पड़ा। श्री प्रधान ने तमिलनाडु की सरकार को न केवल अलोकतांत्रिक कहा, बल्कि असभ्य भी कह दिया। केन्द्रीय मंत्री ने भले ही यह बात तैश में आकर कही हो, लेकिन इसमें मन में छिपी भावना ही उजागर हुई। अपने से अलग लोगों को कमतर आंकने की मनोवृत्ति बहुतों में होती है। वही चीज संसद में सोमवार को नजर आई, और बाकी देश में भी अब यह बात खुलकर दिखाई दे रही है कि जो आप जैसा नहीं है, वो या तो गलत है, या कमजोर है और आप उसका अपमान जब चाहें कर सकते हैं।
बात शुरु हुई थी होली पर शायरी से, जिन शायर हातिम की शायरी का जिक्र शुरु में किया गया, उनका जन्म दिल्ली में 1699 में हुआ और मृत्यु 1783 में। यानी मुगल बादशाह औरंगजेब के आखिरी बरसों में शायर शैख़ ज़हूरूद्दीन हातिम इस दुनिया में आए और उसके बाद अपने जीवन में उन्होंने दिल्ली में नादिर शाह के आक्रमण से लेकर मराठाओं का आना, मुगल साम्राज्य के कमजोर पड़ने, सिखों के दिल्ली में आने तक की सारी उथल-पुथल देखी होगी। लेकिन फिर भी उन्होंने होली को अपनी शायरी का विषय बनाया तो यह माना जा सकता है कि जिस वक्त अलग-अलग धर्मों के शासक दिल्ली पर कब्जे के लिए लड़ रहे थे, साथ ही बाहरी आक्रमण भी हो रहे थे, जिनमें लूटपाट के बाद बड़ी संख्या में लोग कत्ल किए जा रहे थे, तब भी एक समाज के तौर पर उस वक्त के हिंदुस्तान में लोगों में प्रेम का भाव था। सिंहासन का धर्म कुछ भी हो, समाज में इंसानियत का धर्म निभाया जाता रहा होगा। अगर ऐसा नहीं होता, तो इस्लाम को मानने वाला एक व्यक्ति हिंदू धर्म पर खुशियां मनाने की बात क्यों कहता। और होली तो मोहब्बत और भाईचारे का ही त्योहार है। होली का जिक्र आते ही होलिका दहन करना और बुराइयों को जलाकर खाक करने की बात ध्यान में आने से पहले उड़ते हुए रंग-गुलाल, फाग, और एक-दूसरे को रंग लगाते, गले मिलते लोग याद आते हैं। इस दिन सारे तनावों, नफरतों, दुश्मनी और नाराजगी को रंगों में उड़ाने की परंपरा चली आई है। लेकिन अब लाल, गुलाबी, पीले, हरे, केसरिया रंगों को नफरत के रंग से फीके करने की नयी कोशिश शुरु हो हई है।
बेशक कुछ लोगों के लिए होली का त्योहार हुड़दंग मचाने, नशा करके उपद्रव करने, दूसरों को परेशान करने का अच्छा मौका होता है, लेकिन अब तो उमंग के इस त्योहार को दुश्मनी निभाने के त्योहार में बदला जा रहा है। उत्तरप्रदेश में संभल में सीओ अनुज चौधरी ने शांति समिति की बैठक में कहा कि होली का दिन वर्ष में एक बार आता है, जबकि जुमा साल में 52 बार आता है। अगर किसी को लगता है होली के रंग से उसका धर्म भ्रष्ट होता है तो वह उस दिन घर से ना निकले। यह समझना कठिन है कि बैठक शांति बनाए रखने के लिए थी, या अल्पसंख्यकों को धमकाने के लिए। हैरत इस बात की है कि भाजपा के नेताओं को इस बयान में कुछ गलत नहीं लगा। इसके बाद तो बाकी जगहों पर भी इसी तरह की बयानबाजी शुरु हो गई। कहीं मुसलमानों को घर से न निकलने की नसीहत दी गई, तो कहीं उन्हें हिजाब पहनकर बाहर निकलने कहा गया।
यह ठीक है कि होली की मस्ती में कुछ लोग उन पर भी रंग डाल देते हैं जो रंग नहीं खेलना चाहते, इनमें हिंदू भी होते हैं और दूसरे धर्मों के लोग भी। इसलिए कायदा तो यही है कि जिसे रंग से परहेज रखना है, उसे रखने दिया जाए। दूसरी बात होली शुक्रवार को पड़ रही है तो जाहिर है नमाज के लिए लोग मस्जिद जाएंगे, तो अपनी खुशी मनाते हुए दूसरे की सुविधा और भावना का ख्याल रखना कौन सा कठिन काम है, जिन्हें नमाज पढ़ने जाना है, उन्हें बेखौफ आने-जाने दिया जाए। इसमें सबकी खुशी रहेगी। और जो इस बात को न माने उसे पुलिस प्रशासन अपना खौफ दिखाए। लेकिन हुड़दंगियों को इस तरह समझाइश देने की जगह उल्टा उन्हें बढ़ावा देने की कोशिश हो रही है। किसी को तंग करने के इरादे से रंग डालने वाले लोग आराम से कहेंगे कि इन्हें तो पहले ही घर पर रहने कहा गया था, ये बाहर क्यों निकले। इस तरह की हरकतों से परपीड़ा का सुख कुछ वक्त के लिए हासिल हो जाएगा, लेकिन उससे समाज का और उससे भी बढ़कर धर्म का कितना नुकसान होगा, यह भी विचार कर लेना चाहिए।
होली के अलावा अब तो दशहरे, रामनवमी के जुलूस, तरह-तरह की शोभायात्राओं में भी अल्पसंख्यकों को परेशान करने के बहाने तलाशे जा रहे हैं। यानी हिंदुओं के त्योहारों को डर और आतंक फैलाने का जरिया बनाया जा रहा है। और जब ईद या क्रिसमस आए, तब भी उपद्रव करने के मौके तलाशे जा रहे हैं। व्यापक हिंदू समाज को अब विचार करना चाहिए कि धर्म बचाने के नाम पर जिस तरह एक पूरी पीढ़ी को नफरत और उन्माद में आपादमस्तक डुबो दिया गया है, उसमें धर्म का कितना नुकसान हो चुका है।
जब मध्यकाल में, गुलामी के दौर में, अलग-अलग शासकों के राज में हिंदुस्तान की गंगा-जमुनी तहजीब बची रही तो अब आजादी के 75 साल बाद लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष भारत में एक धर्म के लोग दूसरे धर्म के लोगों को डराने का काम क्यों हो रहा है और कौन सी देशविरोधी ताकतें इसे बढ़ावा दे रही हैं, इसे समझने की जरूरत है।
शायर शेख़ ज़हूरूद्दीन हातिम का ही एक और शेर है-
कपड़े सफ़ेेद धो के जो पहने तो क्या हुआ
धोना वही जो दिल की सियाही को धोइए।
बाकी होली के खास मौके पर आज के एक और शायर राघवेंद्र द्विवेदी ने खूब कहा है कि-
सब का अलग अंदाज़ था सब रंग रखते थे जुदा,
रहना सभी के साथ था सो ख़ुद को पानी कर लिया।
होली मुबारक!