• आखिर ये किनके नेता हैं?

    ये भारत सरकार के केंद्रीय मंत्री हैं। धोरों यानी रेतीले टीलों की धरती से आते हैं और एक बड़ा ही शीतल और निर्मल विभाग उनके पास है

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    - वर्षा भम्भाणी मिर्जा़

    हमारा दुर्भाग्य कि आज भी यही सब हो रहा है, कोई नेता नहीं जो महात्मा गांधी की तरह मतभेद की पुड़िया को जस का तस लौटाकर अपना मन ज़ाहिर कर दे। हर एक को तुरंत लाभ कमाना है, कूदना है। उत्तर से दक्षिण तक यही हाल है। ये नेता किनके नेता हैं जिनमें बस अपना स्वार्थ बसता है? किसी में लेशमात्र भी गांधी का अक्स दिखे तो आप उसे अपना प्रत्याशी चुन लेना।

    ये भारत सरकार के केंद्रीय मंत्री हैं। धोरों यानी रेतीले टीलों की धरती से आते हैं और एक बड़ा ही शीतल और निर्मल विभाग उनके पास है। वे जल संसाधन मंत्री हैं और राजस्थान के भावी मुख्यमंत्री होने की ख्वाहिश रखते हैं। ऐसा हो भी सकता है लेकिन क्या जनता अपने नेता की सभा में 'ज़ुबान खींच ली जाएगी' और 'आंखें निकाल लेंगे' जैसे शब्द सुनने के लिए आती है? बाड़मेर के धोरीमन्ना में केंद्रीय मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत ने ऐसी ही भाषा का प्रयोग किया। इसके पहले वे राजस्थान सरकार के एक मंत्री को 'अरब सागर में फेंकने' की बात कर चुके हैं और मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को 'रावण' भी कह चुके हैं। ऐसी भाषा जब परिवर्तन यात्राओं में इस्तेमाल होगी तो आप किस हक़ से जनता से उम्मीद करते हैं कि वह शांत रहे? फिर, हरियाणा के नूंह और महाराष्ट्र के सतारा में हुई हिंसा को आप कैसे रोक सकते हैं? आख़िर बात-बात पर ये नेता इस क़दर उत्तेजित क्यों होते हैं? बुद्ध, विवेकानंद और बापू के देश में क्या अब नेताओं में बातचीत का यही सलीका रह गया है?

    अब से 130 साल पहले शिकागो में 11 सितंबर 1893 को स्वामी विवेकानंद ने हिन्दू धर्म की प्रतिष्ठा में जो कहा था, लगता है उसे इन नेताओं ने पूरी तरह से भुला दिया है। सभा में मौजूद पूरी अंतरराष्ट्रीय बिरादरी का दिल जीत लेने वाले उस ऐतिहासिक व्याख्यान की प्रारंभिक पंक्तियां थीं- 'मैं एक ऐसे धर्म का अनुयायी होने में गर्व का अनुभव करता हूं जिसने संसार को सहिष्णुता तथा सार्वभौमिकता की शिक्षा दी। हम लोग सभी धर्मों के प्रति केवल सहिष्णुता में ही विश्वास नहीं करते, समस्त धर्मों को सच्चा मानकर उन्हें स्वीकार करते हैं। मुझे एक ऐसे देश का इंसान होने का अभिमान है जिसने इस पृथ्वी के समस्त धर्मों और समस्त उत्पीड़ितों-शरणार्थियों को आश्रय दिया है।' कितने कमाल की बात है कि जिस सभा में सब अपने धर्म की श्रेष्ठता साबित करना चाह रहे थे वहां स्वामी जी ने सब धर्मों के सत्य को स्वीकारने वाले हिंदू धर्म की इस ख़ूबी को बताकर उसे हर प्रतिस्पर्धा से ऊपर स्थापित कर दिया। आज के ये नेता चाहे तमिलनाडु में सत्तारूढ़ पार्टी द्रमुक मुनेत्र कषगम (डीएमके) के उदयनिधि स्टालिन हों या भारतीय जनता पार्टी के गजेंद्र सिंह शेखावत जो केवल अपनी तत्कालीन राजनीतिक रोटियां सेंकने में लगे हैं, इनमें से किसी को भी इल्म है कि वे किस महान विरासत को धूमिल कर रहे हैं।

    करूणानिधि के पोते और तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन के बेटे उदयनिधि स्टालिन का यह बयान कि 'सनातन धर्म को जड़ से ख़त्म किया जाना चाहिए और मच्छर, डेंगू, मलेरिया और कोरोना ये कुछ ऐसी चीज़ें हैं, जिनका केवल विरोध नहीं किया जा सकता बल्कि उन्हें ख़त्म करना ज़रूरी होता है', दरअसल सनातन संस्कृति के बारे में दक्षिण के बड़े विचारकों का मानना है कि यह समानता की पैरोकार नहीं है और इससे वंचित समाज को बराबर के हक़ नहीं मिल पाते।

    तमिलनाडु की राजनीति में इसका असर साफ़ देखा जा सकता है, ख़ासकर द्रविड़ राजनीति ने इसे अपने ख़िलाफ़ माना। आर्य और द्रविड़ विवाद कोई आज का नहीं है। तमिलनाडु का राजनीतिक इतिहास बताता है कि इसकी शुरुआत पिछली सदी के दूसरे दशक से हुई जब वहां के नेताओं ने तमिलनाडु के निवासियों को द्रविड़ मानते हुए उन्हें उत्तर भारत के आर्यों से अलग कहा था। पेरियार और रामास्वामी के नेतृत्व में बदलाव की जबरदस्त लहर चली और आगे जो राजनीतिक आंदोलन कायम हुआ वह 'द्रविड़ मुनेत्र कषगम' कहलाया। सत्तर के दशक से हर चुनाव में प्रदेश की सत्ता दो दलों डीएमके और अन्ना डीएमके के हाथ में रही और वे उच्च वर्ग विरोधी रुख के कारण सत्तासीन होते रहे।

    समझना मुश्किल नहीं होना चाहिए कि आम जनता को इससे ताकत मिली, भरोसा मिला। दक्षिण के इस नेरेटिव से भाजपा में उत्तर भारत में लाभ लेने की इच्छा बलवती हुई और इसीलिये सरकार के मंत्री इस कदर हिंसक बयान दे रहे हैं। अच्छी बात यह हुई है कि अब मुख्यमंत्री स्टालिन और इंडिया गठबन्धन ने इस मुद्दे पर कोई भी बयान देने से इंकार कर दिया है और इसे यहीं समाप्त करने का फैसला लिया है।

    सच है कि भारतीय जनता पार्टी को यह मुद्दा तश्तरी में रखकर मिला था। हिन्दू-मुसलमान की सियासत करने वाली भाजपा को कतई परेशानी नहीं है कि उसे उत्तर के लिए दक्षिण से भी बैर क्यों न करना पड़े और दांव पर क्यों न बहुसंख्यक वर्ग ही हो। नफ़रत, बहस, लड़ाई वर्तमान भारतीय राजनीति का यही आधार बना हुआ है। चुनाव करीब हैं, लिहाज़ा विश्व हिन्दू परिषद 30 सितंबर से 15 अक्टूबर तक शौर्य जागरण यात्राओं का संचालन करेगी और उसके धर्म योद्धा देश भर में घूमेंगे। ये स्वामी विवेकानंद की विरासत को लेकर नहीं चलेंगे बल्कि ये बताएंगे कि 'लव जेहाद' क्या है और जो कोई कथित जेहादी हो भी गया है यानी किसी और धर्म- इस्लाम या ईसाईयत को अपना चुका है, ऐसे में उसकी 'घर वापसी' कैसे होगी।

    बंटवारे का दावानल सुलगता रहना चाहिए और उसमें आग उगलते बयानों का पेट्रोल भी पड़ते रहना चाहिए। ये बयान जब सरकार के मंत्री देते हैं तो मतदाता को चिंतित अवश्य होना चाहिए कि उसका कीमती मत और टैक्स उसके कल्याण में खर्च होगा या परिवर्तन रैलियों में ज़हर उगलेगा? रैलियां करना अधिकार है लेकिन कानून-व्यवस्था को देखना होगा कि इसके ज़रिये अनावश्यक उकसाने और नीचा दिखाने का उपक्रम न हो, जैसा कि पिछले दिनों नूंह की सांप्रदायिक हिंसा में हुआ। अच्छी बात यह है कि इससे जुड़े एक आरोपी मोनू मानेसर को गिरफ्तार कर राजस्थान पुलिस को सौंप दिया गया है जिस पर दो लड़कों की हत्या का इलज़ाम भी है।

    क्या सत्ता कभी इस बात पर विचार नहीं करती कि ऐसे मुद्दों से देश में केवल तनाव पैदा होता है, अफवाहें सर उठाती हैं और लोग सांप्रदायिक हिंसा का शिकार होकर अपनी जान गंवा देते हैं। महाराष्ट्र के सातारा ज़िले के एक गांव में एक सोशल मीडिया पोस्ट से एक व्यक्ति की जान चली गई और दस से ज़्यादा घायल हो गए। कई शहरों की ऐसी ही दर्द भरी दास्तानें हैं।

    इंटरनेट बंद कर दिया जाता है, स्कूल-कॉलेज बंद हो जाते हैं। क्यों इक्कीसवीं सदी के वैज्ञानिक युग में ऐसा हो रहा है? एक तरफ हम चांद पर पहुंच कर आल्हादित हो रहे हैं तो वहीं दूसरी ओर हमारे ही देश का दुखद सच यह है कि धर्म के नाम पर लोगों की जानें जा रही हैं। क्या इसके लिए देश चुनता है सरकार? ऐसा वादा देश और राज्य की सरकारें जनता से क्यों नहीं करती कि एक भी जान ऐसी पाशविक प्रवृत्ति की वजह से नहीं जाएगी? विविधता से भरे देश में यही पहला वादा होना चाहिए कि किसी भी सांप्रदायिक अथवा सामुदायिक संघर्ष में लोग नहीं मारे जाएंगे। ऐसा कैसे संभव है? इसका जवाब बुद्ध और महात्मा गांधी से मिलता है- दुखी व गरीब की सेवा और हर विविधता का आदर।

    सच है कि जब तक गांधीजी रहे, राष्ट्रीयता की हमारी समझ को उनसे राह मिलती रही; क्योंकि उन्होंने भी अपना धर्म 'अहिंसा' ही माना था। जैनेन्द्र कुमार अपने लेख में लिखते हैं- 'समस्यांए आती थीं लेकिन उनके भीतर ऐसा समाधान हो जाता था कि कोई कठिनाई उन्हें नहीं होती थी। अपनी आत्मा के रह कर, सबके बनते जाने में उन्हें कोई मुश्किल नहीं हुई। सबके होने में उन्हें अपनी मर्यादा छोड़ने की ज़रूरत नहीं थी। अंत तक कहा कि मैं सनातन हिन्दू वैष्णव हूं, उसी में से सब धर्म मुझे समान बनाते हैं। वे सब मेरे हैं, मैं उनका हूं। मेरा वैष्णवत्व मुझे यह सिखाता है। मतभेद उनके सामने भी आए, पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की ओर से भी आए। तब महात्मा गांधी ने उन्हें तोड़ा या गलाया नहीं, जस का तस उनकी ओर भेज दिया। गांधीजी अपनी तरह जी कर, हमारी आंखों को खोल देने वाली जीवन नीति रख गए लेकिन उस मानव नीति की भूमिका पर हमारा काम नहीं चल सका। राजनीति का बोलबाला रहा और राजनीतिक अधिकारों की चाह और मांग से वातावरण गर्म बना रहा।

    हमारा दुर्भाग्य कि आज भी यही सब हो रहा है, कोई नेता नहीं जो महात्मा गांधी की तरह मतभेद की पुड़िया को जस का तस लौटाकर अपना मन ज़ाहिर कर दे। हर एक को तुरंत लाभ कमाना है, कूदना है। उत्तर से दक्षिण तक यही हाल है। ये नेता किनके नेता हैं जिनमें बस अपना स्वार्थ बसता है? किसी में लेशमात्र भी गांधी का अक्स दिखे तो आप उसे अपना प्रत्याशी चुन लेना। फिर इधर-उधर जाने की ज़रुरत नहीं। वह किसी भी दल में हो सकता है।
    (लेखिका स्वतंत्र पत्रकार हैं)

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