• आखिर किसे लात मारेंगे गडकरी?

    केन्द्रीय सड़क एवं परिवहन मंत्री नितिन गडकरी अपने काम के साथ अपनी साफगोई के लिये भी मशहूर हैं

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    केन्द्रीय सड़क एवं परिवहन मंत्री नितिन गडकरी अपने काम के साथ अपनी साफगोई के लिये भी मशहूर हैं। माना जाता है कि वे अपने तरीके से काम करते हैं जिसमें किसी का दखल या दबाव नहीं होता। हर तरह की परियोजना पर उनकी अपनी मुहर होती है।

    सरकारी धन का इस्तेमाल किये बगैर वे किसी भी योजना को साकार करने में सक्षम माने जाते हैं। इसके लिये वे पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप (पीपीपी) का इस्तेमाल करते हैं। सबसे पहले 1995 में महाराष्ट्र की शिवसेना-भारतीय जनता पार्टी सरकार बनी तब उन्होंने यही पद सम्हाला था। उस दौरान मुम्बई में काफी कम समय में 55 फ्लाईओवर और मुम्बई-पुणे हाईवे बनाने में उन्हें सफलता मिली थी। वरली सी फेस ब्रिज भी उनके प्रयासों से बना था। इन सभी निर्माणों में इसी पद्धति का उन्होंने इस्तेमाल किया था।

    हालांकि निजी भागीदारों द्वारा भारी-भरकम टोल वसूल करने, अनेक महत्वपूर्ण महामार्गों के धसकने और कई पुलों के ढहने की भी घटनाएं हुई थीं जिसके कारण पीपीपी पर सवालिया निशान भी लगे।

    नागपुर में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के एक साधारण कार्यकर्ता से उठकर इस पद तक पहुंचे गडकरी कई कारणों से सुर्खियां बटोरते रहे हैं। वर्ष 2010-13 के दौरान वे भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्र्रीय अध्यक्ष बनाये गये थे लेकिन उनके पूर्ती उद्योग समूह पर 2012 में अनियमितताओं के लगे आरोपों के कारण उन्होंने इस्तीफा दे दिया था। बाद में वे आरोप गलत साबित हुए थे। उनमें यह अच्छी बात है कि जो काम वे कर नहीं पाते उसे वे किसी भी मंच से स्वीकारने में संकोच नहीं करते। याद हो कि पिछले वर्ष के लोकसभा चुनाव के पहले नागपुर से प्रकाशित होने वाले एक अखबार में छपे साक्षात्कार ने हलचल मचा दी थी जो नाम न छापने की शर्त पर एक कथित केन्द्रीय मंत्री का था, जिसमें उन्हें यह कहकर उद्धृत किया गया था कि 'वे जब चाहें केन्द्र की भाजपा सरकार को पलटा सकते हैं।' उस इंटरव्यू में उन मंत्री का यह उद्धरण भी छपा था कि 'उनके साथ बहुमत है और वे प्रधानमंत्री बन सकते हैं।' भाजपा की मातृसंस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बेहद करीबी माने जाने वाले गडकरी की ओर सभी का संदेह गया था। माना गया था कि उनके जरिये नरेन्द्र मोदी को खबरदार किया गया है। हालांकि गडकरी ने कभी स्वीकार नहीं किया कि वह साक्षात्कार उनका था। कोई करेगा भी नहीं।

    एक विनम्र तथा काम से काम रखने वाले नेता की उनकी छवि है। वे दलगत राजनीति या गुटबाजी में नहीं उलझते, लेकिन कभी-कभार उनकी ओर से आये कुछ बयान इसलिये चर्चा में आ गये कि वे पार्टी लाइन से हटकर रहे हैं। मसलन, पिछले दिनों एक कार्यक्रम में उन्होंने बतलाया कि जिस लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र से वे निर्वाचित होते हैं उनमें बड़ी तादाद मुस्लिमों की है और उनका उन्हें पूरा समर्थन मिलता है। वे यह बतलाने से भी गुरेज़ नहीं करते कि विभागीय निर्णय लेते वक्त वे यह नहीं देखते कि उन इलाकों में किस समुदाय के लोग रहते हैं। जाहिर है कि एक मंत्री के नाते उन्हें यही कहना होता है। बेशक, उनके लोकसभा क्षेत्र नागपुर में बड़ी तादाद में अल्पसंख्यक रहते हैं; लेकिन सभी को यह भी पता है कि चुनाव केवल विचारधारा के आधार पर नहीं लड़े जाते। उसमें बूथ मैनेजमेंट से लेकर बहुत सारे अन्य तथ्य भी प्रभाव डालते हैं।

    बहरहाल, संघ से नज़दीकी बतलाती है कि गडकरी संगठन की विचारधारा से अलग नहीं हो सकते। मोदी और आरआरएस प्रमुख मोहन भागवत तक इस आशय के बयान देते रहे हैं जो एक तरह से भाजपा-संघ का उदार चेहरा बतलाने की कोशिश रहती है। मोदी कहते हैं कि 'वे यदि हिन्दू-मुसलमान करेंगे तो उन्हें सार्वजनिक जीवन में रहने का अधिकार नहीं है।' उधर भागवत को भी गाहे-बगाहे याद आ जाता है कि 'मुस्लिम हमारे भाई ही हैं' अथवा 'हिन्दुओं और मुस्लिमों का डीएनए एक ही है'। पीएम, संघ-प्रमुख या संगठन के नेता कुछ भी कहते रहें लेकिन कार्यकर्ताओं को पता है कि असलियत क्या है। यदि मोदी या भागवत की बातों में उनका सच्चा यकीन होता तो आज देश में साम्प्रदायिक सौहार्द्र की बयार बह रही होती और जगह-जगह पर देश के इन दो प्रमुख धार्मिक समुदायों के बीच टकराव नहीं हो रहे होते।

    खैर, अब गडकरी नयी बात कह रहे हैं जो उनके जैसे संघ, एबीवीपी, भाजपा और मंत्रिमंडल के सदस्य के रूप में कहा जाना न केवल आश्चर्यजनक है बल्कि उनकी विचारधारा के बेहद प्रतिकूल भी। उनके तेवर भी कुछ अधिक आक्रामक हैं। नागपुर के अंजुमन-ए-इस्लाम इंजीनियरिंग संस्थान के दीक्षांत समारोह में भाषण करते हुए उन्होंने कहा कि, 'मैं कभी धर्म व जाति की राजनीति नहीं करता। मैं अपने तरीके से काम करता हूं। मुझे चिंता नहीं कि कौन उन्हें वोट देगा और कौन नहीं।' उन्होंने यह भी बताया कि इस इंजीनियरिंग कॉलेज की अनुमति उन्हें मिली थी लेकिन उन्होंने यह कहकर इस संस्थान को दे दी कि 'मुस्लिमों को इसकी ज़रूरत अधिक है।' कहा जा सकता है कि वे अपनी धर्मनिरपेक्ष नेता की छवि गढ़ रहे हैं, परन्तु अब गडकरी एक कदम आगे बढ़कर कहते हैं कि 'जो जात की बात करेगा उसको वे लात मारेंगे।' जिस तरह संघ की विचारधारा धार्मिक भेदभाव में भरोसा रखती है, उतना ही उसका विश्वास वर्ण व्यवस्था में भी है। संघ स्वयं इससे परिचालित होता है। उसका नेतृत्व सिर्फ एक अपवाद को छोड़कर ब्राह्मणों के ही हाथ में रहा है। ऐसे में गडकरी लात मारने की बात करते हैं, तो समझना होगा कि वे किसकी ओर इशारा कर रहे हैं।

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